Vikas Sharma

Children Stories Inspirational

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Vikas Sharma

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तेरहवाँ भाग: काशवी का गणित

तेरहवाँ भाग: काशवी का गणित

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विकास सर गणितग्य तो नहीं थे पर गणित सिखाने में माहिर थे। उन पढ़ाने का चस्का था। फ़ीस कुछ और होती थी पर पर पैरेंट्स बात करने आते तो वो फ़ीस की वजह कभी मना नहीं कर पाते थे। और ना कभी बच्चों से फ़ीस मांगते थे, सिर्फ पढ़ाने का शगल था। ऐसे बच्चे जिन्हे बाकी के टीचर बिलकुल नालायक घोषित कर चुके थे, वो ही अधिकतर उनके पास आते थे और विकास सर का जादू हमेशा चलता था। वो करते क्या थे? बातें, ढेर सारी बांते। सवाल पूछते रहते, ध्यान से सुनते। एक ही समस्या के हल करने के कई -कई तरीके बताते और बार -बार पूछने पर हर बार नए जोश और बेहतर संदर्भ से समझाते। वो ऐसे प्रश्न पूछते जो बच्चों की मानसिक और बौद्धिक -दोनों को हिला देते। उनकी पंच लाइन जबरदस्त होती थी, असर करती थी।

एक बार जब मैं जोड़ सीख रही थी, मुझे गणित नीरस लगने लगा था क्योंकि इससे पहले तक गणित के नाम पर सिर्फ ड्रिल की थी।

शुरुआत हुई थी 1, 2,3 को बार -बार लिखते रहों। आगे, पीछे, बीच में संख्याएँ लिखते रहो। संख्या सीखने के नाम पर बस बिना मतलब की ड्रिल। और जब संक्रियाओं का नंबर आया तो फिर से ड्रिल – लाइने खींच -खींच कर गिनते रहो।

मेरी काफी शिकायत आने लगी थी, मुझे खुद भी लगने लगा था की मुझसे ना हो पाएगा और मैं गणित से दूर होती जा रह थी। तब सब यत्नो से हारे तब मैं भी विकास सर के पास पहुंची। उन्हें मेरी मम्मी पूरी तरह से ब्रीफ़ कर चुकी थीं, की डांटो या मारो जो करना है कर लो, पर इसे जोड़ना -घटाना सीखा दो । विकास सर का हमेशा की तरह एक ही जबाब – मुस्कराहट के साथ मिलकर कोशिश करते हैं ।

उन्होने शुरू से शुरुआत की मतलब बातचीत से, गिनतियों पर बातचीत। संख्याओं की कहानी, कभी अंक हमसे बातें करते, कभी हम ये देख पाते की दिनभर कैसे हम संख्याओं से घिरे रहते हैं। ढेर सारी बातचीत, खेल, पहेलियाँ, कहानियाँ फिर उन्होने इन सारे कामों को दर्ज करने की जरूरत को समझाया। सीखने के तरीके के रूप में, पुनर्बलन करते हुये, फ़ाइन मोटर स्किल्स के विकास के लिए, और जो हम भूल जाते हैं तो फिर से देख सके की क्या सीखा था, अब और कैसे आगे बढ़ना है, सीखने की यात्रा को एक साथ देख पाने जिससे औरों की भी मदद की जा सकें।

संख्याओं को सीखते -सीखते ही उनमें जोड़ना -घटाना शुरू हो गया था, ठोस वस्तुओं के साथ, दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करते हुये। फिर जोड़ की अवधारणा को जब उन्होने समझाया तो लगा की ये तो पहले से कर ही रहे थे बस लिखने या प्रदर्शित करने के तरीके में जरूर थोड़ा बदलाव हुआ। मुझे भी फील गुड होने लगा था।

मेरे घरवालों का नज़रिया शायद ही बदला हो, स्कूल के शिक्षक व बच्चों का भी कमोबेश ये ही हाल था। बातों -बातों में उन्हें पता चला की मैं क्यूँ परेशान से हूँ, क्योंकि हमारी मानसिक दशा हमारे कार्यों में स्पष्ट रूप से छलक़ती हैं। उन्होने कहा की वे कल स्कूल आएंगे और तुमको सबके सामने गतनी के सवालों को हल करके दिखाना होगा। अकेले में या छोटे समूह में हल करने व सबके सामने कुछ करना – एक धरती है तो एक आसमान। मैं बहुत ज्यादा नर्वस थी।

अगले दिन विकास सर स्कूल आयें, शिक्षक से बातचीत की। असेम्बली में मुझे स्टेज पर बुलाया गया, स्कूल शिक्षक ने मुझसे सवाल करने शुरू किए – बताओं 5+7, 8+6, 9+8 पर मैं चुप थी। मेरे होंठ को जैसे सील दिया गया हो। विकास सर आये और सबको समझाने लगे की अब मैं पहले से इम्प्रूव हो चुकी हूँ। जोड़ और घटाव के साधारण सवालों को कर लेती हूँ। तो मैं जबाब क्यूँ नहीं दे रही- सभी का यही सवाल था। विकास सर ने सवाल पूछने की रिकुएस्ट की और संदर्भ के साथ मुझसे सवाल करने लगे, सबके सामने।

बताओ, काशवी, रास्ते में दो आदमी मेरे घर से साइकिल से स्कूल के लिए चले, मुझे तीन और चौराहे पर मिले तो कुल कितने आदमी स्कूल की तरफ आ रहे थे?

दो आदमी आपके घर के पास और तीन चौराहे पर कुल पाँच।

उन्होने एक और सवाल पूछा- तुम्हारे दायें पाकेट में 7 टाफ़ी और बाएँ पाकेट में 5 टाफ़ी तो बताओं तुम्हारे पास कुल कितनी टाफ़ी हैं?

मैंने माथापच्ची की और बताया 15 टाफ़ी।

सर ने फिर से सवाल दोहराया, धीरे -धीरे से स्पष्ट किया, मुझे समय दिया गया सोचने के लिए, और मैंने जबाब दिया – 15 टाफ़ी।

सभी बच्चे, और स्कूल के शिक्षक धीर -धीरे मुस्कराने लगे थे। पर विकास सर को मुझ पर बला का विश्वास था, की मैं ये जबाब गलत दे ही नहीं सकती। उन्होने मुझसे पूछा की मैं ये बताओं की कैसे जबाब तक पहुँच रही हूँ ? सबके सामने बताऊँ। मैंने कोशिश की आपने सवाल में बताया की मेरे दायें पाकेट में 7 टाफ़ी और बाएँ पाकेट में 5 टाफ़ी, कुल हो गई 12 पर 3 टाफ़ी पहले से ही मेरे बाएँ पाकेट में थी, तो कुल तो 15 ही हुईं ना।

हाँ, बेटे आप सही हो – विकास सर ने बस यही कहा, और आँखों से सबकी तरफ देखा, उन्होने बिना बोले ही उस दिन गणित सीखने का बहुत बड़ा मैसेज दे दिया था।

गणित में संदर्भ ही जान डालता है, बिना संदर्भ के ये 1,2,3 क्या हैं? सोच के देखो? बच्चों के साथ गणित में काम करते हुये हमारे संदर्भ वास्तविक जीवन के होने चाहिए, नहीं तो वास्तविक जैसे।


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