बालिका मेधा 1.11
बालिका मेधा 1.11
अब मेरे स्कूल ओपन हुए थे। अब मैं कक्षा 7 में आ गई थी। मम्मी से कभी कभी भिन्न भिन्न विषय (Topic) पर मार्गदर्शन (Guidance) लेते, स्कूल जाते-आते और घर में पढ़ते-लिखते समय व्यतीत हो रहा था।
तब एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसा देश में चर्चा का विषय हुआ था। 17 दिस. 2012 सोमवार का दिन था। पिछला दिन छुट्टी होने से मैं देर से सोई थी और उस दिन सोकर उठने में लेट हो गई थी। फ्रेश होकर यूनिफार्म पहनकर तैयार होने के बाद मैं नाश्ते के लिए डाइनिंग टेबल पर आई थी। मुझे, और दिनों की तरह आज मम्मी, पापा वहाँ नहीं मिले थे। मैं उन्हें खोजते हुए उनके बेडरूम में गई थी। मैंने वहाँ देखा कि वे लिहाफ ओढ़े हुए सिरहाने से टिक कर बैठे टीवी पर समाचार देख रहे थे। उनके मुख पर विषाद (Nostalgia-नॉस्टैल्ज) देखकर मैं भी समाचार सुनने लगी थी। उसमें सनसनीखेज वारदात (Sensational crime) बताई जा रही थी। यह देश की राजधानी की पिछली रात की दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। मैं थोड़ा ही सुन समझ पाई थी। फिर मम्मी ने मुझे साथ लाकर नाश्ता - जूस दिया था।
बाद में मैं स्कूल आ गई थी। स्कूल के बड़े विद्यार्थी आंदोलित थे। सबको आशा थी कि निर्भया मौत से बच सकेगी। 29 दिसंबर को वह मौत से संघर्ष में हार गई थी। मैं और भी कई बच्चों की तरह रो पड़ी थी। घर में भी मैं डरी हुई थी। मम्मी-पापा ने मुझे समझा कर मेरा डिग रहा साहस बढ़ाया था। फिर भी मैं 1 जनवरी 2013 को अपने तेरहवें जन्मदिन को सेलिब्रेट करने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाई थी।
मुझे खुश देखने के लिए मम्मी पापा ने उस दिन रात्रि डिनर प्लान किया था। मुझ पर निर्भया के साथ हुए कांड का सदमा इस कदर हावी था कि मैं डिनर भी ठीक तरह से नहीं कर पाई थी। मैं मम्मी से बार बार देर नहीं करके जल्दी घर लौटने को कहते रही थी।
समय तो बड़े से बड़े दर्द का स्मरण भुला देता है। मेरे साथ भी यही हुआ था। धीरे धीरे में सदमे से उबर रही थी। सामने कक्षा 7 की परीक्षा आ गई थी। मैं उसकी तैयारी के लिए पढ़ने में व्यस्त हो गई थी।
परीक्षा दे चुकी तब मम्मी से बात करने के लिए, मेरे पास निर्भया प्रकरण को लेकर कई विचार एवं प्रश्न थे। मेरे पास कई तर्क थे जो मैं मम्मी से करना चाहती थी। पापा, दादा जी के अस्वस्थ होने के कारण उनसे मिलने गाँव गए थे। तब एक अवकाश वाले दिन मैं मम्मी से चर्चा कर रही थी। मैंने यह पूछते हुए उनसे बात प्रारंभ की -
मम्मी, निर्भया प्रकरण के बाद से क्या आप घबराई नहीं रहतीं हैं ?
