मधु मिshra 🍃

Abstract

5.0  

मधु मिshra 🍃

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बैसाखी

बैसाखी

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" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी?", लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या?

" संदली !, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

" जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

" कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

" बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

" बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह ! क्या सीख रही है इन दिनों?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।

"मेरी गुरु तो तुम हो संदली, भले ही तुम उम्र में मुझसे काफ़ी छोटी हो पर तुम्हारे अनुभवों की परिपक्वता ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी ! "

"अरे, आंटी आप तो बस यूँ ही"

"नहीं, वाकई में अग़र उस दिन पार्क में मैं तुमसे न मिलती तो पता नहीं मेरे साथ क्या होता या फ़िर हो सकता है मैं आज तुम्हारे सामने होती भी या नहीं ! "

" आप भी न आंटी ! "- कहते हुए संदली की रूखी आँखों में एक बदली सी मुस्कान की लहर दौड़ गईऔर वो बोली - " आंटी अग़र मैं कहूँ कि आपसे मिलने की चाहत में मैं यहाँ खींची चली आती हूँ तो ! "

" अरे वाह चलो हमसे भी मिलने की कोई चाहत रखने लगा है ! " कहते ही जानकी खिलखिलाने लगीl

" संदली एक बात कहूँ तुम मेरी जीने की वज़ह बनी हो न तो मैं भी कोशिश करुँगी कि तुम्हारी आँखों में ख़ामोशी के नहीं आशाओं के पानी को छलकता देखूँ जिसकी एक एक बूंद तुम्हारी भी अपनी ख़ुशी के लिए हो मैं नहीं जानती कि तुम्हारे मौन की वज़ह क्या है और मैं पूछूंगी भी नहीं पर मुझे यक़ीन है कि एक दिन तुम ख़ुद मुझसे अपने सुख दुःख के पन्नों का हिसाब ज़रूर दोगी ! "

" ऐसा कुछ भी नहीं है आंटी आप तो व्यर्थ में ही परेशान हो रही हैं ! " संदली ने अपने चेहरे पर एक और पर्दा डालने की कोशिश करते हुए कहा

" बेटा एक बात तो है मेरे बाल समय की आँधी ने सफ़ेद किये हैं पर तुम्हें देखकर लगता है कि कुछ ज़िम्मेदारियों ने तुम्हें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है ! ये मेरा अपना अनुभव कहता है और हाँ तुम ये बिल्कुल भी न समझना कि मैंने तुम्हारे भावों को कुरेदने की कोशिश की है जब सामनेवाले से अपनत्व की सोंधी महक मिलती है न तो दोनों के बीच साँसों का सफ़र एक ही दिशा में चलने लगता है और ऐसा मुझे तुमसे मिलकर ही लगा ! "

" अच्छा आंटी चलती हूँ मेडिकल स्टोर से कुछ दवाइयां लेनी है और बच्चे भी तो इंतज़ार कर रहे होंगे ! "

" बच्चे? " जानकी ने संदली से प्रश्न किया तो संदली ने गहरी स्वांस लेते हुए कहा" फ़िर कभी मुलाक़ात होने पर "

और अब जानकी भी अपने संगीत की क्लास की तरफ चल दी

जानकी ने दूसरे दिन संदली का बड़ी व्यग्रता के साथ पार्क में इंतज़ार किया पर वो नहीं आई उसका फ़ोन भी स्विच ऑफ़ आ रहा था क्या हुआ होगा फ़ोन क्यूँ बंद होगा? हज़ारों सवाल सागर की लहरों की तरह उठते और गिरते रहे आख़िर निराश होकर जानकी घर वापस लौट आई क्योंकि संदली ने अपना फ़ोन नम्बर तो दिया था, घर का पता नहीं नहीं तो जानकी की घबराहट शायद संदली के घर तक भी उसे ले जाती !

पार्क से लौटने के बाद जानकी के न तो संगीत के सुर लग रहे थे और न ही कागज़ पर अपने कोई जज़्बात वो लिख पा रही थी उसके जीवन में रंग भरने की ये दो वज़हें भी तो उसे संदली ने ही सुझाई थी जब उसके पति (संदीप) ने उसे हमेशा के लिए छोड़कर अपने ही ऑफ़िस की एक कलिग का हाथ थाम लिया उसके बच्चे भी तो कोई थे नहीं एक संदीप ही उसके लिए सब कुछ था क्योंकि उसने घर वालों से विद्रोह करके संदीप से शादी की थी और वो शाम उसे अच्छी तरह से याद है, जब उसे अपनी आँखों के सामने चारों ओर अँधेरा ही नज़र आ रहा था और अपना जीवन शेष करने के लिए वो हाथ में नींद की गोली लिये एक आख़िरी शाम बिताने पार्क में एक बेंच पर जाकर बैठी ही थी किबगल में बैठी संदली से उसकी मुलाक़ात ने उसके अंतिम निर्णय को विराम दे दिया न जाने कैसे उसके भीतर जीने की उम्मीद जाग गई पल भर में उसने मेरी बेरंग ज़िंदगी में रंग बिखेर दियेऔर अब आशा का दीप लिये मैंने सिर्फ़ अपने लिये जीना तय किया और आज जो ये उसकी साँसे है ये संदली की दी हुई तो है और फ़िर संदली से उसकी एक एक मुलाक़ात ने जानकी को उसके काफ़ी क़रीब कर दिया इन्हीं यादों के हर पल को जीते हुए कब सवेरा हो गया उसे पता ही नहीं चला स्कूल के लिए तैयार होते हुए जानकी ने आज एक दृढ़ संकल्प लिया कि आज तो संदली से मिलने पर पहले उसके घर का पता लेगी और फ़िर पूरे अधिकार के साथ उसकी ख़ामोश आँखों में ख़ुशियों के रंग बिखेरने की पूरी कोशिश भी करेगी !

