Vinita Rahurikar

Romance

4.2  

Vinita Rahurikar

Romance

एक कतरा इश्क...

एक कतरा इश्क...

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989


हाथों से काम निपटाते हुए भी वाणी का पूरा ध्यान तनवीर पर लगा रहता। तन काम में जुटा रहता और मन तनवीर के आसपास मंडराता रहता। हाथ सब्जी काटते, खाना बनाते, कपड़ों की तह करते और आँखें तनवीर के चारों तरफ घूमती रहती।

तनवीर भी वाणी की आँखों का पीछा किया जाना देख रहा था कई दिनों से इसलिए वह उसकी आँखों के सामने आने से बचता रहता। ऑफ़िस का समय तो आराम से कट जाता लेकिन जब तक घर पर रहता तब तक साँस जैसे अटकी रहती। और रात...

रात तनवीर पर सजा की तरह बीतती। कभी वह बहुत पहले ही पलंग पर जाकर पड़ जाता जैसे गहरी नींद में हो और कभी बाहर सोफे पर बैठकर टीवी देखने में समय बिताता जब तक वाणी गहरी नींद में न पहुँच जाए। और वाणी के सोने के बाद वह पलंग के आखिरी कोने में एक करवट पर पड़ा रहता। कभी रात में वाणी उसकी कमर में हाथ डालकर, पैर पर पैर रखकर उससे सट जाती तो तनवीर को लगता जैसे छाती पर भारी पत्थर रखा है और उसकी साँस घुटने लगती। वह न तो वाणी के हाथ-पैर हटा पाता और न ही सह पाता, अजीब कसमसाहट में रात गुज़रती।

जागते हुए पड़े रहने पर भी वह करवट बदलने से कतराता रहता, कहीं वाणी उसे जगा देखकर मांग न बैठे। अपनी पीठ की तरफ वाणी की बैचेनी से उठती गिरती साँसों और बार-बार बदलती करवटों की आहट सुनता रहता।

दिन भर वह वाणी से मुक्त मन से हँसने बोलने और रात में एक अच्छा पति बनने के लिए अपने आपको मनाता रहता लेकिन रात होते ही सारी हिम्मत चूक जाती, एक अव्यक्त उदासी, एक विरक्ति, एक चिंनचिनाहट सी शरीर में फ़ैल जाती।

तन में मन में एक बेकली तो उठती लेकिन पता नहीं किसके लिए। अब तक तनवीर को बस इतना ही समझ आया था कि यह बेकली उस रिश्ते के लिए नहीं है जो घरवालों ने उसके साथ बाँध दिया है।

और वह गैलरी में खड़ा होकर या छत पर घूमते हुए चाँद से पूछता रहता "कहाँ है मेरा प्यार? मैं किसकी याद में इतना बैचेन रहता हूँ।" बरसों वह चाँद से पूछता रहा और उसकी चांदनी में अपना बदन जलता हुआ महसूस करता रहा। माथे पर लिखी घर में आने के बाद भी मन किसकी तलाश में हर रात निकल पड़ता है, और हर सुबह थका हारा लौट आता है, खाली हाथ।

और उसे लगता वह उम्र भर तलाश में भटकता रहेगा और उम्र भर खाली ही रह जायेगा।

फिर एक दिन एक आवाज़ कानों में खनक गयी....

बहुत दिनों तक उकताहट में ऊब चुके तनवीर को बचपन की बातों को याद करते हुए लँगोटिया यार बल्ली की याद आ गयी और न जाने क्यों तनवीर के दिल में एक अजीब से सुकून की ठंडी छाया सी उतरने लगी। बल्ली उसका बहुत ही प्यारा दोस्त था। तनवीर ने उन दिनों की जान पहचान वाले लोगों के नाम याद किये। फोन पर फोन घुमाते हुए वह पुराने यार दोस्तों के बीच बल्ली की तलाश करने लगा। और एक दिन वह बल्ली के फोन नम्बर तक पहुँच गया।

उसने बल्ली को फोन लगाया। और एक आवाज़ कानों में खनक गयी।

"हेल्लो"

बल्ली के मर्दाने स्वर की जगह पर एक जनाने स्वर को सुनकर वह अचकचा गया।

"जी यह बल्ली, मेरा मतलब है बलविंदर का नम्बर है जी ?"

"हाँ जी"

"जी बलविंदर से बात हो जायेगी क्या?"

