दोहरा मापदंड
दोहरा मापदंड
"क्या बताऊँ बहन जब से घर में आयी है एक दिन भी चैन से नहीं गुज़रा है। आते ही मेरे हट्टे-कट्टे जवान बेटे को ही खा गयी कलमुँही।" रमा बहन अपनी पड़ोसन के पास बैठी रोना रो रही थी।
दरवाजे की आड़ में खड़ी उनकी विधवा बहू की आँखों से आँसू टपक पड़े। एक तो पति के खोने का दारुण दर्द, जीवन अँधेरा मरुस्थल सा। और उसपर सास के ताने....
छः माह बाद रमा बहन की बड़ी बेटी बैठी उनके पास रो रही थी-
"सास उठते-बैठते यही कहती रहती है सबसे कि जब से घर में आयी है तबसे एक दिन भी चैन से नहीं गु
ज़रा। कमबख्त आते ही मेरे जवान बेटे को खा गयी।"
रमा बहन ने तड़पकर बेटी को सीने से लगा लिया और उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली-
"कैसी जालिम औरत है जो एक बेटी का दर्द नहीं समझती। जो हुआ उसमे तेरा क्या दोष है। मेरी बेटी क्या डायन है जो उनके बेटे को खा गयी। तेरा तो जीवन सहारा ही चला गया। नुकसान तो तेरा हुआ है। ये पहाड़ सा जीवन और अकेलापन।"
दरवाजे की आड़ में खड़ी बहू ने एक गहरी साँस ली और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे-
"काश माँ जी बहू और बेटी दोनों को एक ही मापदण्ड से देखतीं।"