किसी तरह आख़िर संध्या ने धरा पर अपने कदम रखे और जानकी के कदमों ने उसे पहुँचा दिया उसके अपने मनचाहे लक्ष्य की ओर बेंच पर बैठते ही उसकी निगाहें तलाशने लगी चिर परिचित सिर्फ़ संदली के चेहरे को और सहसा सामने आती हुई एक धुंधली तस्वीर साकार हो गई आज संदली को देख जानकी को ऐसा लग रहा था जैसे वो उसे बरसों बाद मिल रही है "ओ संदली, कहाँ थी तुम मेरी तो साँसे अटक गयी थी तुम्हारे लिए" ये कहते हुए जानकी की आँखे छलक गयी ! आज जाने कैसे जानकी का स्पर्श पाते ही संदली ने भी वो सब कुछ कह दिया जिसे वो आज तक अपने सीने में दबाये बैठी थी "आंटी, मैं छोटी सी थी और पिता नहीं रहे माँ ने ही मुझे और भाई को पाला भाई सूरज बड़ा था उसने पढ़ाई पूरी करते ही एक छोटी नौकरी कर ली और माँ की मदद के लिए शादी भी जल्दी ही उसके दो बच्चे भी हो गये और अचानक एक दिन सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई कहकर उसने एक लंबी और गहरी श्वास लीऔर तभी उसकी आँखों की कोरों से आँसू टपक गये जिसे पोछते हुए वो बोली इस घटना को चार साल हो गये और अब सूरज की पत्नी रानू भी नॉर्मल हो चुकी हैऔर मैं पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट टाईम जॉब करके इन सबको बात अधूरी ही रही लेकिन पूरा अर्थ दे गयी लेकिनअब घर की और बच्चों की जिम्मेदारी के बीच मुझे लगने लगा है आंटी कि न माँ को मेरी ख़ुशी की परवाह हैऔर न रानू को ! ! और रानू तो कहकर संदली सिसकने लगी जानकी ने संदली का हाथ थाम लिया और उसके कंधे को सहलाते हुए आँखों से ही इशारा किया कि आज तो तुम बोल ही दो बेटा

"आंटी दीपक से मेरा पिछले पंद्रह सालों पुराना और गहरा रिश्ता है वो भी मुझे चाहता था बस हम एक सही समय के इंतज़ार में थे कि कब शादी करें पर !

" पर क्या? बोलो बेटा "

" आंटी रानू अब दीपक के क़रीब आने की कोशिश कर रही है

उसके साथ हँसते बात करते हुए देख, मुझे डर सा लगने लगा है कि क्या दीपक भी? "

" बेटा, दीपक तुम्हें अपना जीवन साथी बनाना चाहता था या नहीं? "

" हाँ उसने तो अपने घर वालों को राज़ी भी कर लिया था "

" था नहीं मेरी बच्ची है बोलो दीपक से इस संबंध में तुमने बात की? "

" नहीं "

" तो कब करोगी चलो अभी उसका नम्बर मिलाओ बहुत जी लिया तुमने दूसरों के लिए, जानती हो बहुत ज़्यादा मदद करने से लोग तुम्हारी अच्छाइयों का फ़ायदा उठाने लगते हैंऔर अब उनको उनके हाल पर छोड़ दो कब तक किसी की बैसाखी बनती रहोगी कभी उनको अपने आप भी चलने दो और अब तुम्हारी चंद साँसों को तुम अपने लिए भी धड़कने का मौका दो और अब आंटी ने संदली से अधिकार सहित फ़ोन ले लिया और दीपक को कॉल किया उधर से दीपक की आवाज़ आती रही पर संदली ख़ामोश थी तो जानकी आंटी ने फ़ोन उठाते हुए दीपक को पार्क में बुला लिया पलक झपकते दीपक वहाँ पहुँच गया दीपक को जब संदली की ग़लतफहमी पता चली तो वो उस पर नाराज़ होते हुए बोला - मुझ पर विश्वास रखो मैं सिर्फ़ तुम्हारा हूँ किसी के साथ हँस बोल लेने से मैं भटकने वाला नहीं हूँअरे, मेरी साँसे तो तुमसे ही जुड़ी है और तुम्हारे ही नाम से महकती भी है पागल कहीं की ! "कहते हुए दीपक ने संदली को गले से लगा लिया

ये देख अब आँसू तो जानकी आंटी के आँखों से भी छलकने लगे तभी उन्होंने आकाश की तरफ देखा तो ऐसा लगा जैसे ढलता हुआ सूरज अपनी रक्तिम आभा के साथ चाँदनी को गले लगाने के लिए आतुर हो रहा हो ! और अब जब जानकी आंटी ने अपने नाक पर चश्मे की डण्डी चढ़ाई तो सब कुछ साफ़ नज़र आने लगा कि कोई बैसाखी आज़ाद होकर आज अपने जीवन की यात्रा के लिए निकल पड़ी है !


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