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Vinita Rahurikar

Romance

5.0  

Vinita Rahurikar

Romance

बूंदों के आईने में

बूंदों के आईने में

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आज भी सुबह से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। चारों ओर फुहारें ही फुहारें। घना कुहासा सा छाया हुआ था। नन्ही दूब से लेकर बड़े-बड़े वृक्षों तक पानी की बूंदों के साथ अठखेलियां करने में मगन थे। नन्हीं गौरैया का झुण्ड पानी के छोटे से गढ्ढे में जी भरकर खेल रहा था मानो पूरे वर्ष भर की गर्मी को आज ही नहाकर मिटा देना चाहता हो। अधखिली कलियों ने अपनी पंखुड़ियों में पानी की बूंदों को यूँ समा रखा था जैसे लम्बे विरह के बाद प्रेमिका अपने प्रेमी को अपनी बाँहों में छुपा लेती है। खिड़की के पास खड़ी अवनी शीशे से बाहर का यह सारा दृश्य देखने में इस कदर खोई हुई थी कि कब अमर कमरे में आया उसे पता ही नहीं चला। 

"चाय पी लो भई, कहाँ खोई हुई हो।" कमरे के ही एक कोने में छोटी सी टेबल और दो कुर्सियां रखी थीं। छुट्टी के दिन शाम को इसी जगह बैठकर चाय पीते थे दोनों। सामने बड़ी सी खिड़की से बाहर का सुंदर नज़ारा दिखाई देता था। 

"अरे आपने क्यों बनाई मैं बस बनाने ही वाली थी चाय।" अवनी, अमर की सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोली।

"आप दरअसल ख्यालों में इस कदर खोई हुई थीं कि मैंने आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा सो खुद ही चाय बना लाया। बाइ द वे अवनी तुम सोच क्या रही थी।" अमर ने गहरी नजर से उसे देखते हुए कहा। 

अवनी झेंप गयी "जी कुछ नहीं, कुछ भी तो नही। बस यूँ ही बाहर बारिश का नज़ारा देख रही थी।" 

अमर ने गौर किया अवनी के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे मानो किसी ने उसे चोरी करते हुए पकड़ लिया हो। 

"एक बात पूछूँ अवनी।"

"हाँ पूछिये।" क्षण भर को अवनी का हाथ काँप गया।

"तुम कभी-कभी इतनी अनमनी सी क्यों हो जाती हो। इस समय तुम्हे देखकर ऐसा लग रहा है जैसे तुम मेरी पत्नी नहीं कोई और हो।" अमर बोला।

"ये आप क्या कह रहे हैं। ऐसी तो कोई बात नहीं है।" अवनी को पता था अमर यही सवाल करेगा।

"फिर तुम क्या सोचती रहती हो हर समय ?" 

"मै, दरअसल मैं, अमर मुझे बारिश का मौसम बहुत अच्छा लगता है। इन पानी की गिरती हुई बूँदों के अमृत को मैं अपने अंतर में भर लेना चाहती हूँ। अपने आपको पूरी तरह से जी लेना चाहती हूँ। बस इतना ही तो है, बारीश की एक-एक बूँद में अपने आपको जीती रहती हूँ।" 

अपनी सोच की पकड़ से बाहर आकर अवनी अब कुछ सहज हो गयी थी। उसके सुंदर सलोने चेहरे पर अब एक स्वाभाविक मुस्कान वापस आ गयी थी। अब वह अमर की अपनी अवनी बन गयी थी। उसे सहज देखकर अमर भी हँस दिया। मगर वह जानता था अवनी हमेशा की तरह इस बार भी उसे ऐसे ही बातों के जाल में उलझा लेगी पर सच बात नहीं बताएगी।

