Shubhra Varshney

Tragedy

3.0  

Shubhra Varshney

Tragedy

बुई माँ

बुई माँ

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जब घर में काम करने वाली सरला को नन्ही यशिका ने "ए औरत जरा ढंग से काम कर" के संबोधन किया तो मैं जैसे सोते से जागा।

अपनी छोटी नन्ही 4 साल की पुत्री को गोद में उठाकर प्यार से समझाया बेटा "आंटी कहो इनसे औरत नहीं"

" पर पापा आंटी कहां है यह ....आंटी तो मम्मा की फ्रेंड्स है ना"

उसका नन्ना बाल मन एक काम करने वाली को आंटी मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था।

मुझे शर्मिंदा होता देख सरला ही आगे बढ़ कर बोली," रहने दीजिए सर.... यशिका बेबी धीरे धीरे सीख जाएगी" कह कर वह मुझसे नजरें बचाती काम में लग गई।

मुझे एक झटका सा लगा। सीख जाएगी.... कैसे सीख जाएगी मेरे जींस जो पाए हैं उसने।

मेरे बाल मन ने भी तो मालती बुआ को कामवाली से ऊपर कभी नहीं समझा था।

मम्मी पापा दोनों के ही कार्यरत होने के कारण जब मेरे जिद्दी स्वभाव के चलते मुझे क्रेच में रखना असंभव हो गया... तब दादा जी ने गांव से एक अल्पायु में विधवा हुई पापा के दूर के रिश्ते से लगती बहन को मुझे संभालने को शहर भेज दिया।

सरल स्वभाव की मालती बुआ जैसे मम्मी की लॉटरी बनकर आई.... मुझे संभालना तो क्या उन्होंने तो जैसे पूरे घर की जिम्मेदारी स्वयं ही ओढ़ ली थी।

बेहद गरीब परिवार की वह जब अल्पायु में ही विधवा हो गई थी तो उनके ससुराल वालों ने अपशकुनी मानकर उन्हें निकाल दिया था... मायके में आकर जब उन्हें लगा कि उन्हें एक बोझ समान समझा जा रहा है तब मेरे दादा जी का उन्हें शहर मेरे पापा के पास भेजना बहुत सुख कारक लगा.... मेरे हंसमुख पापा के साथ वह बचपन में खेली बड़ी थी तो वह पूरे अधिकार से भाई के घर आ गईं।

और इसी अधिकार के चलते वह जल्दी ही मेरे परिवार को अपना परिवार मानने लगीं।

सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक वह स्वयं को किचन में झोंके रखती.... सुबह मम्मी पापा को ऑफिस विदा करके उनका पूरा समय मुझे तेल लगाकर मालिश करने, नहलाने दूध पिलाने ,सुलाने और फिर मेरे उठने में खिलाने में लग जाता।

बचपन से ही जिद्दी मैं उनके बेशुमार लाड प्यार से और भी जिद्दी होता गया फर्क इतना था कि मैंने उनके लाड प्यार को एक नौकर का कर्तव्य समझा.... नौकर हां नौकर ही तो समझता था मैं उन्हें.... मम्मा के ऑफिस जाने से पहले से लेकर मम्मा के ऑफिस लौटने तक वह जिस तरह से मम्मा के इर्द-गिर्द घूमती उनका काम करती तो वह मुझे उनकी सर्वेंट ही लगती ।

पापा मुझे उन्हें बुआ संबोधन कहने को कहते थे लेकिन मैं उन्हें बुई ही कहता था.... यह अलग बात थी वह चुपके चुपके मम्मा के पीछे मुझसे मां संबोधन सुनना चाहती.... उनका स्वयं की संतान से रिक्त मन मुझ में उसका अक्स ढूँढता और एक मैं था उनके वात्सल्य को एक नौकर का कर्तव्य समझता रहा बिना एक बार भी सोचे कि जो मेरे गुस्से होकर खाना फेंक देने पर व्यथित होकर मुझे दोबारा खाना बनाकर अपने हाथों से खिलाती वह भला केवल नौकरानी का ही काम कहां कर रही थी ।

वह तो उस प्यार के उपवन की तरह थी जिसकी छाया तले मैं पूर्ण रूप से सुरक्षित पल बढ रहा था।

एक बेसहारा को सहारा देकर जहां मम्मा पापा गांव भर में वाहवाही लूट रहे थे, वही मालती बुई एहसान के तले दबकर स्वयं को धन्य मान रही थी यह अलग बात थी कि पापा के एक दो बार मुद्दा उठाने पर भी मम्मा ने कभी नियमित रुपए पारिश्रमिक स्वरूप बुई को नहीं दिए।

मम्मा का कहना था कि उन्हें तो हमारा कर्जदार होना चाहिए कि हम उन्हें रहने को जगह और खाने को खाना देते हैं ।

वह यह भूल रही थी अगर बुई ना होती तो वह एक दिन भी मुझे छोड़कर ऑफिस नहीं जा पाती और ना ही घर गृहस्थी की जिम्मेदारी से इस प्रकार निश्चिंत होती।

जहां पापा मम्मा और मैं अपने अपने कमरों में एसी में सोते, वहीं बुई लॉबी में कोने में एक तखत पर पुराने हल्के चलते पंखे के नीचे सोने में ही खुशी महसूस करती ।जिंदगी से जैसे उन्हें कोई शिकायत ही नहीं थी ।वह हमारी गृहस्थी को अपनी गृहस्थी मान कर पूरी तरह से उस में रम गई थीं।

