केसरिया रंग रँगा रे मन
केसरिया रंग रँगा रे मन
ढलती शाम के आसमान में छाया केसरिया रंग मुझे बेहद प्रिय है। किस उम्र में मन उस केसरिया रंग में रंगना शुरू हुआ वह तो याद नहीं लेकिन जिस उम्र में मन स्मृतियों को संजोने लगा तभी से मैंने हर ढलती सांझ में खुद को छत पर खड़े होकर आसमान को निहारते पाया। जाने क्या कशिश है इस संधि काल में कि मैं कहीं भी होती, कुछ भी काम कर रही होती, पैर अपने आप सीढ़ियां चढ़कर मुझे छत पर ले आते और मैं उस जादूगर की करिश्माई चित्रकारी में अचंभित मोहित सी घंटों उस रंग में डूबी छत पर खड़ी रहती जब तक कि वह केसरिया रंग गहरा लाल, फिर नीला, फिर बैंगनी होते हुए रात के काले आंचल में ना समा जाता।
उस दिन भी मैं छत पर खड़ी साँझ के आसमान को पल-पल रंग बदलते देख रही थी। सामने सड़क के उस पार लगे अमलतास और कचनार के घने पेड़ों पर पंछी कलरव कर रहे थे। नीलगिरी पर बने घोसलों में पंछियों की आवाजाही चल रही थी। गुलमोहर की शाखाओं में पंछियों का झुंड आ बैठता और एक साथ उड़ जाता। आसमान में भी झुंड के झुंड पंछी उड़ कर अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। मैं मुग्ध सी इस दृश्य में खोई हुई थी कि अचानक ऐसा लगा कि मैं छत पर अकेली नहीं हूं कोई और भी है जो इस साँझ के जादू में खोया हुआ है। मैंने चौक कर इधर-उधर देखा, पड़ोस वाली छत पर कोने में मुंडेर पर हाथ रखे 20-22 साल का एक लड़का खड़ा था। पड़ोस में एक वृद्ध चाचा-चाची रहते थे जिनके दोनों बेटे बाहर थे। यह शायद कोई मेहमान आया होगा। मैंने सरसरी निगाह से उसे देखा, ऊंचा-पूरा, साफ रँग, करीने से संवरे बाल। आसमान में उड़ते पंछियों को देखती उसकी नजर अचानक मुझसे टकरा गई और मुझे अपनी और देखता पाकर वह मुस्कुरा दिया और मैं झेंप कर फिर आकाश को देखने लगी। लेकिन बरबस रोकने पर भी नजर उसकी तरफ उठ जाती और उसे भी अपनी तरफ देखते पाकर दिल धड़क जाता। घिरती रात में जब मैं नीचे जाने लगी तब मन आसमान के केसरिया रंग के साथ ही उसके चेहरे पर छिटके गुलाल में भीग चुका था। उस रोज अनायास ही कमरे में कदम रखते ही पांव आईने के सामने ठिठक गए और रात भर पूर्णिमा के चांद की चांदनी केसरिया रँग में लिपटी रही।
दूसरे दिन शाम बड़ी देर बाद आई और दोपहर बड़ी लंबी लगी। थोड़ा जल्दी ही छत पर पहुंच गई। आंखें सीधे सामने वाली छत पर टिक गई वह भी वही खड़ा इधर ही देख रहा था। मेरे पैर क्षण भर को कांप गए, धड़कने अनियंत्रित हो गई। मैंने दृष्टि सामने वाले पेड़ों पर गढ़ा दी लेकिन मन उसकी ओर ही लगा रहा और तन उसकी नजरों को अपने पर टिकी महसूस कर रोमांचित होता रहा। मैं जानने को व्याकुल हो रही थी कि वह कौन है।
दूसरे ही दिन मां से पता चला वह चाची के भाई का बेटा है और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए यहां आया है। उस दिन रसोईघर का बल्ब फ्यूज हो गया तो मां ने ख
िड़की से आवाज देकर उसे ही बुलाया। शेखर, हां यही नाम था उसका और उस दिन वह छत से सीधे मेरे घर ही नहीं चुपके से मेरे दिल में भी भीतर चला आया। मैं टेबल पर बैठी पढ़ने का ढोंग किए किताब पर आंखें गड़ाए बैठी थी लेकिन ध्यान सारा उस पर ही था। बल्ब बदलने के बाद वह कमरे के दरवाजे पर क्षण भर को ठिठक गया "क्या पढ़ती हो, किस ईयर में हो?"
