Hansa Shukla

Abstract

4.7  

Hansa Shukla

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बचपन

बचपन

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शहर के व्यस्तम चौराहे के सिग्नल में जैसे ही लाल बत्ती जलती उस साठ सेंकेड में कुछ महिलाये जो एक झोला कंधे से पीठ पर लटकाए रहती तुरंत कार के शीशे और दो पहिया वाहनों के पास आकर भीख मांगती उनसे भी दक्ष उनके सात-आठ साल के बच्चें अपने मासूम चेहरे पर ऐसे कातरता का भाव लेकर भीख मांगते कि हरी बत्ती होने तक आराम से पचास-साठ रुपये उन्हें मिल जाते थे।मेरे मन मे हमेशा एक सवाल आता कि ये महिलाएं हष्ट-पुष्ट है ये काम क्यों नही करती अपने बच्चों को स्कूल क्यों नही भेजती है लेकिन गंदे कपड़ो में लिपटी उन महिलाओं से पूछने की हिमाकत कभी नही की। एक दिन लाल बत्ती होने पर मेरी गाड़ी किनारे में थी दो बच्चे शीशे के पास आकर नपे तुले हुवे शब्दो मे बोलना शुरू किये दीदी दो दिन से खाना नही खाये है कुछ दे दीजिए,कुछ देने से पहले मैंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उनसे पूछा स्कूल क्यों नही जाते वहाँ पढ़ाई करना और खाना भी मिलेगा।बच्चों ने डरते हुवे जवाब दिया माँ जाने नही देंगी वो दिन भर हम पर नजर रखती है आपसे बात करते देखकर हमे मारेंगी दीदी वो कहती है हमारी जाति में काम नही करते,पढ़ते नही भीख ही मांगते है आप जल्दी कुछ दे दो, मैं दस रुपये देकर सोचने लगी यदि बच्चें कमाने लग जाये तो कभी-कभी स्वार्थवश माता-पिता भी उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखते है।पीछे से हॉर्न की आवाज से हकीकत में आई तो बच्चें भीड़ में गुम हो चुके थे जैसे उनका बचपन।


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