मुझे आज भी याद है कि कैसे मैं उन्हें अपने बेड पर बैठने भी नहीं देता था.... आखिर नौकर कब मालिक के बेड पर बैठते हैं और चाहे दिन भर में उनके तखत पर चप्पल लिए भी चढ़ा रहता.... आज मुझे सोच सोच कर आंखों में पानी आ रहा था कि किस प्रकार एक रात मुझे तेज बुखार होने पर जब मम्मा पापा अपने कमरे में सोने चले गए तो बुई मेरे बराबर में एक कुर्सी डाले रात भर बैठी रही.... बेड पर कैसे बैठती उस पर तो बैठना उन्हें मना था..... मैंने फिर भी उनके वात्सल्य को उनकी ड्यूटी समझा।

जब हम पापा मम्मी के ट्रांसफर होकर दूसरे शहर में जाने लगी तो मम्मी ने बड़ी आसानी से बुई को गांव छोड़ आने को कहा.... कितना गिड़गिड़ायी थी वह हमारे साथ रहने के लिए ही पर मम्मा ने छोटे फ्लैट का हवाला देकर उन्हें एक साथ रखने से साफ इनकार कर दिया था आखिर उनकी जरूरत थी क्या थी।

मैं बड़ा होकर डे बोर्डिंग में जाने लायक हो गया था और बड़े शहर में बड़ी सोसाइटी में अब मम्मा को बुई को अपने साथ रखना स्टैंडर्ड का नहीं लग रहा था।

बुई को गांव छोड़ कर आते हुए मेरे पापा थोड़े दुखी थे क्योंकि बुई ने हमेशा उन्हें ममता भरी छांव का एहसास दिलाया था।

शहर में रहते हुए भी बुई ने उन्हें हमेशा वैसा खाना बनाकर खिलाया जैसा कि वह बचपन में गांव में अपनी मां के हाथ का खाते थे..... चलती हुई जब कुछ रुपए पापा ने उन्हें यह कहकर दिए कि ,"आपने इतने दिन राघव की देखभाल की है... इनको रख लो" तो वह फूट-फूट कर रो पड़ी थी और बोली थी ,"मेरी ममता बिकाऊ नहीं मैं तो इसे अपना बेटा समझती रही हूं"

छोटा होने की वजह से तब तो उनके डायलॉग्स मुझे समझ में नहीं आए लेकिन अब मुझे समझने को कुछ रह ही नहीं गया था।

उसके बाद भी बुई ने कई बार हम से संपर्क कर साथ रहने की इच्छा जताई पर मम्मी ने उन्हें वापस हमारी जिंदगी में आने ही नहीं दिया।

मम्मा की तरह प्रैक्टिकल मैं जिंदगी को प्रैक्टिकल रूप से ही समझता रहा और इसी के चलते मैंने अपनी सहकर्मी रीवा से मम्मा पापा की इच्छा के विरुद्ध प्रेम विवाह किया..... मेरा रीवा से प्रेम बस उसका मेरे समतुल्य कार्यक्षेत्र होने की वजह से था मुझे कमाऊ पत्नी के चलते अपना भविष्य सुरक्षित लगता था.... यह अलग बात थी कि बहुत जल्दी ही मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि मेरी व्यवसायिक बुद्धि मेरे पारिवारिक जीवन पर भारी पड़ेगी.... हम दोनों पर एक दूसरे के लिए समय नहीं था और बेटी यशिका के लिए तो बिल्कुल भी नहीं.... इसी के चलते जब मैंने उसको संभालने के लिए एजेंसी से मेड हायर की तब जैसे आंखों के सामने मेरा बचपन घूम गया।

मेरे जीवन में प्रेम की कितनी जरूरत है और थी यह मुझे अब जाकर महसूस हो रहा था अब जब मम्मा पापा इस दुनिया में नहीं थे और रीवा कार्य की व्यस्तता के चलते बस औपचारिक संबंध मुझसे रखती थी तो एक मात्र यशिका ही मुझे प्रेम का स्रोत दिखाई देती।

आज उसकी कहे शब्द मुझे बचपन की ओर धकेल कर ले गए थे और मेरे मन में बुई से मिलने की उत्कंठा तीव्रता से जाग उठी।

गांव में अपने चाचा से मेरा संपर्क था..... उन्हीं से एड्रेस लेकर जब मैं बुई के मायके पहुंचा तो घर पहुंच कर गेट खोलते ही बाहर खाट पर ही मुझे जर्जर हो चली बुई लेटी दिखाई दी.... उसको देखते ही मेरा सब्र बांध टूट गया.... आँसू ना चाहते ही मेरी आंखों से बहने लगे.... वह मुझे एकटक देख रही थी।

मैं उसके पास खाट पर बैठकर उसका झुर्रीदार सूख चुका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला," मां मैं आ गया हूं.... हां मां मैं तेरा राघव" मैं और ना जाने क्या क्या कहता रहा तभी पीछे से आकर एक प्रौढ़ स्त्री ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोली ,"बेटा जी किस से बात कर रहे हैं यह तो दो साल पहले अपनी स्मृति पूरी तरह से खो चुकी हैं और बस इसी तरह से लेटी अपनी सांसे पूरी कर रही हैं"

क्या खेल रचा था ईश्वर ने जिस शब्द को सुनने के लिए बुई ने पूरी जिंदगी लगा दी थी वह आज उनको सुनने की शक्ति खो बैठी थी।

अब मैं बुई को लेकर शहर लौट रहा था बिना रीवा की इच्छा की परवाह किए हुए अब चाहे बुई में मुझे पहचानने की शक्ति ना रही हो लेकिन मैंने उनकी ममता पहचान ली थी।



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