Bindiya rani Thakur

Tragedy

3.5  

Bindiya rani Thakur

Tragedy

बूढ़ी काकी कहानी ,लाडली की जुबानी

बूढ़ी काकी कहानी ,लाडली की जुबानी

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मैं लाडली! पंडित बुद्धिराम और रूपादेवी की इकलौती बिटिया हूँ, अपने परिवार में मैं सबसे छोटी हूँ। मेरे भाई मुझसे जरा भी स्नेह नहीं करते हमेशा ही मेरे पीछे पड़े रहते हैं सो उनसे बचने के लिए मैं दादी माँ के पास चली जाती हूँ। वह मेरी रक्षा किसी सुरक्षा कवच की भांति करती हैं। दादी माँ मेरे पिताजी की काकी हैं। हमारे अलावा इस दुनिया में उनका और कोई भी नहीं है ।

आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मेरे बड़े भैया का तिलकोत्सव है, घर में तरह तरह के पकवान और मिष्ठान बन रहे हैं, मेरे पिताजी पंडित बुद्धिमान लोगों से घिरे हुए हैं और चर्चा करने में लगे हुए हैं।

भैया लोग भी सब अपने- अपने मित्रों के साथ बातचीत में लगे हैं।

मेरी माँ रूपा देवी दौड़-दौड़ कर सारी व्यवस्था देख रहीं हैं, सबके खाने-पीने की व्यवस्था कर रही हैं, मैंने भी माँ से अपने खाने के लिए कुछ मिठाइयाँ माँग लीं जो तत्काल ही माँ ने मुझे दे दी।

जब से होश संभाला है मैंने यह देखा है कि माँ अपनी "बूढ़ी काकी "का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखती हैं, दादी माँ की उम्र हो चली है, वह ठीक से चल भी नहीं पाती हैं दोनों हाथ जमीन में रखकर रेंगती हैं। इस समय वह मन से बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह हो गईं हैं, हमेशा तीखा, चटपटा खाना चाहतीं हैं किन्तु माँ को पता नहीं क्या हुआ है वह ऐसा खाना तो दूर की बात है साधारण भोजन भी समय पर नहीं खिलाती है।

मैं ने गांव के लोगों को कहते हुए सुना है कि हमारी जितनी भी जमीन जायदाद है वह सब दादी माँ का है, जो उन्होंने मेरे पिताजी के नाम पर लिख दिया है लेकिन इस सबके बावजूद पिताजी भी अपनी बूढ़ी काकी का ध्यान नहीं रखते और उन्हें बोझ समझने लगे हैं।

आज जबकि सबसे पहले दादी माँ को खाना खिलाया जाना चाहिए था उन्हें किसी ने पूछा तक नहीं, जब भूख बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो गया तब बेचारी किसी तरह अपने कमरे से रेंगती हुईं आईं लेकिन माँ को इसमें अपना अपमान महसूस हुआ और उसने गाँव की औरतों के सामने ही मन भर दादी को कोसा और अपमानित किया। बेचारी रो भी न सकीं और किसी तरह रेंगती हुई कोठरी में चली गई।

पिताजी भी कम नहीं हैं उन्होंने तो अपनी बूढ़ी काकी को घसीट कर कमरे में पटक दिया जब वे दोबारा खाना मांगने के लिए गईं। 

और आज जो हुआ वह मैं कभी नहीं भूल सकती हूँ, मैंने अपने हिस्से का खाना दादी माँ को चुपके से खिला तो दिया परन्तु इतना खाना दादी माँ के पेट भरने को काफी नहीं था, सो वह मुझे पत्तलों के ढेर के पास ले गईं, ताकि कुछ खाकर तृष्णा मिटा सके!

बाद में माँ ने उनको शर्म के मारे भले ही खाना दे दिया और बूढ़ी काकी ने उन सभी बातों को बिसरा दिया, लेकिन मैं ये सब बातें बिल्कुल भूल नहीं पा रही, मेरे बाल मन में यह बातें किसी कील की तरह चुभ रही हैं।

क्या बूढ़े हो जाने पर बड़ों का सम्मान करना बंद कर देते हैं!

क्या हमें ये हक है कि हम अपने बुजुर्गों का इसी तरह अपमान करें? भैया लोग भी बड़े हो रहे हैं, वे सब कुछ देख रहे हैं और सीख रहे हैं , माँ और पिता जी ये क्यों भूल जा रहे हैं कि वे भी एक दिन इसी अवस्था में आने वाले हैं!


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