"जी वो तो नहाने गए हैं। आप कौन?" उधर से जवाब के साथ ही सवाल आया।

"जी मैं उसका बचपन का दोस्त तनवीर हूँ।" तनवीर ने जवाब दिया।

"वो आते हैं तो मैं बात कराती हूँ।" उधर के कोमल स्वर ने कोमलता से कहा और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

बस कुल इतनी ही बात हुई पर तनवीर के कानों में घण्टियाँ सी बजती रहीं। दिल उस आवाज़ को याद करके धड़कता रहा। पता नहीं क्यों। पूछा भी नहीं उसने की वो बल्ली की क्या लगती थी।

और उसे खुद ही अपनी सोच पर कोफ़्त हो आयी। बल्ली उसका हमउम्र है। उसके घर पर रहने वाली औरत उसकी बीवी ही होगी।

दस पन्द्रह मिनट बाद ही बल्ली का फोन आया। वही बचपन के जोश के साथ ही बल्ली ने दुनिया जहान की बातें शुरू कर दी। उससे बातें करते हुए लेकिन तनवीर के कान किसी और ही आवाज़ को ढूंढ रहे थे। आखिर उससे नहीं रहा गया पूछ ही बैठा कि अभी किसने फोन उठाया था।

"ओय तेरी भाभी थी। और तेरी शादी हुई कि नहीं?" बल्ली ने सवाल किया।

"हाँ हो गयी।" जवाब देते हुए तनवीर को ऐसा लगा जैसे वह अपने किसी गुनाह को कबूल कर रहा हो।

फिर तो बल्ली के घर गाहे बगाहे फोन लगता रहता और बल्ली की बातों के पीछे कोई और आवाज़ सुनने के लिए तनवीर के कान तरसते रहते।

कभी-कभी बल्ली हँसकर पूछता भी "क्या बात है रे आजकल मेरी बहुत याद आने लगी गयी तुझे"

तनवीर झेंप जाता, कैसे बताता कि बल्ली तेरी नहीं किसी और की आवाज़ कानों में पड़ने के लालच में बार-बार अपने आप तेरा फोन लग जाता है।

तनवीर अब रात दिन एक आवाज़ के खयाल में ही डूबा रहता। आवाज़ को ही हर समय एक आकार देने की कोशिश में लगा रहता।

महीनों गुज़र गए। तनवीर एक आवाज़ की मूरत बनाकर उसके साथ में ही अपने आपको बहलाये रखता।

फिर एक ठहरी हुई सी दोपहर में तनवीर खाना खाकर खिड़की के पास खड़ा सड़क की चहल-पहल को देख रहा था कि मोबाईल की घण्टी बजी।

"हेल्लो.... हेल्लो...." 

उधर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। पर वो ख़ामोशी जैसे तनवीर के दिल पर दस्तक देती हुई कुछ कह रही थी। ठहरी हुई दोपहरी जैसे ही उसके दिल की धड़कने भी ठहर गयीं।

"कौन?" सवाल जैसे तनवीर की आवाज़ ने नहीं वरन उसकी धड़कनों ने किया और उधर से भी जैसे किसी आवाज़ ने नहीं एक दिल की धड़कनों ने जवाब दिया-

"म... मैं वीरा।"

"वीरा.....। ये नम्बर......?" तनवीर के कानों में जैसे बाँसुरी सी बज उठी।

"मेरा है जी। आज सुबह ही उन्होंने दिलवाया है।"

और तनवीर को लगा अगर अभी बल्ली उसके सामने होता तो वह उसे गले लगाकर उसके हाथ चूम लेता।

दिलों में पता नहीं कब से क्या-क्या उमड़-घुमड़ रहा था लेकिन जुबानें कुछ बोल नहीं पा रही थीं। लेकिन दोनों के दिल समझ रहे थे। और तभी भरी दोपहरी में भी जैसे ख़ुशी की, सुकून की एक ठंडी छाँव उनके शरीरों पर ओढ़ा दी थी किसी ने।

फिर सिलसिला चल निकला। न जाने कौन सा बन्धन था उससे कि सैकड़ों मीलों की दूरी पर बसे बिलकुल अनजान दो लोग आवाज़ों के कानों में पड़ते ही एक दूसरे की ओर खिंचे चले गए। वह जैसे जन्मों की कोई अपनी लगती।

