Ramashankar Roy

Tragedy

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Ramashankar Roy

Tragedy

अरिसुत

अरिसुत

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आज लगभग एक साल बीत गया साधुजी को गुजरे हुए । लेकिन उनकी चर्चा के बिना गांव की कोई भी चर्चा अधूरी रहती थी और आज भी अधूरी रहती है

बड़ी नहर के किनारे बसा एक समृद्ध गाँव उजियारपुर के सबसे बड़े किसान थे साधु जी । उनका सौ बीघा का जोत था । वो आधिकारिक जमींदार तो नही थे लेकिन गाँव के जरूरतमंदों के लिए मसीहा से कम नही थे । गंभीर व्यक्तित्व के धनी और मिलनसार व्यक्ति थे । वैसे वो पढ़ाई के लिए केवल पांचवी क्लास तक ही स्कूल गए थे लेकिन जीवन मे बहुत बड़ी बड़ी उपलब्धी हासिल की थी। उनकी पढ़ाई नही कर पाने का और साधु नाम पड़ने की भी दिलचस्प कहानी है । मरते-जीते पाँच बेटियों के बाद नाउम्मीद हो चुकी माँ के लाडले पुत्र थे । उनका वास्तविक नाम कुलदीप शर्मा था । रइशी ठाट थी और घर मे मांसाहारी भोजन का खूब प्रचलन था लेकिन उनके पिताजी के लाख कोशिश के बावजूद उन्होंने मीट मच्छली को हाथ नही लगाया। अतः उनका नाम साधु पड़ गया । एक रोज स्कूल में मास्टर जी ने किसी बात पर उनकी पिटाई कर दी और घर पर आकर उन्होंने अपनी दादी से कह दिया कि अब पढ़ने नही जाऊंगा और उसके बाद स्कूल नही गए । वैसे भी उस समय गाँव मे पढ़ाई लिखाई का उतना महत्व नही था । उनकी दादी के लिए तो साधु जिसमे खुश बस वही काम सही चाहे दुनिया के नजर में वो सही हो या गलत हो । साधुजी परिवार के आँख की पुतली थे विशेषकर दादी के ।

हमारे गाँव मे साधुजी के नाम पहली बार करने का कई कीर्तिमान थे । ट्रैक्टर खरीदने वाले पहले किसान थे । बडकी मील लगाने वाले इलाके के पहले आदमी थे । इससे मेरे गाँव का नाम दूर तक प्रसिद्ध हो गया क्योकि जिसको भी तेल निकलवाना हो, चिवड़ा या धान कुटवना हो उसको मेरे गाँव मे आना पड़ता था । आटा चकी तो लगभग हर गांव में हो गया था । दस कोस के दायरे में यदि कोइ कहता कि बडकी मील पर जा रहा हूँ इसका मतलब की वो उजियार के साधुजी के यहाँ जा रहा है क्योंकि वह "बडकी मील" के नाम से फेमस हो गया था। जब उन्होंने 2x2 पुश बैक वीडियो कोच बस खरीदकर रोड पर दौडाया तो मेरे गाँव का सर गर्व से ऊंचा हो गया । असी के दशक मे ग्रामीण परिवेश मे वीडियो कोच का मालिक होना क्या अहमियत रखता था आज की पीढ़ी कल्पना भी नही कर सकती है। मेरे गाँव के लोग इस बात पर गौरव महसूस करते थे की "उजियार कोच" मेरे गाँव का है ।

बिहार सरकार ने जब सीलिंग एक्ट लागू किया तो यह अफवाह फैली कि साधुजी की जमीन तो अब सरकार ले लेगी क्योंकि प्रति व्यक्ति अधिकतम बीस बीघा जमीन रह सकता है । साधुजी को वकील ने राय दी कि इससे बचने का एक ही उपाय है कि जमीन को परिवार के सदस्यों मे कागजी रूप से बांट दिया जाए ।