तीन साल हो गए अमर और अवनी की शादी को। अवनी जंतुशास्त्र में स्नातकोत्तर और अमर एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में एक ऊँची पोस्ट पर। जहाँ अवनी गोरी, सुंदर, नारी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थी वहीं अमर ऊँचा कद, गोरा रंग, हल्के से घुंघराले बाल, आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी, जिसे पाकर कोई भी लड़की अपने आपको धन्य समझती। हंसमुख तो इतना कि जहाँ भी जाता लोगों का दिल जीत लेता। अवनी से प्यार भी बहुत करता था। यूँ तो अवनी में भी वे सारे गुण थे जो एक अच्छी पत्नी में होने चाहिए और अमर से वो भी बहुत प्यार करती थी। उसके माता-पिता ने जहाँ उसे ऊँची शिक्षा दी थी वहीं दूसरी ओर उसे गृहकार्य में दक्ष बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अमर को बस एक ही बात परेशान करती थी कि बारिश के दिनों में न जाने अवनी को क्या हो जाता है, हमेशा खोई-खोई सी रहती है। बारिश की टपकती बूँदों में न जाने क्या ढूंढती रहती है। बस जब भी मौका मिलता है खिड़की में खड़ी होकर बरसते मेह को तकती रहती है। 

अमर की छुट्टी के दो दिन बीत गए। आज वह ऑफिस जाने की तैयारी में लगा हुआ था। अवनी बड़ी तेज़ी से काम कर रही थी। कभी उसका नाश्ता टेबल पर लगाती, कभी उसका लंच टिफिन में रखती, कभी उसके कपड़े-मोज़े, रुमाल, पर्स करीने से लगाती। अमर को नाश्ता करवाने के बाद वह उसे छोड़ने के लिए गेट तक गयी।

अमर बाय कहकर ऑफिस चला गया। अवनि अंदर आकर बचे हुए काम समेटकर बाहर गैलरी में जाकर खड़ी हो गयी। दो दिन धूप निकलने के बाद आज सावन फिर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की तैयारी कर रहा था। दोपहर तक हल्की बूंदा बाँदी शुरु हो गयी।

अवनि एक कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गयी और बूँदों के नन्हे-नन्हे आइनों में गुज़रे हुए वक्त की झलकियाँ देखने लगी। ऐसे ही दिन थे वे जब सावन अपनी रिमझिम फुहारों से साल भर की प्यासी धरती को तृप्त कर रहा था और धरती उसके प्यार में भीगकर हरी चुनरी ओढ़े इठला रही थी। आठ-नौ बरस पहले की बात है। उस साल अवनि ने अपनी उम्र का सत्रहवाँ सावन देखा था। हर साल आने वाला सावन न जाने क्यों उस साल कुछ नया-नया सा लग रहा था। कुछ अजीब से अहसास। दिल हर समय किसी चीज़ के लिए बैचेन रहता। क्या, यह समझ नहीं आता लेकिन किसी चाहत का अहसास हमेशा बना रहता। हवा की जरा सी छुवन से भी देह सिहर उठती। मन उस कस्तूरी मृग की भांति हो गया था जो कस्तूरी की गन्ध से मदहोश होकर उसे पाने के लिए उसकी खोज में बौराया सा घूमता रहता है पर ये नहीं जानता कि कस्तूरी उसकी स्वयं की नाभि में है। हवा की खुशबू से किसी को रच लेने वाली उम्र, बहते पानी में किसी की आहट सुन लेने की उम्र, खुली आँखों से सपने देखने की उम्र, और बेवजह ही रोमांचित हो उठने वाली उम्र।

यही उम्र थी जब वह अपनी मौसी के यहाँ उनके गाँव गयी थी। मौसी की लड़की शमिता उसकी हमउम्र थी। दोनों दिन भर गाँव के हरे-भरे खेतों में घूमती, कभी किसी नदी किनारे सैर को निकल जाती तो कभी घर के ही किसी खाली कमरे में हाथ में हाथ डाले दुनिया जहान की बातों में ऐसी खोई रहती कि खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती। दोनों के मन में अपनी उम्र को जानने की, समझने की, उसका अनुभव करने की, उसके रहस्यों को समझने की उत्सुकता थी। 

