छुपन-छुपाई

छुपन-छुपाई

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"अरे माता जी ! मैं बहुत देर से देख रहा हूँ, आप यहाँ इस कौने में बैठी है.... क्या बात हो गयी ? कोई परेशानी है ?'

बहुत देर से बाज़ार में एक छुपे से कौने में बैठी बुढ़िया को देखकर होमगार्ड ब्रह्मानन्द ने पूछा।

"श...श.... चुप रह मुए !.... मेरी चालाकी पर पानी फेरेगा क्या ?..... मैं और मेरी बहु छुपन-छुपाई खेल रही हैं। कहीं तुम्हें उसने इस तरफ बात करते देख लिया तो मैं पकड़ी जाऊँगी। फिर उसको ढूंढने का मेरा नंबर आ जाएगा और इस बुढ़ापे में मैं किसी को ढूंढने की हिम्मत नहीं कर सकती।"

घबराती, नज़रें चुराती हुई बुढ़िया बोली।

"माँ ! तेरी बहू तो तुझे ढूंढते-ढूंढते थक गई..... लेकिन तेरे इस बेटे ने तुझे ढूंढ लिया.... आइस-पाईस।"

पहनावे से सभ्रांत घर की दिखने वाली उस बुढ़िया ने आँखें मूँदते हुए एक लम्बी साँस ली, आँखों के कोरों ने अब तक संभाले आँसुओं को उन्मुक्त छोड़ दिया जो छुपन-छुपाई के इस खेल का दर्द ब्यान कर रहे थे।


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