Poonam Singh

Inspirational Others

3.4  

Poonam Singh

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" अर्धांगिनी"

" अर्धांगिनी"

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 जतिन ये देखो ! दृष्टि ने जतिन की ओर एक लिफाफा बढ़ाते हुए कहा।

"ये क्या हैं ?" जतिन ने लिफाफा खोलते हुए कहा।

"ये तो तुम्हारी नौकरी का अपॉइंटमेंट पत्र हैं।"

"हाँ जतिन! अब मैंने भी नौकरी ज्वाइन कर ली है।

" नौकरी ! तुमने कब ज्वाइन किया? लेकिन क्यों " जतिन ने आश्चर्य भरे शब्दों में पूछा। 

"हाल ही में । तुम्हें ही तो शिकायत रहती थी न कि मैं दिन भर घर में पड़ी रहती हूँ। कुछ भी काम नहीं करती। और फिर मेरी डिग्री भी यूँ ही बर्बाद रही थी।" ये सुनकर जतिन कुछ कह ना सका।

 " वैसे भी तुमने अभी ऑफिस से एक महीने की छुट्टी ली है। इसी बहाने थोड़ा घर संभालने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी।"

"ठीक है, जैसा तुम ठीक समझो।" पति ने अनमने ढंग से हामी भरते हुए कहा।

 "अच्छा अब मैं जब तक लंच तैयार करती हूँ तब तक तुम बेटे को स्कूल के लिए तैयार कर दो। " दृष्टि ने नाश्ते की प्लेट समेटते हुए कहा। 

 "ठीक है !" पति ने अपनी नज़रे अखबार पर जमाए हुए कहा ।

थोड़ी देर में कमरे से जतिन कि आवाज़ आई,- "अरे बेटे की टाई कहाँ रखी है ? और इसका आई कार्ड भी नहीं मिल रहा हैं ।"

 "ध्यान से देखिए वहीं रखी हैं अलमारी में ।"

जतिन ने एक टाई और आई कार्ड के लिए पुरी अलमारी उड़ेल दी।

"मैंने बेटे को स्कूल के लिए तैयार कर दिया है।" जतिन ने मुस्कुराते हुए ऐसे कहा जैसे कोई फतह हासिल कर ली हो। किन्तु उसे क्या मालूम था कि ये फतह अब उसे रोज ही हासिल करनी पड़ेगी।

 "अच्छा अब मैं भी ऑफिस के लिये निकल रही हूँ । बेटा जब दोपहर को घर आये तो आप दोनों प्लेट में लंच निकालकर खा लीजिएगा। "

दोपहर में दृस्टि के फोन पर पति का फोन आया। "पानी के बिल का नोटिफिकेशन आया है, तुमने बिल जमा नहीं किया था क्या? खैर.. अच्छा यह बताओ बिल कहाँ है? "

 "वही कंप्यूटर टेबल की दराज में रखी है।"

 "अच्छा ठीक है। और हाँ सुनो ! शाम को बेटे को नाश्ते में क्या देती हो ? "

 "जो उसकी पसंद का हो बना कर दे दीजिएगा।"

"बेटा मेरी दवाइयाँ खत्म हो चुकी है। बाजार जाना तो लेते आना।" बिस्तर पर पड़ी बीमार माँ ने आवाज़ लगाते हुए कहा। 

"ठीक हैं माँ। "

"बहु को तो बताना भी नहीं पड़ता था। खत्म होने से पहले ही ले आती थीं। आजकल मेरे घुटनों के दर्द भी बढ़ गया हैं । बहु कम से कम दिन भर में तीन बार मालिश कर ही देती थी । पर अब ... ।" मां ने बिस्तर पर से कुहरते हुए कहा।

" कोई नहीं माँ मैं ही कोशिश करता हूँ। "

 कुछ ही दिन बीते जतिन घर संभालते संभालते परेशान हो गया था। कभी बेटे की जिद्द पर उसके साथ खेलना, कभी कहानी सुनाना, तो कभी उसके पसंद के नाश्ते की फरमाइश पूरी करना। होमवर्क करवाना। इधर कभी पानी का बिल, बिजली का बिल, गैस का बिल, सब संभालते सुबह से शाम कब हो जाती पता ही नही चलता। अपने ऑफिस और घर के काम के बीच पीस कर रह गया था। समय निकालकर अपने लिए कुछ करता या फिर शारीरिक या मानसिक रूप से ही रेस्ट लेने की सोचता तो कभी हो नहीं पाता। कभी दोस्तों के तो कभी रिश्तेदारों के फोन से उसके मोबाइल की घंटी दिन भर गूँजती रहती।

" पापा - पापा कोई कहानी सुनाओ ना प्लीज .. । "

"अभी दोपहर कौन कहानी सुनता है। सो जाओ कहानी रात को मम्मी से सुन लेना।"

" नहीं पापा मम्मी तो दिन भी कई बार सुनाती थी। आपको सुनाना ही पड़ेगा।" 

" अरे यार ये मैं कहाँ फंस गया।" वो मन ही मन बुदबुदाया।

"अच्छा ठीक है आओ मेरे पास।"

तभी डोर बेल बजी ।" क्या बात है बोलो ।"

"साहब नीचे आकर अपनी पसंद की सब्ज़ी ले लीजिए।"

"तुम्हें जो ठीक लगे दे जाओ। "

"नहीं साहब जी! मेम साब तो खुद ही अपनी पसंद की भाजी लेती थी। "

