बिन फेरे हम तेरे
बिन फेरे हम तेरे
वह यू पी से आई थी। माली काका उसे लाए थे हमारे घर। उम्र कोई 25-30 वर्ष होगी।
पीयूष, हमारा बेटा दो वर्ष का हो गया था। मेरी पत्नी मालती अब नौकरी करना चाहती थी। पीयूष को संभालने के लिए कोई चाहिए थी इसीलिए माली काका ने उसे हमारे घर भेजा। उसने पूरा घर संभाल लिया। पीयूष उससे बहुत घुल मिल गया। कभी कभी रात में भी उसी के साथ सो जाता। मालती भी मना नहीं करती क्यों कि वो संभ्रांत घर की लगती थी। बहुत शिष्ट, सौम्य और सुघड़ ! मालती को आज़ादी रास आने लगी। अपने शौक पूरा करने के लिए उसे अब काफी वक्त मिल जाता। पीयूष के बाद पावनी, हमारी बेटी भी हमारी ज़िंदगी में आ चुकी थी। वह दोनों बच्चों का पूरा ध्यान रखती। मालती की अनुपस्थिति में मुझे अपने हर काम के लिए उसे आवाज़ लगानी पड़ती।
सरयू नाम था उसका। लगभग चार साल हो गए थे उसे आए। मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि साधारण नैन नक्श होते हुए भी काफी आकर्षक थी वह। सुतवां नाक, लंबे बाल और भरा शरीर। माथे पर छोटी सी बिंदिया। मुझे वो अच्छी लगने लगी। समझदार, भली, भोली और कम बोलने वाली। मुंह से निकालने की देर और पल में चीज़ हाज़िर कर देती। लेकिन सरयू ने मर्यादा कभी नहीं लांघी। और न ही मुझे लांघने दी। उसकी बिंदिया और सिन्दूर मेरी लक्ष्मण रेखा थे।
कई बरस गुज़र गए। पीयूष और पावनी पढ़ाई खत्म कर चुके थे। पिछले बारह साल से सरयू साल में सिर्फ एक बार घर जाती थी। हफ्ता दस दिन के लिए।फिर न कोई खत न ही उसके घर से कोई आता। पावनी की सगाई तय थी। सरयू ने एक माँ की तरह मालती के साथ बढ़ चढ़ कर काम किया। पिछले कई दिनों से देख रहा था कि उसकी तबियत गिरने लगी थी। फिर भी वह फिरकी सी घूमती। आँखों के नीचे काले घेरे आ गए थे। कभी कभी काम करते करते बैठ जाती। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था। पावनी ससुराल चली गई और मालती 10 दिनों के लिए अपने किटी ग्रुप के साथ सिंगापुर।
मैंने सरयू से बहुत कहा कि डॉक्टर के पास चले। पीयूष ने भी बहुत समझाया लेकिन वह नहीं मानी।
आखिर वो मनहूस दिन आ ही गया। सरयू फिर चक्कर खा कर गिर गयी। मैं बहुत घबरा गया था। अकेला था संभालने वाला। पीयूष भी किसी दोस्त के यहां गया था। ...पल भर में ....सब खत्म!
आज भी सरयू की आवाज़ मेरे कानों में सुनाई देती है। उसने कहा ," मरते वक्त झूठ नहीं बोलूंगी। बाल विधवा हूँ मैं। मेरा दुनिया में कोई नहीं है। चाची के पास पली बढ़ी। गौने से पहले ही पति गुज़र गया। चाची ने मनहूस कह कर घर से बाहर कर दिया था। आपके घर पहुंची तो नौकरी से निकाले जाने के डर से बिंदी और सिन्दूर लगाने लगी। हर साल जो मैं हफ्ता दस दिन बाहर रहती थी, वो मैं तीर्थ स्थान पर जाती थी घर तो कोई था नहीं मेरा, न ही कोई अपना। कभी हरिद्वार कभी वृंदावन। जैसा जीवन मुझ अभागन को मिला वो, किसी को न मिले, यही सोच अगला जन्म सुधारना चाहती थी। मैं बचपन से प्यार को तरसी थी। जो प्यार, स्नेह मिला वो आप ही से मिला। बस एक आखिरी ख़्वाहिश पूरी कर दीजिए। मेरी चिता को मुखाग्नि आप ही दीजियेगा। बस गति हो जाये मेरी।"
कितना घबरा गया था मैं! डॉक्टर को बुलाने के लिए उठा तो सरयू ने हाथ पकड़ लिया और मना कर दिया। मैंने उसके सिर पे हाथ रख कर उसे आश्वासन दिया कि उसे कुछ नहीं होगा। उसकी भरी हुई मांग से सिन्दूर मेरी उंगलियों पर लग गया। उसके चेहरे पर खुशी फैल गयी। मुस्कुराते हुए सरयू ने मेरी बाहों में दम तोड़ दिया। उसके कमरे से हस्पताल का कार्ड मिला। कैंसर था उसे। अकेली दर्द सहती रही, मौत से जूझती रही। उफ्फ तक न की, किंतु हमें किसी तरह की तकलीफ़ न होने दी। पड़ोसिनों ने नहला धुला के एक सुहागिन की तरह श्रृंगार किया था उसका।
पता नहीं मेरा वहम था या सच...चिरनिद्रा में सोयी सरयू के चेहरे पर मुस्कान वैसी ही फैली थी।