सन्नाटा
सन्नाटा
आधी रात का वक़्त सन्नाटा और मैं, हाथ में कलम, मेज़ पर सादा पन्ना और घड़ी की टिक-टिक;सोच रहा हूँ कि क्या लिखूं, खिड़की से आती हुई ठंडी हवा जंगल के बाहर अंधेरे को काटती हुई चाँद की रौशनी, दूर-दूर तक रात को किसी की आवाज़ नहीं, बस घड़ी की टिक-टिक, ट्यूबलाइट में होती बिजली की आवाज़ और मैं।
क्यों न आज कुछ लिखूँ, सोच ही रह था कि सन्नाटा मुझ से बातें करने लगा, सन्नाटा ऐसा जो रात की अंधियारी में ज़ोर से कह रहा हो अरे मैं यही हूँ ज़रा सुनो मुझे, देख नहीं पाओगे लेकिन कान लगा कर सुनो तो मुझे, हाँ और ध्यान से सुनो, महसूस करो शांति को जिसे मैंने अपने रग-रग में समाए रखा है, इसी के लिए तड़पते हो न तुम ? हाँ वही शान्ति है मेरे पास, गले नहीं लगाओगे?? बिल्कुल घूप अंधेरा के बीच हूँ, न कोई अहसास हूँ न किसी की आवाज़ हूँ मैं,में वो हूँ जिसे तुम सन्नाटा कहते हो, मैं कुछ नहीं और सबकुछ हूँ।
हर रोज़ आता हूँ मैं जब तुम सो जाते हो, शांति जो मेरी संगिनी है संग उसे लाता हूँ, पर तुम तो आँखें बंद किये सपने देखते हो वह जो तुम करने की इच्छा रखते हो वो सपने, कभी तो मिलो मुझसे, दो प्याली चाय तो पिलाओ एक-दो समोसे तो खिलाओ,आखिर सन्नाटा हूँ मैं।
सन्नाटा हूँ पर अकेला नहीं हूँ तुम्हारे जैसा, मैं और शांति रोज़ रात की कड़क चांदनी में घूमा-खेला करते हैं, बातें करते हैं, शांति जिसके लिए ये सब मरते हैं वो सिर्फ मेरे पास है और रहेगी, वो मेरे साथ अनंत काल से है और आगे भी रहेगी, पूछते हो क्यो? क्योंकि.....मैं सन्नाटा जो ठहरा।
सन्नाटा जो इतना खूबसूरत है, हर तरफ फैला हुआ है बादलों में, आसमाँ में, बहती हुई हवा के साथ, ठंड में, सिहरन में, शांति में, बारिश के पहले और बाद, मैं जीवन से परिपूर्ण हूँ खुद में सम्पूर्ण हूँ, सभी चीज़ के पहले और बाद में आखिर सन्नाटा ही तो होता है, या यूं कहूँ की शुरुआत और अन्त मुझ से ही होता है।