"अरे कोई बात नहीं! तुझे तो पता होगा ना तेरी मेमसाब कैसी सब्ज़ियाँ लेती हैं तू दे जा।" जतिन ने खिन्नाते हुए कहा।

"पापा पीने का पानी आ गया भर लो जल्दी ही बंद हो जाता हैं। मम्मी रोज ताज़ा पानी भरती है पीने का।"

"अच्छा मेरी जान अभी चलो।"

'अरे ये क्या ! ये सिंक की पाइप निकल गई और अब ये फिट भी नहीं हों रहा। उफ्फ यार दृष्टि तुम इतना सब कुछ अकेले ही कैसे संभालती लेती थी! और मुझे घर की परेशानियों की कभी खबर भी नहीं होने देती थी।' वो मन ही मन बुदबुदाया ।

 हद तो तब हो गईं जब जतिन ने एक दिन नाक भौंहें सिकोड़ते हुए गुस्से में दृष्टि को कहा ," टॉयलेट कितना गंदा हो गया हैं साफ नहीं करती क्या?"

"...मुझे एक दिन तो छुट्टी मिलती हैं । क्या क्या करूँ। तुम जो पूरे हफ्ते सामान बिखेर कर रखते हो उसे ही ठीक करने में कितना समय निकल जाता है फिर हफ्तों भर के कपड़े वाश के लिए डालती हूँ। जो समय बचता हैं घर की हर जरूरत की वस्तुएँ रसोई से लेकर परिवार की जरूरतें जोहने में चली जाती है । तुम्हीं बताओ क्या क्या संभालूँ।

और टॉयलेट साफ करना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। तुम जब स्नान के लिए जाना, तभी थोड़ा ब्रश मार लेना ना।" दृष्टि ने मधुर मुस्कान के साथ कहा। सुनते ही जतिन को तो जैसे दिन में तारे दिखने लगे।

पर वो कर भी क्या सकता था। मन ही मन सोचा, दृष्टि इतना सब कुछ कैसे कर लेती है वो भी बिना किसी शिकवा शिकायत के । आज तक उसने घर की समस्याओं से मुझे कभी वाकिफ भी नहीं होने दिया। घर से लेकर बाहर तक सब कुछ अकेले संभाल लेना वो भी मुख पर बिना किसी शिकन के। इतना सब निबटाने के पश्चात जब मैं आफिस से वापस आता हूँ तब हँसते हुए मेरा स्वागत करती है। जैसे कि मैंने कोई बड़ी फतह हासिल कर ली हो। कमाल हैं! - सैलयूट टू यू अर्धांगिनी।' आज उसे अपनी पत्नी पर गर्व हो रहा था।

 उसे भूत में की गई अपनी गलतियों का एहसास हो रहा था। अनेकों बार उसे उलाहना देना , नीचा दिखाना, डाटना, ताने मारना की एक घर ही तो सम्भलना है, कौन सी बड़ी बात हैं थोड़ा काम सम्पन्न करो और दिन भर चादर तान कर सोओ। मुझे देखो सुबह से शाम तक कितनी मेहनत करनी पड़ती हैं। अगर मैं ना रहूँ तो ना जाने क्या होगा इस घर का। कितना अहंकार था मुझे अपनी नौकरी का । इस अहंकार में यह भी भूल गया था की दृष्टि भी एक उच्च स्तरीय नौकरी की डिग्री होल्डर थी बावजूद इसके भी उसने स्वयं पर खड़े होने के लिए कभी आवाज नहीं उठाई। घर को ही प्राथमिकता दी। मन को मारकर घर के हर एक सदस्य के मुताबिक चलना कितनी तपस्या का काम है। उसने तो कभी भी आज तक घर की या अपनी समस्या से वाकिफ भी नहीं होने दिया। तुम धन्य हो दृष्टि। अगर दृष्टि जैसी पत्नी ना हों तो पूरा परिवार बिखर जाएगा। मेरे फिर धन अर्जन का मोल ही क्या रह जाएगा। घर की नींव पति पत्नी की आपसी सामंजस्य प्रेम और वर्षों के त्याग और बलिदान के आधार पर एक एक ईंट रख विश्वास की इमारत खड़ी होती है। मुझे माफ कर दो दृष्टि। अपने अहंकार में तुम्हें समझ नहीं पाया अब मेरी आँखें खुल चुकी है। '

 'आज अगर मैं चैन से नौकरी कर रहा हूँ तो इसके पीछे मेरे परिवार को संभालने वाली तुम हो दृष्टि ।'

 एक शाम जब दोनों चाय पर बैठे थे तब जतिन ने दृष्टि का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा , "मुझे माफ कर दो दृष्टि! अपने अहंकार में तुम्हारे अहमियत को समझ नहीं पाया। मेरी आँखें खुल गई है। तुम फिर से हमारे घर को संभाल लो।" उसने प्रेम पूर्वक आग्रह भरे लहज़े में कहा।

दृष्टि ने सज़ल नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए अपना सर जतिन के कंधों पर रख दिया।

"ठीक है जतिन ! ...किन्तु अब जब मैंने नौकरी शुरू कर ही दी है फिर अब इसे छोड़ना मुनासिब नहीं । मैं नौकरी के साथ साथ घर भी संभाल लूँगी । "

"पर वो कैसे ? "

"मैंने वर्क फ्रॉम होम के लिए अर्जी दे दी है । उम्मीद है मंजूरी मिल जाएगी।" दृष्टि ने मुसकुराते हुए कहा। जतिन ने उसका हाथ अपनी हथेली में लेते हुए मजबूती से थाम लिया। 



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