बिंदी जितनी हिन्दी
बिंदी जितनी हिन्दी
तीन तरह के लोग इस दुनिया में हैं एक वो जिसका दुनिया के दर्शन, संविधान और ऐसी तमाम बड़ी बातों से कोई वास्ता नहीं होता है। उसकी सुबह होती है शाम की चिंता में कैसे जिंदा रहा जा सके। इसके उलट तीसरे तरह के लोग जो दर्शन, संविधान को गढ़ते हैं, उनकी सुबह होती है नए मुकाम, नई मंजिल की ओर। अब दूसरे की बात करते हैं जिस पर ही सारा जिम्मा है, संस्कार का, संस्कृति का, राष्ट्रवाद का, और भी ऐसे कई वादों का, जिनका जिम्मा उसने खुद से लिया है, किसी और ने उसे नहीं सौंपा।
मैं उसी दूसरे वर्ग से आता हूं, पहले की तरफ जाना नहीं चाहता हूं, तीसरे की ओर जाना सपना है, ऐसा सपना जिसके साथ ही मेरे वर्ग के अधिकतर लोग निपट लेते हैं।
जैसा की मैंने बताया की मेरे वर्ग के लोग क्रांतिकारी होते हैं, संस्कृति, देश के लिए मरने -मिटने वाले, ऐसे ही मुझे भी संस्कार मिले थे। मैं अपने देश, अपनी भाषा पर बहुत गर्व करता, उसके उत्थान के लिए ही जीने के सपने को जीने लगा। मतलब जन्म सफल तभी होगा जब देश, समाज, संस्कृति के काम आ गए, बाकी धन दौलत, पद सब दोयम दर्जे के हैं।
ऐसे ही एक सम्मान जिसके लिए मैं जी रहा हूं - मेरी दूसरी मां, मेरा अभिमान, मेरे अंतस की आवाज, मेरी सच्ची अभिव्यक्ति , मेरी भाषा - हिन्दी।
घर का माहौल बिलकुल मुफीद था, पापा जी को हिंदी की कई कविताएं आती वो अक्सर सुनाते हैं, मम्मी को तो कट्टर लगाव -हिन्दी और संस्कृत से। दीदी की हिन्दी पीएचडी ने तो हिंदी में पैरों को जमा दिया। कविताएं लिखने लगा, करीबी दोस्तों की प्रशंसा ने पंख लगा दिए। रेडियो पर कविता पाठ, पत्र -पत्रिकाओं में छपना, मतलब संपूर्ण क्रांति जारी थी।
पर जिंदगी की रेखा इतनी सीधी कहां होती है, जब तक इंजीनियरिंग क्षेत्र में था सब ठीक था,पर जैसे शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा, समाज कार्य में आगे बढ़ा तो नई अवधारणाएं सामने आने लगी, भाषा की संकीर्ण समझ विस्तार लेने लगी। लोगों से मिला तो जाना कि हिंदी इतनी भी व्यापक नहीं जितनी हिंदी भाषी लोगों को लगती है, जल्दबाजी में किया गया सामान्यीकरण है।
कार्य क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व, आगे की हर सीढ़ी अंग्रेजी के पायदान से जाती है जब ये समझ आया तो झुकाव हुआ अंग्रेजी की तरफ, हिंदी से बचने की नाकाम कोशिश की, पर हिंदी खून में शामिल थी, अंग्रेजी से दोस्ती भी हुई पर अस्तित्व तो हिंदी से ही जुड़ा रहा।
हिंदी दिवस पर कविता लिखना, हिन्दी दिवस मनाना, बड़े कवियों को सुनना, सुनाना, सोशल मीडिया पर हिन्दी की पोस्ट साझा करना जिंदगी का हिस्सा बन गया।
पर अब जिंदगी का गणित बदल चुका है, हिंदी के प्रति प्यार को नए आयाम मिले हैं। अब द्वंद्व नहीं है, अन्य भाषाओं से झगड़ा नहीं है। भाषा क्या है, क्या कर सकती है, इसको जाना। मेरे लिए हिंदी है, दूसरे के लिए अलग भाषा हो सकती है, अब किसी पर अपनी भाषा थोपने को जी नहीं होता।
अब भी हिंदी दिवस को मनाता हूं, पर अब समझ पर फोकस है, अभिव्यक्ति पर, चिंतन पर - यही मूल है। भाषा वाहक है, हर भाषा चाहे वो एक या दो लोगों के बोले जाने वाली विलुप्त होती भाषा क्यों ना हो।
हिंदी की क्रान्ति वैसे भी खास अवसरों पर हिलोरें लेती हैं, लगने लगा है की अब हिंदी को मार्गदर्शन मंडल में डाल दिया गया है, सम्मान करो, नमन करो पर रोज के जीवन में हिंदी, हिंदी की बिंदी
जितनी रह गई है, जिसे कभी कभी हटा भी देते हैं -हिन्दी।
आज प्रगति के पथ पर हिंदी अतिरिक्त बोझ हो गई है जिसे अगर उतार भी दें तो चाल तेज ही होगी। ऐसे में मैं आज भी अपना झंडा बुलंद किए हूं, स्टोरी मिरर ने अवसर दिया तो लग गया क्रांति में, जो मेरे खून में है।
लगेगा कि अपना योगदान दिया, अपनी आहुति तो दी, गिलहरी की तरह प्रयास तो किया पर इस ये सब मन को बहलाने को अच्छा है, वरना जन्नत की हकीकत से सभी वाकिफ हैं।
जैसे भगत सिंह सब चाहते हैं पर दूसरों के घर में, अपने घर में नहीं
वैसे ही हिंदी सब बोले, पढ़े, लिखे पर मेरे बच्चे तो इंग्लिश ही सीखेंगे।