Vinita Rahurikar

Inspirational

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Vinita Rahurikar

Inspirational

मदर प्लांट

मदर प्लांट

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“बेटा वृक्ष मित्र अंकल को फोन कर दिया न?” शाश्वती ने विद्या से पूछा।

“हाँ माँ कर दिया। अंकल ने कहा है वो ग्यारह बजे तक आयेंगे” विद्या ने जवाब दिया।

“ठीक है अणिमा दी से कहना नाश्ता-खाना जल्दी बना ले निशि की शादी की कुछ तैयारियां करनी हैं बाजार जायेंगे।” शाश्वती ने कहा। 

“ठीक है माँ अभी कह देती हूँ।” विद्या अंदर चली गयी। 

शाश्वती आंगन के पिछले हिस्से में लगे बरगद के एक पेड़ के पास कच्ची इंटों पर पत्थर की सिल्ली रखकर बनाई हुई बैंच पर बैठ गयी। बड़े से आंगन में जगह-जगह पत्थर और ईंटो की बैंचे बनवा रखी थी उसने। सुबह और शाम थोड़ी-थोड़ी देर हर कोने के पेड़-पौधों के बीच कुछ देर तो जरुर ही बैठती हैं वो।

आज भी वो उठकर हाथ-मुंह धोकर इस बरगद के पास आ गयी थीं। बरगद का यह पेड़ शाश्वती के पिता ने लगाया था। करीब पचास वर्ष पूर्व। एक नन्ही कोपल मिली थी उन्हें बरगद की जिसे उन्होंने बड़े जतन से एक गमले में लगा दिया था की थोडा बड़ा और मजबूत हो जाए तो फिर उसे जमीन में रोप देंगे। तभी उनका ट्रांसफर बड़े शहर में हो गया और गमले में लगा बरगद भी उनके साथ आ गया। प्रकृति प्रेमी पिता को उस बरगद से न जाने ऐसा क्या लगाव हो गया था की वे उसे अपने से दूर एक अनजानी जमीन पर रोपने की हिम्मत ही नहीं कर पाए। और घर का आंगन इतना बड़ा नहीं था की बरगद जमीन में फलफूल सके। बस उन्होंने एक बहुत बड़े गमले में उसे लगा दिया। 

अब हर साल बरसात के महीने में शाश्वती बरगद की कटिंग करवाती है और अलग-अलग गमलों में उसकी सन्तति तैयार करती है। नई कोपलें फूटती हैं, नये जीवन का प्रस्फुटन होता है। कुछ दिन बरगद अपनी सन्तति के साथ खिलखिला लेता है, जी लेता है फिर वह उन नये पौधों को वृक्षारोपण करने वालों को दे देती हैं। वे उन पौधों को खुले स्थानों में या शहर के बाहरी हिस्सों में रोप देते हैं। इस बरगद की सन्ततियां तो न जाने कहाँ-कहाँ फलफूल रही हैं। कितने वन-उपवनो की हरियाली बढ़ा रही हैं, धुप से त्रस्त पथिकों को छाया दे रहीं हैं। प्राणवायु का उत्पादन कर प्रकृति का ऋण चूका रही हैं। 

उन सभी सन्ततियों की माँ यह बरगद, यह तो मदर प्लांट है। यह तो यहीं रह जाता है। शाश्वती का जी भर आया। अपने पास से अपनी संततियों के चले जाने से इस मदर प्लांट को भी तो दुःख होता होगा, वह भी तो अनायास अकेला पड जाने से आहत हो जाता होगा। पोधे व्यक्त नहीं कर पाते तो क्या हुआ, भावनाएं तो उनमे भी होती ही होंगी। जैसे शाश्वती का मन छटपटाता रह जाता है अपनी सन्ततियों से अलग होते हुए। बरगद की तरह उसकी भी सन्ततियां दूर-दूर तक फैली हुई हैं, देश-विदेश में फल-फूल रही हैं। और शाश्वती----