उस समय साधुजी के परिवार मे चार बेटा और चार बेटी मिलाकर दस सदस्य थे ।साधु जी के माता पिता और दादी स्वर्गवासी हो चुके थे । उन्होंने सारी जमीन अपने चारों बेटों और पत्नी के नाम सोलह - सोलह बीघा कर दिया और अपने नाम बीस बीघा रखा । उनकी दो बेटियाँ और दो बेटे अभी नाबालिग थे और उनकी शादी भी नही हुईं थी ।नियम से बेटियों का भी हिस्सा देना पड़ता । इसलिए उन्होंने कोर्ट में यह एफिडेविट कर दिया कि उनको कोई बेटी नही है । चूंकि यह सब केवल कागज पर हो रहा था इसलिए किसी को कोई आपत्ति नही थी फिर भी समस्या का बिजारोपण हो गया था ।

साधुजी का पुत्रमोह दशरथ की तरह प्रगाढ़ था , स्वयम भले लगभग अनपढ़ थे लेकिन सभी बेटों को कॉलेज का मुँह दिखा दिया । बीचवाले को छोड़कर सबको मास्टर डिग्री दिला दी । एक बेटे को तो डोनेशन से बैंगलोर के प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियर बना दिया । दोनो छोटी बहू को भी शादी के बाद भी पोस्ट ग्रेजुएट बना दिया । लेकिन उनका दुर्भगय, किसी को भी सरकारी नौकरी नही मिली और सब बेरोजगार रह गए क्योंकि छोटी मोटी नौकरी करना शान के खिलाफ लगता था ।चारो बेटों और चारों के दो बेटा और दो बेटी से भरे पूरे परिवार का भरण पोषण का बोझ भी खेती पर ही आ गया।

बस का कारोबार सफल नही रहा लेकिन परिवार का रहन सहन का स्तर और खर्च बढ़कर ऊपर चला गया ।धीरे धीरे परिवार मे आमदनी और खर्च का संतुलन बिगड़ गया । सबके खर्चे शाही लेकिन आमदनी नदारद । परिवार के खर्च की स्थिति कमलनाल की तरह हो गयी जो पानी बढ़ने के साथ बढ़ तो जाता है लेकिन पानी उतारने पर छोटा नही हो पाता और सुख जाता है ।

बस के कारोबार मे घटा हुआ हुआ और बस बिक गयी । लेकिन बस मालिक के रुतबे को संभालने मे मिल भी बिक गया , ट्रैक्टर भी बेचना पड़ा क्योंकि कोई भी गाँव मे रहकर खेती करने को तैयार नहीं । केवल साधुजी का बेटा बीरेंद्र साधुजी के साथ खेती मे हाथ बटाता था क्योंकि उसको हमेशा से गांव और खेती पसंद थी इसीलिए वह ग्रेजुएट भी नहीं हुआ ।

समस्या की शुरुआत तब हुई जब परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने को साधुजी की तरह सौ बीघा का ही काश्तकार समझता था जबकि उनकी हैसियत शुद्ध चवनि भर की भी नही थी और उनकी औलाद की औकात तो छेदाम भर की बच गयी लेकिन तेवर ढीला नही हुआ किसी कोने से ।

आर्थिक तंगी के आने से पहले साधुजी की दो बेटियों की शादी हो चुकी थी और उनके दोनो दामाद भी किसान ही थे और उनका कहना था की उनकी बेटी की शादी उस लड़के से करेंगे जिसको काम से कम बीस बीघा हिस्सा हो ।धीरे धीरे उनके बेटों की बेटियाँ भी शादी के दहलीज पर पहुंच चुकीं थी। बड़े बेटे की बडी बेटी तो साधुजी की छोटी बेटी से भी बड़ी थी । इसी बीच साधुजी की धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया। बहुवों पर अंदरूनी अंकुश के समाप्त होते ही घर मे अराजकता का वातावरण तैयार हो गया । घर की सामूहिक जरूरत की अनदेखी और सभी बहु और बेटे व्यक्तिगत जरूरत को अपने दृष्टिकोण से परिभाषित करने लगे । चारों बेटों ने मिलकर साधुजी को घर चला पाने मे असमर्थ घोषित कर दिया । अपने हाथ मे कमान लेते ही सामूहिक जरूरत के लिए माँ के हिस्से वाली जमीन धीर धीरे बिक गयी । व्यक्तिगत जरूरत के लिए बीचवाले बेटे ने अपने हिस्से का जमीन भी बेचना शुरू कर दिया ।

