मिली साहा

Abstract Horror Tragedy

4.8  

मिली साहा

Abstract Horror Tragedy

बारिश की वो रात

बारिश की वो रात

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अगस्त का महीना साल 2021, मैं अपने एक खास दोस्त की शादी में मुंबई जा रही थी। सफ़र अकेला और लंबा था। मुंबई पहुंँचकर शादी के गंतव्य स्थान तक पहुंँचने के लिए एयरपोर्ट पर मैंने टैक्सी ली। अभी कुछ ही दूर पहुंँचे थे कि अचानक मौसम बहुत खराब हो गया तेज हवाएं चलने लगी और देखते ही देखते मूसलाधार बारिश भी शुरू हो गई। कुछ दूरी पर आकर टैक्सी अचानक बंद पड़ गई। 

सफ़र था बहुत ही लंबा और घोर अंँधेरी रात का था पहर

ख़ामोशी में कौंधती बिजली, तूफान और बारिश था कहर

फिर भी बढ़ती ही जा रही थी मैं आगे एक उम्मीद के साथ

मंजिल मिलेगी भी या नहीं इस बात की नहीं मुझको ख़बर।

मैंने ड्राइवर से पूछा तो उसने कहा...... मैडम जी टैक्सी इससे ज़्यादा आगे नहीं चल पाएगी आगे का पूरा रास्ता पानी से जाम है और तूफ़ान इतना तेज़ है कि कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा"।

मौसम के हालात देखकर लग नहीं रहा था कि मैं पहुंँच भी पाऊंँगी। यहांँ किसी सुरक्षित स्थान तक पहुंँच जाऊंँ यही बहुत बड़ी बात होगी। 

इसी उधेड़बुन में फंँसी थी कि तभी ड्राइवर ने कहा.... मैडम जी, मैं यहांँ गाड़ी छोड़कर जा रहा हूंँ, आपको भी चलना है तो चलिए। 

मैंने उसे मना करते हुए कहा, "नहीं नहीं ठीक है तुम जाओ मैं अपना देख लेती हूँ"। 

फिर मन ही मन में सोचने लगी.....

शादी में जाने की हलचल मन में, तूफ़ान ने आकर घेर लिया,

न इस पार,न उस पार जा सकूंँ मौसम ने ऐसे मुंँह फेर लिया।

गाड़ी से बाहर निकल कर सुरक्षित स्थान की खोज में मैं निकल पड़ी। पर अंँधेरा इतना था कि दिशा का कुछ पता नहीं चल रहा था बस में चलती ही जा रही थी। अचानक जब कहीं से थोड़ी रोशनी आई तो खुद को मैंने एक जंगल में पाया। 

बारिश अभी भी अपने जोरों पर थी। अचानक मेरी नजर जंगल में बने एक घर पर पड़ी वहांँ कुछ रोशनी भी दिखाई दे रही थी। मैं खुद को सुरक्षित करने के लिए उस मकान की ओर दौड़ गई। और जैसे ही मैंने उस मकान में प्रवेश किया वहांँ का जो नज़ारा था वो देख कर तो मेरी आंँखें फटी की फटी रह गई। वहांँ अचंभित कर देने वाली रोशनी थी। जहांँ मानव कंकालों का ढेर लगा हुआ था। 

डर से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। उस समय दिमाग में तो बस एक ही बात आ रही थी......

हाय! यह कैसी मुसीबत, आसमान से गिरे खजूर में अटके,

इन कंकालों से तो भले थे वो बारिश और तूफान के झटके।

डर और और घबराहट के मारे कुछ सूझ भी नहीं रहा था और वहांँ से वापस लौटने के लिए जैसे ही मैं दरवाजे की ओर आई। हर तरफ से रोने और चीखने की आवाजें आने लगी। ऐसा लग रहा था मानो कोई मदद की गुहार लगा रहा हो। 

मैंने पलटकर देखा.....पर वहांँ तो कंकालों के अलावा और कोई मौजूद नहीं था। मैं फिर आगे बढ़ने लगी.......फिर वही आवाज़ बार-बार मेरे कानों में पड़ रही थी। जो बाहर जाते मेरे कदमों को रोक रही थी।

डर से मेरा पूरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। मैंने तो खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली इस मकान में आकर। ऐसा लग रहा था मौत तो निश्चित है बाहर तूफ़ान का कहर और अंदर कंकाल।

पूरी तरह से फंँस चुकी थी। तभी अचानक मेरी नज़र एक कंकाल पडी। यह क्या ? 