घण्टों दोनों बातें करते। दिलों की, रिश्तों की, दुनिया की।

फिर भी लगता कितना कुछ अनकहा रह गया है। रोज़ रात छटपटाती हुई बीतती कि कब सुबह हो और उस अनकहे को कह कर हलका हो जाये लेकिन वो रात आने तक भी अनकहा ही रह जाता और फिर रात उसके बोझ तले करवटें बदलती रह जाती।

एक कोई ऐसा होता है, जिससे बातें ही खत्म होने का नाम नहीं लेतीं।

और एक कोई ऐसा होता है जिसके सामने आते ही भाषा भी गूंगी वो जाती है।

वीरा, तनवीर को लगता वो चिट्ठी है जो ईश्वर ने लिखी तो तनवीर के नाम थी लेकिन पता नहीं किन अनाड़ी हाथों को पता लिखने को सौंप दी कि उसने तनवीर की जगह बल्ली के घर का पता लिख दिया।

और वाणी।

वाणी वह चिट्ठी थी जो पता नहीं किस के नाम लिखी गयी थी पर ग़लती से उसके घर आ गयी थी। उसे घर में रखा तो जा सकता है पर पढ़ा नहीं जा सकता। अपनी चिट्ठी पढ़ने की आत्मीयता भरी जो ख़ुशी होती है वह वाणी के साथ नहीं है। यह तो ग़लती से किसी ने तनवीर का पता लिख दिया तो किस्मत के डाकिये ने उसके घर डाल दी।

वीरा और तनवीर कभी अफ़सोस करते कि ईश्वर ने उन्हें एक दूसरे के लिए लिखा था तो पता लिखने में ग़लती क्यों कर दी।

कभी अपने आपको तसल्ली देते कि ईश्वर को अपनी ग़लती का अहसास हो गया है तभी उसने उन्हें मिलाकर अपनी भूल सुधार कर ली।

दोनों अफ़सोस और तसल्ली के अहसास में डूबते-उतराते एक दूसरे की आवाज़ों को थामे हुए आगे बढ़ते रहे।

और फिर दोनों को ही पूरी शिद्दत से महसूस होने लगा कि अब सिर्फ आवाज़ सुनने और बात करने से ही मन को बहलाकर नहीं रखा जा सकता। दिल अब आमने-सामने मिल बैठने को करने लगा है।

तनवीर ने बल्ली से कहा कि वह उससे मिलने आना चाहता है। बल्ली सुनते ही चहक उठा-

"अरे वाह मेरे यार ! नेकी और पूछ-पूछ। बस कपड़े भर और निकल आ।"

बस तनवीर ने बैग में कपड़े संभाले और निकल गया।

मन सारे रास्ते बहुत ऊपर-नीचे होता रहा। न जाने क्या-क्या सोचता रहा। पर सारी सोचों पर वीरा से मिलने की ख़ुशी भारी पड़ रही थी। तड़के ही वह बल्ली के घर के दरवाज़े पर खड़ा था। कितनी ही देर खड़ा रहा। दिल की हालत अजीब हो रही थी। हाथ बड़ी मुश्किल से कुण्डी बजाने के लिए उठा।

बल्ली ने देखते ही कसकर गले लगा लिया। बल्ली के चेहरे पर दीवाली के दिए जल रहे थे।

"यार गाँव तो बहुत बदल गया।" तनवीर ने दिवान पर बैठते हुए कहा।

"और क्या शहरों की हवा गाँव की आत्मा में भी बहुत गहरे तक घुस गयी है" बल्ली ने वीरा को आवाज़ लगाई पानी लाने के लिए।

तनवीर का दिल धड़क गया। कुछ ही क्षणों में वह आवाज़ शरीर धारण करके सामने आ खड़ी हुई। बल्ली का खयाल न होता तो तनवीर शायद उम्र भर उस चेहरे से नज़रें ही नहीं हटाता। जो आवाज़ इतनी अपनी लगती थी उसका शरीर भी उतना ही अपना लगा।

एक मीठी मुस्कान के साथ उसने तनवीर को नमस्ते किया, नज़र भर देखा और चाय लाने रसोई में चली गयी।