रुतबा वाले साधुजी बेबस लाचार की जिंदगी जीने लगे । अब उनकी परिवार मे कोई पूछ नही थी । जबकि खानदान का समाज मे नाम उनके चलते ही बना था । पुराना घर रखरखाव के अभाव में जर्जर हो गया क्योंकि साझी का काम सेंगरा पर चलता है । फिर चारो बेटो ने अपने अपने हैसियत के हिसाब से पुराने मकान के हाते मे चार कोने मे चार घरौंदा बना लिया है।

साधुजी को खर्ची - कलेवा के लिए चार बीघा जमीन छोडा गया और यह तय हुआ कि वो जिस बेटे में रहेंगे वही चार बीघे की पैदावार रखेगा या वो सबके यहाँ तीन तीन महीने रहेंगे और यह खेत भी बाँट दिया जाएगा । साधुजी ने अपने चार अनमोल रत्नों की समझदारी और संकीर्ण सोच के कायल हो गए । उनको पहली बार खाली - खाली जेब होने का एहसास हुआ ।

उन्होंने इतना बड़ा बडा काम किया लेकिन कभी बैंक में अपने नाम पर खाता नहीं खोला । जबतक पत्नी जिंदा थी उसने अर्थभार संभाला और फिर बड़े बेटे के नाम से कारोबार किया और अपने बेटों को ही अपना बैंक बैलेंस समझते रहे । एक पुत्र प्रेमी पिता के लिए यह स्वभाविक भी है जिसने बेटों के जायदाद में खोंट ना पडने के लिए अपनी चार बेटियों का कानूनी अस्तित्व ही खत्म कर दिया था । सबसे छोटी बेटी की शादी मे उनको अपनी स्थिति का भान हुआ था जब उसको दहेज देकर ढ़ंग की शादी करने की बात थी । खुलकर किसी ने नही कहा लेकिन सभी बहुवों की हार्दिक इच्छा थी कम से कम मे निपट जाए , किसी तरह यह बला टल जाए क्योंकि पत्नी के गुजरने के बाद साधुजी के सभी पैसे की देखरेख वही करती थी और कुँआरी ननद के सामने हाथ फैलाना भाभियों को अच्छा नही लगता था । साधुजी ने यह काम अपनी बेटी को इसलिए दिया था ताकि माँ के जाने के बाद अपनी भाभियों के बीच उपेक्षित महसूस नहीं करे ।लेकिन भाभियों ने इसे अपनी उपेक्षा के रुप मे लिया ।

खैर वह बीते दिनों की बात बन चुकी थी । साधुजी अब एक आम मजबूर बुजुर्ग पिता बन चुके थे जिसको कोई भी पुत्र चार बिघा के लिए आश्रय देना नही चाहता था । लेकिन साधुजी को बीरेंद्र के साथ रहना ज्यादा मुनासिब लगा । इसका मुख्य कारण था उसका परिवार एकदम गाँव से जुड़ा था और उनके साथ रहने की उनको आदत और लगाव भी था । चारों में इसकी माली हालत कमजोर है अतः उसको जितना दिन जिंदा रहूंगा एक सहारा रहेगा । बाकी के बेटों ने यह सोचकर राहत की साँस ली की चलो एक बीघा में बला टली । देखते देखते साधुजी को वक्त ने बाबूजी से बला बना दिया ।