वह भी तो एक मदर प्लांट है। सन्तति को सहेजती है, पालती-पोसती है और फिर उन्हें दूर जमीन पर रोप देती है ताकि वे खुली जमीन पर अपने हिसाब से जड़ें जमा कर पनप सकें। हर बार किसी के जाते ही उनके मन का खालीपन गहरा जाता है लेकिन क्या करें, अपने हिस्से की जमीन पर तो सबका अधिकार होता है, और वो उन्हें मिलना ही चाहिए। उन्होंने मदर प्लांट की पत्तियों को हौले से छुआ मानो उसका दर्द बांटना चाहती हों या अपनी विकल मनस्थिति में उससे सांत्वना चाहती हों।

“माँ नाश्ता तैयार है, अणिमा दीदी बुला रही हैं अंदर।” विद्या ने आकर कहा तो वे अपनी भावनाओं की नदी से बाहर निकली। मदर प्लांट जैसे-तैसे अपनी शाखाओं को पुनः उगा लेता है, थोडा हर-भरा हो लेता है कि तभी दुबारा कटिंग का समय आ जाता है और वह पुनः क्षत -विक्षत हो ठूंठ सा खड़ा रह जाता है। नई शाखाओं के उगने की प्रतीक्षा में।

जैसे बच्चों के चले जाने के बाद शाश्वती भी राह तकती रहती है कि कब नये बच्चे आकर उसका खालीपन भर दें। वह अंदर आ गयी। अणिमा ने नाश्ता टेबल पर रख दिया। विद्या, निशि, नूतन सबके साथ उन्होंने नाश्ता किया और सुबह के कामों में व्यस्त हो गयी। निशि की शादी की ढेर सारी तैयारियां थीं। काम थे कि सुरसा के मुंह की तरह फैलते ही जा रहे थे। पहले भी उन्होंने कई बेटियों की शादियाँ की हैं, ऐसा भी नहीं की उन्हें बेटी के विवाह काकोई अनुभव न हो लेकिन फिर भी हर विवाह में नहे नई-नई परेशानियों से जूझना पड़ता है, जैसे ससुराल वाले, वैसी उनके यहा की रस्में, और जैसी रस्में वैसी तैयारियां। हर बार कुछ नयी।

ठीक समय पर वृक्ष मित्र अपनी गाड़ी लेकर आ गये। उनका असली नाम तो सतीश दुबे था लेकिन पिछले पच्चीस वर्षों से वो लगातार पेड़ों को कटने से बचाते आ रहे हैं और शहर की बंजर, वृक्षविहीन जमीन पर पेड़ लगाकर उसे हराभरा बनाते जा रहे हैं। अब तक हजारों पेड़ लगा चुके है। इसलिए लोग आदर-प्यार से उन्हें वृक्षमित्र कहते हैं। शाश्वती भी बरगद के अलावा अपने यहाँ अनायास उग आने वाले पीपल, नीम, आम, जामुन आदि के पौधे उन्हें सौंप देती है। चिलचिलाती धुप में पसीना बहाकर भी यह आदमी लोगों के लिए ठंडी छाँव का इंतजाम करता फिरता है। 

अगला पूरा महिना शाश्वती निशि की शादी में व्यस्त रही। जब शादी सुख समाधान से सम्पन्न हो गयी और निशि ख़ुशी-ख़ुशी अपनी ससुराल रवाना हो गयी तब उन्होंने चैन की साँस ली लेकिन अभी तो विद्या, भावना, आराधना। उनके बहत्तर वर्ष के कमजोर कंधों पर जिम्मेदारियों का एक बड़ा भारी बोझ है। पच्चीस वर्ष हो गये हैं उनको अब तक न जाने कितनी लडकियों के घर बसा चकी हैं और कितने ही लडकों को पढालिखा कर योग्य बना चुकी हैं। सही अर्थों में मदर प्लांट, जो अपने रस से नई कोपल को सींचता है, पोसता है, उसे नितांत नयी जमीन पर अपनी जड़े जमाकर उगने, फूलने-फलने लायक बनाता है और फिर उसे नए जीवन का आशीर्वाद देकर चुपचाप विदा कर देता है। और खुद ठूंठ रहकर वहीँ अपने गमले में लगा रह जाता है। 