बल्ली और तनवीर बचपने की बातों में खो गए। दोनों का बचपन इसी गाँव में बीता था। फिर आगे की पढ़ाई करने तनवीर शहर चला गया। फिर उसके माता-पिता भी गाँव का घर बार बेचकर शहर चले आये और वहीं बस गए। तनवीर को नौकरी लगी और भी तीसरे शहर में और वह वहीं का होकर रह गया और तब से गाँव से उसका नाता ही टूट गया। यह तो एक आवाज़ थी जो उसे वापस उन्ही गलियोँ में खींच लायी थी। तनवीर का एक मन बल्ली के साथ गप्पे हाँक रहा था और एक मन वीरा के आसपास घूम रहा था।

वीरा ने आज मन लगाकर खाना बनाया था। बाहर रसोईघर से लगे हुए बरामदे में बैठकर सबने खाना खाया। बरामदे में ताज़ी हवा के झोंके आ रहे थे जिनमे न जाने कौन सी जानी पहचानी दिल खुश गंध थी कि तनवीर के दिल में रह-रहकर एक उमंग हिलोर ले रही थी। यह ताज़ी हवा के झोंके पेड़ों से आ रहे थे या तनवीर की अपनी ख़ुशी के कारण उठ रहे थे क्या पता।

"तूने आज तक घर वैसा ही रखा हुआ है, पुराना, ठेठ गवाईं। नया क्यों नहीं करवा लेता?" तनवीर ने आम के पेड़ के पास बनी मोरी में हाथ धोते हुए बल्ली से पूछा।

"नहीं यार यही अच्छा लगता है, ज़मीन से जुड़ा हुआ। एक बार नया करवा लिया तो बस यादें ही बाकी रह जाएँगी। कुछ दिनों बाद नयी ज़मीन लेकर एक पक्का शहरी मकान बनवा लूंगा लेकिन इसे ऐसा ही रहने दूँगा।" बल्ली ने खाट पर बैठते हुए कहा।

"सही है। घर और जगह तो वही अपनी लगती है जहाँ पैदा होकर बचपन बीता हो। बाकी घर और जगहें तो बस जीने के लिये समझौते होते हैं।" तनवीर ने बल्ली की बात का समर्थन किया।

दोपहर भर दोनों दोस्त बचपन की गलियों में घूमते रहे, यादें ताज़ा करते रहे। शाम को अचानक बल्ली को फोन आया, उसके चाचे को दिल का दौरा पड़ा था। उनका बाल बच्चा कोई था नहीं लिहाजा बल्ली को ही निकलना था।

"माफ़ करना यार वीर जाना बहुत जरुरी नहीं होता तो कभी न जाता लेकिन चाचे के मेरे अलावा कोई नहीं है। चाची तो रो-रोकर बेहाल हुई जा रही है। पड़ोसियों ने अस्पताल में भर्ती तो करवा दिया है लेकिन सुबह तक शायद पास के शहर के बड़े अस्पताल ले जाना पड़ेगा" बल्ली ने बैग में अपने एक जोड़ा कपड़े सम्भालते हुए कहा।

"तो मैं भी तेरे साथ ही चलता हूँ स्टेशन से ही कोई न कोई गाड़ी मिल ही जायेगी।" तनवीर अपनी सूटकेस उठाने लगा।

"पागल हुआ है क्या।" उसका हाथ रोकते हुए बल्ली ने उसकी सूटकेस वापस रख दी " कल भर की तो बात है परसों सुबह ही तो लौट आऊँगा। तू कहीं नहीं जाना।"

तनवीर एक अजीब से संकोच और एक अजीब रोमांच से एक साथ भर गया। रात आठ बजे दो रोटियाँ खाकर बल्ली चला गया। तनवीर उसे स्टेशन छोड़ आया।

