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चमकीला पत्थर

चमकीला पत्थर

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कवि महोदय कुछ खुराफाती प्रकृति के मालिक थे और हमेशा कुछ ना कुछ खुराफात करने की सोचते रहते। शायद यही खुराफातें ही उन्हें विशेष बनाती थी। कोई विषय ना हो तब भी कुछ ना कुछ कह दिया करते। वैसे तो ठीक ही लिख लेते थे और यदि कभी ठीक नहीं भी बनता तो उनका नाम ही ऐसा था कि तालियाँ बज ही जाती।


इस बार उन्होंने एक पत्थर पर चंद पंक्तिया लिख डाली और अपने मित्र सिंह साहब को सुना डाली। सिंह साहब भी एक बार तो सोच में पड़ गए कि सड़क किनारे पड़ा हुआ छोटा सा पत्थर इतनी विशेषताओं की खान कैसे हो सकता है। इसी सोच में ताली बजाना जैसे भूल ही गए। कवि महोदय की चुभती निगाहों ने भूल का अहसास और फिर सुधार भी करवा दिया।


खैर एक दिन सिंह साहब सड़क किनारे चले जा रहे थे कि अचानक जूते के नीचे एक छोटा चमकीला पत्थर आ गया। सिंह साहब को कवि महोदय की कविता भी याद आ गयी लिहाज़ा उन्होंने चमकीला पत्थर उठा कर जेब के हवाले किया और घर आ गए।


कई दिनों तक पत्थर की जांच पड़ताल के बाद भी कोई गुण नहीं मिला तो सिंह साहब ने सोचा कि जब कवि महोदय कह रहे है तो पत्थर यकीनन गुणी होगा बस वो पत्थर के गुण तलाश नहीं कर पा रहे लिहाज़ा उन्होंने प्रयास दुगने कर दिया।  


एक दिन निराश होकर सिंह साहब ने पत्थर हाथ में लिया और बाहर आ गए ताकि पत्थर को फेंक सकें। संयोग देखिए कि तभी कवि महोदय भी उधर आ निकले और सिंह साहब के हाथ में पकड़ा पत्थर भी उनकी तीरे नज़र से बच नहीं पाया।


माजरा तो कवि महोदय समझ ही चुके थे लिहाज़ा बिना अहसास करवाये कवि महोदय ने पत्थर पर एक और कविता सिंह साहब को सुना दी। सिंह साहब उलझ गए और एक बार फिर पत्थर उनके टेबल पर आ विराजा।


अब कवि महोदय के प्रयास लगातार बढ़ते गए और सिंह साहब के पास हर दूसरे तीसरे दिन पत्थर पर लिखी कविता आने लगी। सिंह साहब भी परेशान की आखिर एक नामी कवि इतनी लंबी लंबी तो नहीं फेंक सकता शायद सिंह साहब ही काबिल नहीं है।


वक़्त गुजरता गया और कवि महोदय ने सिंह साहब को अहसास करवा दिया कि सिंह साहब बहुत किस्मत वाले है जो वो चमकीला पत्थर उनकी टेबल पर विराज रहा है। अब सिंह साहब अपने वास्तविक कामों से चूकने लगे और अपना कीमती वक़्त पत्थर चमकाने में लगाने लगे। आखिर क्यों नहीं चमकाते आखिर उस चमकीले पत्थर ने सिंह साहब की मेज पर विराजना स्वीकार किया था।


सिंह साहब रिटायर हो गए और कवि महोदय अब भी सिंह साहब को हर हफ्ते आकर पत्थर के उन पर किये अहसान अपनी कविता के माध्यम से सुना जाते। धीरे धीरे सिंह साहब की बुद्धि विवेक पर उम्र हावी होने लगी। पत्थर अब भी उनकी टेबल पर वैसा का वैसा ही पड़ा था बिना कोई लाभ दिए।


जब तक सिंह साहब समझते उनका वक़्त गुजर चुका था अब उनकी देखा देखी कई और अपना वक़्त बर्बाद कर रहे थे। और सिंह साहब यह स्वीकार करने में शर्मा रहे थे कि उस चमकीले पत्थर में कोई विशेषता नहीं है उस पत्थर की चमक भी किसी की मोहताज है। लिहाज़ा सिंह साहब खामोशी से तमाशबीन बन गए और चमकीला पत्थर उसी तरह टेबल पर पड़ा रहा।



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