बेटी
बेटी
सुषमा , गर्भवती थी, सास ससुर अन्य बड़े बुजुर्गों के जब भी चरण स्पर्श करती, वही रटा हुआ पुराना आशीर्वाद "दूधों नहाओ ,पूतों फलो" । मुँह उतर जाता उसका, लोग बेटी होने का आशीर्वाद क्यों नही देते, बेटियां तो घर की रौनक होती हैं, कितनी प्यारी, खूब सजाओ, फ्रिल वाली फ्रॉक पहनाओ या निक्कर, कितनी क्यूट।उसे लगता कि काश ये संतान बेटी हो। समय पूरा होने पर जब उसे दर्द में अस्पताल ले जाया गयाचीखते हुए भी उसके दिमाग मे गुड़िया सी बेटी की ही छवि थी।पर जब उसे होश आया तो उसके बगल का पालना खाली था। एक बार उसका जी धक सेहुआ पर सोचा नर्स नहलाने ले गई होगी। कुछ ही देर में उसे पता चल चुका था कि उसकी शंका निर्मूल नही थी।सूनी आंखों से पालने को निहारती ,सुषमा को घरवाले वापस घर ला चुके थे अस्पताल से---
वो शांत थी अब, अडोस ,पड़ोस से और रिश्तेदारी से लोगों का आना निरंतर जारी था। सांत्वना के चंद बोल बोलने वाले बुजुर्ग और उम्रदराज महिलाएं अफसोस जाहिर करने के बादघाव पर फाहा रखने के अंदाज में बोल देते, चलो, "एक बात की राहत है, कि बेटी थी।"
किसी का ध्यान सुषमा की तरफ न था, न वो खा रही थी ,न पी रही थी, और न ही कुछ बोल रही थी।शून्य में ताकती उसकी आंखें पत्थर हो चुकी थी।
अचानक सुषमा की बहन का ध्यान, सुषमा की इस अवस्था पर गया, सुषमा! सुषमा!!! उसने आवाज दी, पर सुषमा ने आवाज की दिशा में देखा भी नही, वो वैसे ही सामने शून्य में देखती रही।
कुछ अस्पष्ट सी आवाज़ें उसके कान में फुसफुसा कर कह रही थी, "बेटी थी---अच्छा हुआ---," और स्थिर बैठी सुषमा की आंखें पलकें भी न झपक रही थी।
घबरा कर बहन ने उसके गाल पर हौले- हौले चपत लगाई, "ए सुषमा! कुछ बोलो! बोलो न--अच्छा सोना है? सो जाओ! आराम मिलेगा।"
पर कोई जवाब न पाकर, सभी की सहमति से डॉक्टर को बुलाया गया।उसने भी उसे बुलवाने के भरसक प्रयास किये, पर सब निरर्थक रहा।अचानक डॉक्टर घरवालों की तरफ मुड़ कर बोला,इनको कोई गहरा आघात लगा है, इनको रुलाना बहुत आवश्यक है, बस किसी तरह से इनको रुलाइये, नही तो जीवन को खतरा भी हो सकता है।अब तरह तरह के प्रयास किये जाने लगे, कोई कहता मां से उसका बच्चा छिन गया, कोई बोलता ईश्वर बड़ा अन्यायी है।पर सुषमा जस की तस, प्रस्तर प्रतिमा की भांति निर्जीव सी बैठी रही।तभी हड़बड़ाई सी सुषमा की मां का प्रवेश होता है
"अरे मेरी लाडो! क्या हो गया?" मां ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, अविचल सी सुषमा, अब भी मौन थी, गोया कि माँ को पहचान ही न रही हो।
मां की आंखों से आंसू बहते जा रहे थे, "हाय,रे दुर्भाग्य, कितना चाव था सुषमा को बेटी का,क्या क्या कहती रहती थी, कितने अरमान थे बेटी को लेकर----"
मां तुम देखना, कैसे सजा कर रखूंगी अपनी गुड़िया को, क्या नकली गुड़ियाएं मेरी असली गुड़िया के आगे भला ठहरेंगी, ?
मां का प्रलाप जारी था, "और मेरी गुड़िया बड़ी होकर डॉक्टर बनेगी----,सुषमा ने तो उसका नाम भी सोच लिया था प्रज्ञा---"
स्थिर बैठी सुषमा के शरीर मे अचानक ही कंपन हुआ, और कलेजे को चीरती हुई उसकी आवाज कमरे में गूंज गई, "माँ ssssss , हाय रे मेरी प्रज्ञा
मेरी गुड़िया---"और सुषमा अचेत होकर वहीं फर्श पर लुढ़क गई ,सभी की आंखें आंसुओं से भीग चुकी थी।