मम्मा ने पूछे गए इस प्रश्न पर, मेरे मुख को करुण भाव से निहारा था। कदाचित वे सोच रहीं थीं कि इस प्रकरण को 3 महीने से अधिक हो गए हैं और मेरे मन में इसका भय अब तक बना हुआ है। मम्मा ने कहा -
मेधा घबराई हुई तुम रहती हो यह तुम्हारे पूछने से मुझे लग रहा है। मुझमें तो इस केस का स्मरण क्षोभ उत्पन्न करता है।
मैंने कहा - आप सही कह रही हैं। मुझे तो जब जब यह याद आता है, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अत्यधिक दुःख और भय की स्थिति में मेरा ध्यान पढ़ने में नहीं लग पाता है। और यदि सोते हुए इसका ध्यान आ जाए तो नींद आँखों से दूर चली जाती है। फिर घंटों बिस्तर पर पड़े हुए, मेरे मन में न जाने क्या क्या भयभीत करने वाले विचार आते रहते हैं।
मम्मा ने व्यथित होते हुए कहा - यही तो ऐसे प्रकरण की विकरालता है, मेधा। यह विडंबना भी है कि हमारे देश में, किसी लड़की या युवती के साथ ऐसा करने वाले लोग अपने ऐसे किए के दुष्प्रभाव के बारे में सोच नहीं पाते हैं। वास्तव में ऐसा हादसा, हजार में से किसी एक दुर्भाग्यशाली युवती के साथ होता है मगर उसके कारण बाकी 999 युवतियाँ/ किशोरियाँ हमेशा घबराई रहती हैं। इस कारण जैसी मुश्किल तुम्हें होती है वैसी ही मुश्किल में रहते हुए इन 999 लड़कियों के ध्यान रचनात्मक प्रयासों एवं कार्यों में नहीं लग पाता है। भयभीत होने से उनका अनिद्रा में रहकर बिस्तर में पड़े पड़े बहुत समय व्यर्थ होता है। वास्तव में लड़कियों का ऐसा व्यर्थ होता समय हमारे देश के विकास में बाधक होता है।
मेरे दिमाग में मम्मा की बड़ी बातें अधिक नहीं घुस पाईं थीं। मैंने पूर्व से सोचा हुआ अन्य प्रश्न उनसे पूछ लिया - मम्मा, क्या ऐसे प्रकरण लड़कियों के छोटे वस्त्रों के कारण होते हैं ?
मम्मी ने सोचते हुए उत्तर दिया -
नहीं मेधा, वस्त्रों का बहाना करके पुरुष का प्रयास, अपने कृत्य का दोषारोपण पीड़िता पर कर देने का होता है। यह आवश्यक तो है कि हमें विवेक रहे कि कौनसे वस्त्र हमें कब और कहाँ पहनने/नहीं पहनने चाहिए। फिर भी स्त्री परिधान, पुरुष तय करें यह उचित नहीं है। वास्तव में पुरुषों को तय यह करना चाहिए कि उनके सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्य क्या हैं। उनके किन कर्तव्य पालन से हमारा समाज और राष्ट्र अच्छा बनता है। पता है ऐसे प्रकरण से व्याप्त होते भय के कारण, ऐसा करने वाले अधम (Vile) लोगों के खुद की परिवार की लड़कियाँ और महिलाएं भी अन्य पुरुष से डरीं रहतीं हैं।
मुझे लग रहा था कि मम्मी की बातें समझने में कठिन हो रहीं थीं। मुझे अब तक मेरी बात का सीधा उत्तर नहीं मिला था। मैं विचार में ही मग्न थी कि मम्मी ने कहा - मेधा, आगे की बात करने के पहले क्या मैं अपने लिए चाय बना लूँ ?
मैंने कहा - मम्मी, चाय की जगह लस्सी बना लीजिए तो मैं भी साथ दे दूँगी, आपका।
मम्मी ने इसे सुना फिर मुस्कुराते हुए, ‘श्योर’ कहा फिर किचन में चलीं गईं थीं। मुझे मम्मी की कही जो बात समझ नहीं आ रहीं थीं। उसे याद करते हुए मैंने एक कॉपी में लिखना आरंभ कर दिया था। ताकि मैं बाद में उनका चिंतन मनन कर समझ सकूँ।
कुछ देर में ही मम्मी, अपने लिए कप में चाय एवं मेरे लिए लस्सी का गिलास, ट्रे में लेकर वापस आ गईं थीं। उन्होंने मुझे लिखते हुए देखा तो पूछा - मेधा, तुम क्या लिख रही हो ?
(क्रमशः)