साधुजी एक बहुत ही मेहनतकश किसान थे और अब भी स्वस्थ थे ।उनके अनुभव का लोहा पूरा गाँव मानता था । बीरेन्द्र के परिवार ने उनको पिताजी या दादा जी समझकर रखना नही स्वीकार किया । उनलोगों ने हिसाब लगाया कि मुफ्त का एक मजदूर मिल गया और साथ में तीन बीघा जमीन भी । दो रोटी खाकर एक कोने मे पड़ा रहेगा । इस सोच का यह परिणाम हुआ की धीरे धीरे उनका आंख और कान खराब हो गया लेकिन किसी ने उसका इलाज कराना जरूरी नहीं समझा । एकबार बड़े बेटे के बड़े बेटे ने मेहरबानी किया कि मुफ्त नेत्र चिकित्सा मेला में उनके मोतियाबिंद का ऑपेरशन करा दिया लेकिन चश्मा खरीदने की आवश्यकता किसी को महसूस नही हुआ। बुढापा अपने आप मे एक बीमारी है और जब वह शिकंजा कसती है तो एक -एक अंग जबाब देने लगते हैं । वक्त के साथ उनकी स्थिति बूढ़े बंधुआ मजदूर से भी बदतर हो गयी । क्योंकि वो अपना दुख किसी को बता भी सकता है लेकिन इनके पास वह भी विकल्प उपलब्ध नही था । उनको खैनी खाने की आदत थी । उनके जमाने मे यह किलो के हिसाब से घर मे आता था । गाँव मे सबको मालूम था सबका स्टॉक खत्म हो सकता है लेकिन साधुजी का नही होगा । आज उसी साधुजी पर यह प्रतिबंध लग गया कि भरी चुनौटी उनको देखने को नही मिलता है । केवल दो टाइम नाप जोखकर खैनी मिलता है । उनकी दुर्दशा का ज्ञान बाकी बेटो को भी था लेकिन कोई मुँह नही खोलता था कि यदि उसने रखने से मना कर दिया तो यह बोझ हमारे सर पर गिरेगा । बेटियों को उनके कष्ट का एहसास था लेकिन वो कुछ कर नही सकती थी क्योंकि वो अपने घर परिवार में व्यस्त थीं और यहाँ आने पर भाई को अतिरिक्त बोझ लगने लगती थी ।

रमेश जी इसी गाँव के हैं और PWD से कुछ साल पहले सुप्रीटेंडिंग इंजीनियर के पोस्ट से रिटायर हुए हैं । अब तो वो बहुत कम गाँव मे आते हैं लेकिन जब भी आते हैं साधुजी को मिलने और उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं । उनका परिवार गरीब था और उनका सिलेक्शन इंजीनियरिंग में हो गया था । परिवार के पास एड्मिसन और पढ़ाई के लिए पैसा नही था , उस समय साधुजी ने उनकी मदद की थी । उन्होंने सब पैसा लौटा दिया लेकिन आज भी रमेश जी एहसान मानते है कि साधुजी के कारण ही वो इंजीनियर बन पाए।

गाँव मे तो कोई भी बात छिपती नही है और यदि वह किसी बड़े घर से जुड़ी हो तो उसमें कुछ ज्यादा ही मिर्च मसाला लगाकर चटखारे लिए जाते हैं ।

रमेश जी इस बार भी साधुजी को मिलने आए । पवलगी के बाद उनका कुशलक्षेम पूछा ।अब वो लोगों को चेहरे से कम और आवाज से ज्यादा पहचानते थे । कान भी कमजोर हो गया है अतः उनसे जोर से बात करनी पड़ती है । अभी चल फिर रहे थे इसलिए रमेश जी के साथ खलिहान तक आ गए । यहाँ एकांत देख रमेश जी ने यह जानने के उद्देश्य से पूछा की कोई बिशेष कष्ट हो तो बताइए वह मदद करने की कोशिश करेंगे । साधुजी बड़े गंभीर व्यक्तित्व वाले और गमखोर व्यक्ति हैं आज तक गांव के लोग केवल उनके दुःख का अनुमान लगाते हैं । उनके मुंह से कभी किसी बेटे की शिकायत सुनने को नही मिला । बेटा लोग आपस मे एक दूसरा को नीचा दिखाने के चक्कर मे कुछ भले कह दें वो दूसरी बात है।