ऐसे ही एक दिन अवनि सुबह-सुबह दरवाजे पर रँगोली बना रही थी, शमिता अंदर अपनी माँ के काम में हाथ बंटा रही थी कि अचानक कार का हॉर्न सुनकर अवनि की तन्द्रा भंग हो गयी। गेट पर अमर की कार खड़ी थी। अवनि वर्तमान में लौट आयी। उसने जल्दी से उठकर गेट खोला।

"अरे आप इतनी जल्दी आ गए।" 

अवनि ने गेट बन्द किया। बारिश थम चुकी थी। अमर जानता था अवनि फिर अपने ख़यालों में खोई हुई थी मगर उसके जल्दी वापस आ जाने से अवनि के चेहरे पर जो ख़ुशी छा गयी थी उसे देखकर अमर ने उस बात को छेड़ना ठीक नहीं समझा। 

"हाँ तुमने सुबह कहा था न कि जल्दी घर आना, तो मैंने सोचा तुम इंतज़ार कर रही होंगी, सो मैं आ गया।" 

"झूठ, आपके चेहरे की शरारत भरी चमक बता रही है कि आप झूठ बोल रहे हैं।" अवनि ने गौर से अमर को देखते हुए कहा।

अमर हँस पड़ा "हाँ आज की मीटिंग कैंसिल हो गयी इसलिए जल्दी घर आ गया।" 

"मै आपके लिए चाय बनाकर लाती हूँ।" अवनि उठने लगी।

"थोड़ी देर बाद बनाना।" अमर उसका हाथ पकड़कर बोला "जरा देर पास तो बैठो।" 

"कहिये।" अवनि अमर के पास बैठ गयी। दोनों देर तक बातें करते रहे।

दूसरे दिन अमर के ऑफिस जाने के बाद अकेले में अवनि अपनी यादों के बिखरे मोतियों को समेटकर फिर से एक-एक करके उन्हें माला में पिरोने लगी। उस दिन वह रँगोली बनाने में तल्लीन थी कि तभी एक आवाज ने उसे चौंका दिया।

"बुआ है।"

अवनि ने पलटकर

देखा तो एक अजनबी लड़का खड़ा था। उन्नीस-बीस बरस का, ऊँचा कद, गठीला बदन, सुंदर आकर्षक नयन-नक्श, बारिश के बाद निकली खिली-खिली मुलायम धूप में उसका रँग कुंदन की तरह दमक रहा था। होंठो पर एक शरारती मुस्कान खेल रही थी। अवनि पल भर ठिठकी सी उसे देखती ही रह गयी। वो भी अवनि को एकटक देखता रहा। वह मुस्कुरा दिया और उसने दुबारा पूछा-

"जी मैंने पूछा बुआ हैं?" 

"मैं बुलाती हूँ" अवनि अपना दुपट्टा संभालकर अंदर भाग गयी। बीच में ही शमिता मिल गयी। 

"कोई बाहर आया है, पूछ रहा है कि बुआ है क्या।" अवनि ने उसे बताया।

"कौन है" शमिता ने पूछा।

"पता नहीं कोई लड़का है। मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा।" अवनि ने जवाब दिया।

शमिता बाहर देख आयी।

"अरे वो तो गाँव के चौधरी मामा का बेटा है। माँ को बुआ मानता है। सूरजभान नाम है उसका।" शमिता ने बताया।

शमिता सूरजभान को अंदर लिवा लाई। वह बड़ी देर तक बैठा बाते करता रहा।बड़े आग्रह से मौसी ने उसे दोपहर के खाने पर रोक लिया था। अवनि ज्यादा देर रह नहीं पायी थी उसके सामने। पर जब वो जाने लगा तब अवनी ने दरवाजे के पीछे से झाँककर चुपचाप देखा था, सूरजभान की आँखे जैसे दरवाजे के पीछे कुछ ढूंढ रही थीं। जैसे उसका कुछ पीछे रह गया है और अवनि को लगा जैसे उसका कुछ सूरजभान के साथ चला गया है।