वापस आकर घर की चौखट पर पैर धरते ही तनवीर का दिल इतनी जोर से धड़कने लगा कि तनवीर ने सोचा कहीं उछलकर बाहर न आ जाये। पैर मन भर भारी हो रहे थे। दरवाज़े पर हाथ रखा तो वह खुला ही था। अंदर आकर तनवीर ने कुण्डी चढ़ा दी। रसोईघर में बैठी वीरा उसकी राह देख रही थी। तनवीर की आहट पाते ही एक पटा उसके लिए अपने सामने बिछा दिया। पटे पर बैठकर तनवीर ने एक भरपूर नजर से वीरा को देखा। वीरा ने मुस्कुराते हुए आँख तरेरी और दुपट्टा गले तक खींच लिया। वीरा ने एक ही थाली परोसी और दोनों के बीच रख ली। तनवीर ने रोटी का कौर तोड़ा, सब्जी ली और मुँह में डाल लिया। वीरा भी उसी थाली से खाने लगी। उसका अपनापन देखकर तनवीर का मन भीग गया। वह मुस्कुराकर एकटक वीरा को देखता रहा। खाना खा लेने के बाद वीरा ने उसके हाथ धुलवाए। उसने वीरा के दुपट्टे से ही हाथ पोंछे। वीरा रसोई समेटने लगी। तनवीर छत पर जाकर खड़ा हो गया। शुभ्र चांदनी रात थी। साफ आसमान पर पूरा चाँद चमक रहा था। आज तनवीर चाँद को देखकर दोस्ताना तरीके से मुस्कुरा दिया। जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर उसने एक सिगरेट सुलगा ली। हवा रातरानी का इत्र अपने बदन पर मलकर इठला रही थी। चाँद की रौशनी में तनवीर का बदन फिर जलने लगा।

सिगरेट खत्म होने पर वह छत पर पड़ी खाट पर बैठ गया। थोड़ी ही देर बाद वीरा ऊपर आयी। एक हाथ में बिछौना तकिया था एक हाथ में दूध का गिलास। गिलास तनवीर के हाथ में थमाकर वह बिछौना खाट पर बिछाने लगी। गद्दे पर चादर बिछा कर उसने सिरहाने तकिया रखा और पायताने पर ओढ़ने के लिए चादर रखकर वह नीचे जाने लगी।

"कहाँ जा रही है?" तनवीर ने पूछा।

"आप आराम करिये। मैं नीचे जा रही हूँ।" वीरा ने बिना पलटे जवाब दिया।

"जाना जरूरी है क्या?" तनवीर ने सवाल किया।

"मेरे लिए तो नहीं लेकिन आपके मन की बात मैं कैसे जानू?" वीरा ने पलटकर तनवीर की आँखों में देखकर जवाब दिया।

"मेरे लिए तुझ से बढ़कर कुछ नहीं है पगली।" तनवीर ने उसकी बाँह थामकर कहा।

वीरा खाट पर उसकी बगल में बैठ गयी। उसका बदन तेज़ी से उठती गिरती साँसों के कारण रह रहकर कंपकंपा रहा था और वह साँसों की धृष्टता छुपाने के लिए बेचैनी से बार बार पहलु बदल रही थी। होंठ आमंत्रण लिए हल्के से खुले थे। तनवीर ने उसकी पीठ पर हाथ रखा तो वह मचलकर बहती नदी सी उसकी बाँहो के किनारों में सिमट आयी। उस रात चाँद ने दोनों पर प्यार की पूरी शीतलता बरसा दी। तनवीर ने पहली बार जाना औरत का प्यार, उसका छूना क्या होता है।

सुबह पौ फटने से पहले तनवीर की नींद खुली तो देखा वीरा खाट पर बैठी हुई थी। तनवीर भी उठकर बैठ गया। वीरा की ठोड़ी और कुर्ते के गले से नीचे से झाँकता कन्धे का हिस्सा लाल हो रहे थे। बहुत गोरे रंग पर वो लाल हिस्से ऐसे लग रहे थे जैसे सफ़ेद दूध में केसर पड़ा हो। औरत का यह रूप उसने पहली बार देखा था कि उसका जिस्म रात की कहानी को ओढ़कर सुबह को भी सुनाता है।

तनवीर वीरा के कन्धे और गर्दन को अपनी नाक से सहलाने लगा। वीरा की गरदन पर रात के क्षणों की सुगंध बसी हुई थी। तनवीर ने अपनी साँस में उस सुगंध को भर लिया।

वीरा अपनी थी तो वह घर भी अपना लग रहा था। दिन भर दोनों चहकते हुए, साथ मिलकर काम करते हुए रात का इंतज़ार करते रहे।

"पहली बार जाना कि आदमी का छूना कितना अच्छा लगता है। आपने आज सही मायनों में मुझे औरत बना दिया। वो बहुत अच्छे हैं इतने अच्छे कि उनके साथ.... बस एक इज़्ज़त ही दिल पर हावी रहती है तो यह सब । " वीरा की दिल से कही गयी बात तनवीर के दिल में गहरे तक उतर गयी। तनवीर की गरदन पर वीरा की गहरी तुष्ट साँस सट कर बैठ गयी। दो रातें स्वर्ग सी लगीं।