साधुजी ने अपना दुख तो नही बताया लेकिन एक कहानी सुनाया जो सबकुछ कह गया ।

साधुजी - किसी संत महात्मा ने कहा था कि पुत्र/पुत्री के रूप मे आपको वही लोग मिलते हैं जिसका पिछले जन्म में आपसे कुछ लेना देना बाकी राह गया हो । इस आधार पर पुत्र के चार प्रकार होते हैं - अरिसुत ,ऋणसुत, सेवकसुत और उदासिनसुत ।

अरिसुत वो होता है जिसको पिछले जन्म मे आपने अपना दुश्मन समझकर कष्ट दिया हो लेकिन वह बदला नही ले पाया हो । इस जन्म में आपसे वह हिसाब बराबर करेगा।

ऋणसुत वह होता है जिसका आपने पिछले जन्म में उधर लिया और चुकाया नही । इस जन्म में वो आपकी संतान बनकर उतना नुकसान पहुंचाकर आपकी जिंदगी से निकल जाएगा ।

सेवकसुत वह होता है जिसकी आपने पिछले जन्म में निःस्वार्थ सेवा की हो । उसके दुख को दूर करने में मदद की हो । वह पिछले जन्म का जानवर पंछी कुछ भी हो सकता है।

उदासिनसुत वो होता है जिसकी आपने पिछले जन्म में उपेक्षा या अनदेखी की हो ।इस जन्म मे वह भी आपके प्रति वही भाव रखेगा ।

इसका मतलब यह हुआ कि ररिश्ते की नज़दीकियाँ इससे तय होती है कि पिछले जन्म का उस आत्मा से आपका कितना हिसाब शेष है । अतः सुख - दुःख, लाभ - हानि सब पिछले जन्म का परालब्ध है ।

इस बातचीत को दो साल बीत गए । इसबार रमेश जी गाँव आए तो कोरोना काल का लॉक डाउन लग गया और उनको लंबे समय तक गाँव मे रहना पड़ा । हमेशा की तरह जब वो साधुजी से मिलने के लिए जाने लगे तो उनके पड़ोसी ने बताया कि साधुजी तो गुजर गए । लेकिन बेचारे का अंतिम समय बडा कष्टपूर्ण रहा । उनको कुछ भी बीमारी होता था तो लोग दावा नही देते थे तुरंत तुलसी और गंगाजल उनके सिरहाने रख देते थे । यहाँ तक कि उनके पीठ के नीचे से विछावन भी हटा लेते थे कि यदि इसी पर बूढा मर गया तो इसे फेंकना पड़ेगा । कुछ भी हो तो "मरण बीमारी" ही घोषित कर देते थे सब। बेचारे एडी रगड़ कर मर गए लेकिन उनको अस्पताल का मुंह नही दिखाया उनके परिवार वालों ने । भगवान ऐसी संतान से अच्छा निःसंतान रखे । मारने के बाद दिखावे के लिए दाह संस्कार वाराणसी में किया गया ब्रह्मभोज मे लाखों रुपया खर्च करके चारो बेटों और उनके बेटों ने अपना हैसियत दिखाया ।

रमेश जी सोचने लगे यदि साधुजी की कहानी मे सच्चाई है तो हे भगवान मुझे अगले जन्म मे उनका सेवकसुत बनाना क्योकि इस जन्म में उन्होने अरिसुत का भोग भोग लिया ।

शंकर केहरी



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