सुनहरा भविष्य
सुनहरा भविष्य
"ओरी अशरफिया! तनिक जल्दी करो देर हो गयी तो ठेकेदार काम नहीं देगा।" हज़ारीलाल ने पत्नी को आवाज़ लगायी।
"आवत हैं। कोन्हों दूर थोड़े ही जाना है। बस्ती किनारे सड़क तक ही तो जाना है।" अशरफी साड़ी के पल्लू को कमर पर कसती हुई झुग्गी से बाहर निकली।
बाहर मिट्टी में कँचे खेल रहे बुधिया ने सवाल किया, "बापू! तुम और अम्मा कहाँ जावत हो?"
"बेटा! धन का गोरा देवता आने वाला है। उके हमार बस्ती ना दिखे एहि बास्ते बड़ी सड़क किनारे ऐतिहासिक दीवार बनायी जा रही है।" हज़ारीलाल ने फावड़ा कंधे पर रखते हुए कहा।
"बापू! तुम्हें और अम्मा को हर रोज काम मिले तो मैं भी स्कूल जा सकूँगा।" बुधिया अपनी फटी कमीज़ में उंगली को नचाते हुए बोला।
अशरफी ने बुधिया के सिर पर हाथ फेरा और तसला कमर पर रखते हुए बोली, "हाँ बिटुवा! अइसन दीवारें हर रोज बनबेक़री तो काम मिलता रहिब, फिर तो हम तोका पढ़ा-लिखा के कलेक्टर बनवा देईब।"
"अरे अब चलो भी कलेक्टर की अम्मा।" हँसते हुए हज़ारीलाल बोला और दोनों सुनहरे भविष्य की कल्पना में खोए मज़दूरी पर निकल लिए।