फिर तो वह रोज़ ही आने लगा। कभी तीनों मिलकर ताश खेलते, कभी किस्से कहानियाँ कहते-सुनते, कभी खेतों की सैर करते तो कभी पुराने शिवजी के मन्दिर के आँगन में बैठकर ढेर सारी बातें करते। सूरजभान की बातें और बात करने का अंदाज दोनों ही बहुत दिलचस्प था। अवनि और शमिता दोनों ही बड़ी तन्मयता से गाल पर हाथ रखे सुनती रहती। 

सूरजभान बड़ा ही सुंदर था। उसकी ऊँची पूरी देहयष्टि साक्षात् पुरषत्व की प्रतीक थी। कुंदन सा रँग, बड़ी-बड़ी आँखे, उन्नत ललाट। बचपन से लड़कियों के स्कूल में पढ़ी अवनि के लिए किसी लड़के के साथ इतनी आत्मीयता से बातें करने, घूमने-फिरने, ताश खेलने का यह पहला ही मौका था। दिन के साथ-साथ वह अवनि की रातों पर भी हावी होने लगा। अवनि रात भर उसके बारे में ही सोचती रहती। दिल में अजीब सा रोमांच होता। देह में सिरहन और सांसे बेकाबू हो जाती अचानक। सुबह से उसका इंतज़ार करती। अब तो शमिता भी सूरजभान का नाम ले लेकर अवनि को छेड़ती रहती और जुबान से कुछ न कहने वाले सूरजभान की आँखे धीरे-धीरे कुछ कहने लगीं। प्यार की दुनिया जो उसके लिए अज्ञात, अनजान थी, अँधेरे में छुपी हुई थी सूरजभान ने उसमे अपनी रौशनी की किरणें फैलाकर पहले पहल उसे उस दुनिया से परिचित करवाया। पहला पहला प्यार, पहले प्यार का मीठा सा अहसास अवनि को करवाया सूरजभान ने।

अमर सो चुका था। अवनि खिड़की के पास खड़ी शर्वरी के माथे पर लगे निशाकर के टीके को देख रही थी जिसने चारों ओर कोमल धवल प्रकाश फैला रखा था। बीच- बीच में से हठीले बादल का कोई टुकड़ा उसे छूकर गुज़र जाता मगर कोई भी बादल आज की रात निशाकर को ढकने का दुस्साहस न कर सका। शर्वरी का लाडला अपने पूरे आकार के साथ आज मानो सिंहासन पर विराजमान है और बादलों की प्रजा उसे क्षण भर रुककर प्रणाम करती और आगे बढ़ जाती। 

अवनि फिर अपनी यादों की कड़ियों को जोड़ने लगी। उस दिन आसमान साफ था इसलिए तीनों ने बाहर घूमने का प्रोग्राम बनाया था मगर पता नहीं क्यों उस दिन शमिता उनके साथ नहीं जा पायी थी। सूरज और अवनि दोनों ही निकल गए थे घूमने और बातें करते-करते गाँव से बाहर निकल गए। यूँ सूरज के साथ बाहर अवनि उस दिन पहली बार ही गयी थी। एक ओर जहाँ उसे झिझक हो रही थी वहीं दूसरी ओर उसका दिल रोमांचित भी हो रहा था, और शायद सूरज का भी। दोनों ही अपने मन में तो यही चाहते थे कि ये सफर कभी खत्म ही न हो। वो यूँ ही बातें करते रहें और साथ चलते रहें। आसपास ऊँचे पेड़ों का झुरमुट शुरू हो गया। बरसात में नहाये हुए स्वच्छ हरे-हरे पत्तों वाले आम, जामुन, पीपल, बरगद आदि के बड़े-बड़े वृक्ष तो कहीं जमीन पर रेंगती रंगबिरंगे फूलों वाली जंगली लताएँ। दोनों बातोँ में खोए हुए थे कि अचानक बारिश होने लगी। दोनों भागकर एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे खड़े हो गए। मगर बारिश बहुत तेज़ आयी थी। पत्तों के बीच-बीच से रिसती बूँदों ने दोनों को तरबतर कर डाला था।