उसी तरह वो भी तो इस घर रूपी गमले में रोपी गयीं तो इसी मिटटी में गडी रह गयीं। चौव्वन वर्ष पूर्व मात्र अठारह बरस की उम्र में पिताजी ने एक पारिवारिक मित्र के बताये परिवार में शाश्वती का विवाह पक्का कर दिया। तब न तो लडके-लडकी को आपस में देखने-दिखाने का विशेष चलन था न एकांत में बातचीत का। बड़ों ने जो तय कर दिया वही चुपचाप मान लिया। पारिवारिक मित्र की बात पर भरोसा करके उसके पिताजी ने ज्यादा खोजबीन, पूछताछ भी नहीं की और उसका विवाह कर दिया। रस्मो आदि के नाम पर कई दिन तो उसे अपने पति से मिलने ही नहीं दिया गया। अठारह बरस की शाश्वती भला अपने मुंह से कैसे और किससे कहती कि उसे अपने पति से मिलना है। बात तो धीरे-धीरे स्पष्ट हुई की उसका पति मंद बुद्धि है और कई बीमारियों से ग्रस्त है। उसे तो एक परिचारिका बनाकर लाया गया था जो मुफ्त में रात-दिन उनके बेटे की तीमारदारी करती रहे। 

दो-चार वर्षों में ही सास-ससुर, जेठ-देवरों ने उससे किनारा कर लिया। लाचार शाश्वति को पिता उसके बीमार पति सहित अपने घर ले आये। तबसे पचास साल हो गये शाश्वती एक गमले में रोप गये पौधे की तरह उतने ही सिमित दायरे में कैद होकर रह गयी है। पिताजी ने इलाज में और शाश्वती ने सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूरे उनतीस बरस उसने घर, पति की देखभाल की, अपनी पढाई पूरी की, कोलेज में लेक्चरार हो गयीं। लेकिन पति के साथ और सहयोग के नाम पर उनके हिस्से एक छह फुटे बीमार शीश की देखभाल ही आई। गृहस्थी के मायने उनके लिए बस सेवा तक ही सिमित रहे। और उन्तीस बरस बाद जब उस सेवा कर्म से नहे छुटकारा मिला तब-तक जीवन के कडवे अनुभवों से त्रस्त मन सभी सुकोमल, रसमयी सपनों और इच्छाओं के हरे-भरे पात गिराकर शुष्क, कठोर रुखा सा ठूंठ भर रह गया था। 

शाश्वती के सेवा भाव और निश्चल प्रेम, समर्पण से द्रवित होकर कई बार उनके पति उनसे कहते भी थे कि मुझे किसी सरकारी अस्पताल या संस्था में भर्ती कर दो और तुम अपना जीवन किसी पढेलिखे योग्य व्यक्ति के साथ शुरू कर लो। तब उस भोले, निश्चल व्यक्ति की बात सुनकर उसका मन भर आता। एक जीवनसाथी के रूप में साथ न सही, एक पुरुष और पति के रूप में आर्थिक सामाजिक, भावनात्मक सुरक्षा, सम्बल न सही लेकिन एक लाचार इंसान के रूप में उस व्यक्ति से एक सहज मानवीय स्नेह तो हो ही गया था शाश्वती को। उसी स्नेह के आधार पर उन्होंने उसके अंतिम क्षण तक जितना बन पड़ा भरपूर सेवा-सुश्रुसा कर ली उसकी। दरवाजा खोलकर विद्या धीरे से कमरे में आई और पलंग के पायताने बैठकर चुपचाप उनके पैर दबाने लगी। 

‘अरी रहने दे बहुत रात हो गयी है। जा जाकर सो जा।” उन्होंने प्यार से उसका हाथ थपथपाकर कहा।

“कितने दिन हो गये आपको भागदौड और मेहनत करते। थोड़ी देर दबाने दो न पैर। आराम मिलेगा जरा।” विद्या ने पैर दबाते हुए ही कहा। “मैं यहीं सो जाउंगी आज आपके पास।”