मेरे हाथ पैर ठंडे पड़ गए, दिल इतनी तेजी से धड़कने लगा कि मुंह से बोल ही नहीं निकल पाए। मां ने ही जवाब दिया "फर्स्ट ईयर में है तुम भी तो साइंस पढ़े हो, इसे केमिस्ट्री पढ़ा दिया करना अगर समय हो एक घंटा।"
मेरे मन की तो बिना मांगे मुराद पूरी हो गई और दूसरे ही दिन से वह रोज शाम को मुझे पढ़ाने आने लगा। दिन भर अपनी पढ़ाई करता, शाम के सिंदूरी एहसास को हम दोनों साथ में जीते और धुंधलका छाते ही नीचे आकर पढ़ाई में लग जाते। कभी जिद करके माँ उसे खाना खिला कर ही मानती। यूं भी जब दोनों घरों के बीच पारिवारिक आत्मीयता थी तो वह घर के सदस्य जैसे ही था। वह पढ़ाता तो मुझे आधा समझ आता आधा ध्यान उसमें रहता। कितना सौम्य, शांत, सुंदर था वह। आवाज विनम्र होकर भी गहरी थी। आंखें नीचे झुकी रहती मेरी लेकिन उनके भाव कैसे कहां छुपाती। समझ तो शेखर को भी सब आ रहा होगा लेकिन उसने कभी मर्यादा की सीमा का उल्लंघन नहीं किया।
अठारहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके मेरे मन के कुंवारे अनछुए भाव शेखर की आंखों में तैरते सिंदूरी डोरों से बंध गए थे। मन अजब सी रूमानियत की खुमारी में भीगा रहता। एकांत में मन करता कि उसके चौड़े सीने में अपना चेहरा छुपा लूं और वह मेरे बाल सहलाता रहे। लेकिन आंखों से सब कुछ स्पष्ट कर देने के बाद भी शेखर की जुबान हमेशा खामोश रही और व्यवहार सदा मर्यादित। चार महीने कब गुजर गए पता नहीं चला। प्रतियोगी परीक्षा खत्म होने के दो ही दिन बाद उदास आंखों में तैरती नमी के बीच मुझे नजर भर देख कर वह चला गया। फिर कभी नहीं लौटा। बहुत दिनों बाद पता चला उनकी शादी उनके पिता ने बचपन में ही अपने दोस्त की बेटी से पक्की कर दी थी। छत पर नितांत एकांत पलों में भी वह क्यों स्वयं पर इतना कठोर संयम रखते थे तब समझ आया। मेरा कोमल मन टूट गया। अक्सर छत पर उनका मुस्कुराता चेहरा और बोलती आंखें याद कर रो देती। कैसे कहूं कि उन्हें भी मुझसे प्यार नहीं था। लेकिन पिता के वचन के विरुद्ध जाने के संस्कार नहीं थे उसके।
बरसों बीत गए लेकिन आज भी मेरा पहला प्यार छत पर उसी कोने में मुस्कुराता खड़ा महसूस होता है। ढलती सांझ के आसमान के साथ ही मन का भी एक कोना शेखर के प्यार के केसरिया रंग में रंगा हुआ है। नीड़ों को लौटते पंछियों को देखकर एक कसक सी उठती है मन में काश इन पंछियों की तरह मेरा शेखर भी कभी लौट पाता।