सूरजभान ने देखा पानी की बूंदे अवनि की लटों पर से फिसलती, क्षण भर को किनारे पर मोतियों की तरह झूलती और टपक जातीं। उसका स्थान दूसरी बूँद ले लेती। उसका सारा शरीर चूम लेने कि मानो बूँदों में होड़ लगी थी। अपनी अवस्था और उस पर सूरजभान का एकटक अपनी ओर देखना, शरम से अवनि के गाल लाल होने लगे। उसके माथे पर पानी की बूंदों के बीच कहीं पसीने की बूंदे भी उमड़ आयी थीं। एक पागल प्रेमी को सधयःस्नात प्रेमिका के भीगे केशों से टपकती पानी की बूँद में भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ख़ुशी कैसे मिल जाती है इसका अनुभव सूरजभान को उस दिन पहली बार हुआ था। धीरे-धीरे सूरजभान, अवनि के निकट आने लगा। अवनि हिचकिचाकर थोड़ी पीछे हटी तो उसकी पीठ बरगद के मजबूत तने से जा टिकी। सूरजभान की आँखों में ढेर सारा प्यार छलक रहा था। किसी की आँखों में अपने लिए इतना सारा प्यार अवनि ने पहली बार देखा था। सूरजभान और निकट आया। अवनि की सांसें तेज़ हो गयीं और आँखे बन्द। ये पलकें भी कैसी होती हैं प्यार के इन अनमोल पलों को आँखों को देखने ही नहीं देती पहले ही मूंदने लगती हैं। इन क्षणों को तो बस दिल ही गहराई से अनुभव कर पाता है। अवनि ने अपने चेहरे पर सूरज की गर्म साँसों को अनुभव किया और अपनी ठोड़ी पर उसकी उँगलियों के स्पर्श को। उसकी साँसों की गरमी और बढ़ी और उसके बाद....... 

देर तक अवनि और सूरजभान प्यार के उस अमृत की एक-एक बून्द का रस पीते रहे। दिल ने चाहा समय वहीं ठहर जाये। जो बात अधर शब्दों में नहीं कह पाये वो बात उन्होंने स्पर्श में कह दी। बस बारिश की बुँदे उनके कुँवारे, अनकहे प्यार की साक्षी थीं और आज तक बस वही बूंदें ही हर साल उनके अनकहे, अधूरे प्यार की यादों को ताज़ा कर जाती हैं। सूरज के होंठों का अमृत अवनि के होठों तक पहुंचा देतीं हैं।

खिड़की से बाहर देखती अवनि ने एक गहरी साँस ली। हर अनुभव जीवन में बस पहली बार ही पहला होता है। वो दूसरी बार कभी भी पहला नहीं हो पाता। अमर के साथ भी नहीं और शायद सूरजभान के साथ भी नहीं। अमर के साथ भी उसके प्यार के बहुत से सुखद पहले-पहले अनुभव थे मगर कुंवारी उम्र के प्यार के उस पहले-पहले अनुभव की दिल पर ऐसी गहरी अमिट छाप है जो कभी नहीं मिट सकती या फीकी पड़ सकती। कभी कभी एक लम्हा ही एक उम्र पर हावी हो जाता है।

उसके बाद ना तो कभी अवनि मौसी के गाँव जा सकी और न ही सूरजभान से ही मिल सकी मगर हर साल आने वाला सावन अपनी रिमझिम फुहारों से उस पहले प्यार के अनुभव की यादों को हरा भरा कर देता है। 

अवनि ने आसमान की तरफ देखा, आसमान साफ था। उसने अमर की ओर देखा, छिटकी हुई चांदनी में उसका शांत, सौम्य चेहरा बड़ा ही भला लग रहा था। अवनि ने अपनी यादों को बड़े जतन से सहेजकर दिल के एक कोने में बन्द किया और वर्तमान में लौट आयी अपने अमर के पास। खिड़की का परदा उसने खुला ही छोड़ दिया ताकि चांदनी उनके जीवन को यूँ ही रौशन करती रहे। अवनि, अमर के सीने पर सर रखकर सो गयी। पलटकर अमर ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया। 

बाहर पूर्णिमां का चाँद हँस रहा था।


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