वो कंकाल तो कुछ बोल रहा था...."हमें न्याय चाहिए, हमारे साथ बहुत गलत हुआ है"। मैं डरते डरते उस कंकाल के पास गई। डर तो लग रहा था, फिर भी हिम्मत कर मैंने उसकी पूरी बात सुनी। और जो कुछ भी मैंने सुना, वो इंसानियत और मानवता को शर्मसार करने वाला था।

उस कंकाल के अनुसार कुछ लोग मजदूरी के नाम पर गांँव से भोले भाले लोगों को लाकर उनकी बलि चढ़ाकर यहांँ इस मकान में फेंक दिया करते थे। बिना किसी कसूर के मौत से भी बदतर सजा। और इस बात की जांँच पुलिस भी नहीं करती थी।

इतनी पीड़ा इतना दर्द सुनकर मेरा डर जाने कहांँ खो गया। मैंने उन्हें न्याय दिलाने का निश्चय कर लिया। कुछ घंटों के बात तूफान जब शांत हुआ तो मैं वहांँ से बाहर निकली। पता नहीं क्यों पर उनके दर्द का एहसास मैं भी महसूस कर रही थी।

केवल स्वार्थ पूर्ति हेतु, करते हैं ऐसी  घिनौनी हरकत,

चढ़ा देते मासूमों की बलि क्या बिक चुकी इंसानियत।

वहाँ से बाहर निकलकर मैं जंगल के एक बड़े अधिकारी से मिली। उन्हें वहांँ का सारा माजरा बताया। इस घटना के बारे में सुनकर वो आश्चर्यचकित हुए उन्हें इस बात की भनक तक नहीं थी। शायद पुलिस के साथ जंगल के कुछ छोटे अधिकारी भी इस कृत्य में शामिल थे।

जंगल अधिकारी ने वादा करते हुए कहा......कहा आप चिंता मत कीजिए, इस मामले की पूरी जांँच करवाई जाएगी।

 आप निश्चिंत होकर घर जा सकती हैं। इस गुनाह के गुनहगारों को सजा जरूर मिलेगी। अधिकारी की बातों से मन को बहुत तसल्ली हुई। 

करीब एक हफ्ते के बाद अधिकारी ने बताया कि इस गुनाह के पीछे जितने भी लोग थे, सब पकड़े जा चुके हैं।

और उसी रात वो कंकाल भी अचानक मेरे सामने आ गया इस बार उसने मुझे डराया नहीं बल्कि मेरा धन्यवाद करते हुए कहा..... आज आपकी वजह से ही हमें न्याय मिला है, मुक्ति मिली है। इतना कहकर वो कंकाल वहाँ से गायब हो गया। 

अपने दोस्त की शादी में तो नहीं जा सकी, पर इस बात की खुशी है कि मैं उन गुनहगारों को सजा दिलवाने का एक माध्यम बन सकी जिन्होंने न जाने कितने मासूमों की निर्ममता से हत्या की थी। जिनमें से कुछ ऐसे थे जो अपने परिवार की रीड की हड्डी थी जिनके बिना उनका परिवार बिखर गया था। 

मैं जिस हद तक भी कर पाऊंँगी उन परिवारों की मदद ज़रूर करूंँगी। और हो सके तो सरकार से मदद दिलवाने हेतु भी जरूर कोशिश करूंँगी। शायद मेरी छोटी सी कोशिश से उनके परिवार के चेहरों पर थोड़ी मुस्कुरा ना सके। 

कुछ वर्षों के पश्चात......

आज उस घटना को पाँच वर्ष बीत चुके हैं। ज़िंदगी अपने सफ़र पर आगे तो बढ़ रही है पर उस बारिश रात की वो दिल दहला देने वाली बात आज भी आंँखों के सामने तस्वीर बनकर मौजूद रहती है। नरसंहार का वो दृश्य आज भी मेरी आत्मा, मेरी रूह को झकझोर देता है।

उस नरसंहार के बली चढ़ चुके सभी परिवारों को सरकार से मदद तो मिल चुकी थी। किंतु परिवार में उस सदस्य की जो कमी थी वो तो कभी पूरी नहीं हो सकती।

पता नहीं क्यों कुछ इंसान इंसानियत को करते हैं शर्मसार,

ऐसी घिनौनी हरकत करने वाले कड़ी सजा के हैं हकदार।


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