वाणी के लिए तनवीर को अपने आप पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जलना पड़ता था और इस जलने के बाद हर बार वह राख होकर रह जाता था। जैसे चूल्हे में जलती लकड़ी रोटी को आँच देकर पकाने में खुद राख होकर बिखर जाती है। वैसे ही वह भी राख होता रहता था।

वह तो वही है, बस वाणी का साथ उसे लकड़ी बनाकर जला कर राख कर देता है और वीरा ने उसे कुंदन बना दिया। तनवीर ने एक सिगरेट सुलगा ली। वीरा ने उस धुएँ को गहरी साँस लेकर अपने सीने में भर लिया क्योंकि उसमे तनवीर की साँसों की खुशबू थी। वह तनवीर का हर अंश अपने में समा लेना चाहती थी।

दूसरे दिन बल्ली वापस आ गया। वीरा को लगा किसी ने उसे चांदनी की ठंडक तले से उठाकर चिलचिलाती हुई जेठ की धूप में खड़ा कर दिया हो। शाम को तनवीर वापस चला आया।

वीरा को लग रहा था किसी ने छाती पर बड़ा भारी पत्थर रख दिया है और उसकी साँस घुट रही है। उसके दिल और दिमाग एक दर्द से सुन्न से हो रहे थे। वीरा को समझ नहीं आ रहा था कि उसे तनवीर के चले जाने का दुःख ज्यादा है या बल्ली के वापस आ जाने का। तनवीर पास था तो सबकुछ कितना अच्छा, कितना अपना सा लग रहा था। और आज जब वह पास नहीं है तो वीरा को किसी के साथ रहने का मन नहीं कर रहा था। अपने आपके साथ भी नहीं।

तनवीर के साथ रहते हुए उसे पहली बार लगा कि वह अपने घर में अपने आदमी के साथ रह रही है। कैसा अनकहा सा रिश्ता है ये प्यार का।

बल्ली के साथ उसे हमेशा लगता कि वह अपने घर में किसी पराये आदमी के साथ रह रही है।

उसके दिन कटने का सहारा दिन भर तनवीर से फोन पर बात करना और दोबारा उससे मिलने का इंतज़ार करना था।

वीरा कहती नहीं थी लेकिन तनवीर समझता था वह तो फिर भी पुरुष है लेकिन वीरा तो स्त्री है। और वीरा के दिल के दर्द को महसूस कर तनवीर की छाती फटने को हो आती।

इधर शंका में कुलबुलाते वाणी के मन की अजीब हरकतों से तनवीर दिन पर दिन उकताता जा रहा था। वाणी का छूना पहले उसे बुरा लगता था। अब नागवार गुज़रता था। गरदन पर वीरा की वह गरम, तुष्ट साँस आज भी लिपटी हुई है। अब उस साँस पर वह किसी और का साया भी कैसे पड़ने दे सकता है। वह बेचैन होकर अपनी गरदन सहलाने लगता जैसे वीरा की साँस को तसल्ली दे रहा हो।

वीरा के तन की कस्तूरी तनवीर के तनमन में बस चुकी थी। हर समय वह अपने तन में उस सुगन्ध को महसूस करता रहता। वाणी जब भी पास आती वह घबराकर दूर छिटक जाता। दिन में वह वाणी के प्रति अपने आपको गुनहगार समझता और रात में वीरा की प्रेम कस्तूरी की गन्ध के मोह में डूबा सो जाता।

वाणी कई महीनों से तनवीर को रिझाने में लगी थी। एक रात वह अपनी पत्नी होने के हक को हासिल करने के लिए ज़िद पर ही आ गयी। तनवीर किसी भी कीमत पर उसकी ज़िद को पूरा नहीं कर पा रहा था। उसके शरीर से वीरा के तन की कस्तूरी महकने लगी। वाणी सन्न सी पलंग पर बैठ गयी।

"बताओ वाणी मैं क्या करूँ? मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। पर बहुत मजबूर हूँ। मुझे माफ़ करो। लेकिन मैं वीरा के अलावा किसी और का नहीं हो सकता। " वह वाणी के घुटनों से लगकर बिलख गया।

अपना काँपता हाथ उसके सर पर रखकर वाणी बहते आंसूओं जैसे स्वर में बोली-

"अपने मन में गुनाह का बोझ मत लाओ। यह तो हमारे नसीबों का दोष है। इसे उसी के माथे रहने दो।"



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