“ठीक है सो जा।” शाश्वती ने हँसते हुए कहा। 

डेढ़ साल में ही पति और पिता दोनों ही एक के बाद एक सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो गये। पीछे रह गयी निःसन्तान, अकेली शाश्वती। सैंतालिस वर्ष की अधपकी उम्र में। जिसे अभी आगे काफी लम्बा रास्ता पार करना था। अकेला घर काटने को दौड़ता। वर्षों से तन, मन, विचार, दिनचर्या सब एक व्यक्ति के इर्दगिर्द कास कर लपेटी हुई थी कि वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व तक भूल गयीं थीं। चौबीसों घंटे का खयाल अचानक ही मस्तिष्क से निकल गया और वे एकदम खाली सी रह गयीं। कोलेज से आकर जीवन निरुद्देश्य सा, व्यर्थ लगता। इहलीला तक समाप्त करने का मन करता। आखिर आगे-पीछे था ही कौन। लेकिन वे इतनी कायर नहीं थी। जब जीवन के कठिनतम कठोर निर्णय को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार करके निभाया तो फिर ये अकेलापन क्यों न कटेगा।

और वे एक दूरस्थ गरीब रिश्तेदार की दो बेटियों को अपने पास ले आयीं। अपने ही कोलेज में उनका एडमिशन करवाया। दो लडकियों को पढने का अवसर मिला, एक जीवन को अच्छी दिशा में गढने का सौभाग्य मिला तथा जीवन में साथ और एक पावन उद्देश्य। फिर क्या था दूरदराज के कई रिश्तेदारों की, जान-पहचान वालों की बेटियां उनके पास पढने के लिए आने लगीं। पढ़ी हो या अन्य किसी कार्य में रूचि हो उन्होंने हर तरह से लडकियों की मदद की। देखते ही देखते उनका घर ढेर सारी सन्ततियों से भर गया। लडकियाँ आती, पढ़ती और चली जातीं। कुछ गरीब, अनाथ होती तो वे उनकी शादी भी करवा देती। लडकों को भी वे पढवालेकिन उन्हें होस्टल में रखती। अपने घर को उन्होंने कभी संस्था नहीं बनने दिया ताकि बच्चों को एक घर का अहसास हमेशा मिलता रहे। आठ बरस पहले विधवा अणिमा अपनी बेटी के साथ उनके पास आई थी। उसकी बेटी उर्मिला का विवाह हो गया और अणिमा यहीं रह गयी। शाश्वती को भी बढती उम्र में साथ मिल गया। अणिमा बहुत कुछ सम्भाल लेती है। उनकी पेंशन, और कुछ लडके-लडकियाँ नौकरी करके मदद कर ही जाते हैं तभी उनका इतना बड़ा परिवार आराम से चल रहा है। बारह लडकियों और सात बेटों की शादियाँ कर चुकी हैं वो अब तक। कई तो पढ़ लिखकर विदेशों तक पहुंच गये हैं। डॉक्टर, इंजिनीअर, व्यवसाई किस क्षेत्र में नहीं हैं उनके बच्चे। और अब तो ढेर सारे नाती-पोते भी हैं। 

रात गहरा चुकी थी। विद्या उनके पैर दबाते-दबाते पता नहीं कब सो गयी थी। शाश्वती धीरे से उठकर खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गयी। उनकी खिड़की के ही ठीक सामने बरगद के पेड़ का गमला था जो अपनी संततियों के गमले चले जाने से अकेला, उदास खड़ा था। शाश्वती की आँखें भर आयीं। कुछ लोगों के जीवन का उद्देश्य व्यक्तिगत सुखों से बहुत उपर होता है। ईश्वर उन्हें खास तौर पर चुनता है विशिष्ट काम के लिए। यह बरगद अगर जमीन में होता तो शायद इतने सारे लोगों को इतनी जगहों पर छाया नहीं दे पाता। और अगर शाश्वती का भी अपना परिवार और बच्चे होते तो उनका व्यक्तित्व भी एक दायरे में सिमटकर रह जाता, इतना विस्तृत नहीं हो पाता। बरगद के मदर प्लांट पर नई कोपलें आने लगी थीं। वह धीरे से मुस्कुरा दी। कानपुर वाले भांजे का फोन था। उसकी ससुराल की एक लडकी पढने में बहुत तेज है लेकिन दो साल हुए पिता नहीं रहे। घर की आर्थिक स्थिति लडकी को आगे पढाने के लायक नहीं है।

शाश्वती के जीवन में भी फिर एक नयी कोंपल आने वाली थी। मदर प्लांट होने का सौभाग्य भी बिरलों को ही मिलता है।


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