अर्धांगिनी

अर्धांगिनी

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"धरा मेरे लिए चाय बना देना”, शेखर ने आवाज दी सुबह सुबह धरा को।

धरा रसोई में सबके लिए चाय ही बना रही थी साथ मे मोनू और मिनी के टिफ़िन की तैयारी भी कर रही थी।

"धरा धरा", लगातार आती शेखर की आवाज से झल्ला कर धरा बोली, "ला रही बाबा हूँ बाबा।"

कमरे में ले जाकर शेखर को चाय देती बोल पड़ी, “तुम रसोई में आ कर ले लिया करो चाय, मुझे सुबह से बहुत हड़बड़ी रहती है, बच्चों का टिफिन भी बनाना है, माँ-बाबूजी को भी चाय देनी रहती है”

उसके इतना कहते ही शेखर नाराज़गी भरे स्वर में बोला, "एक कप चाय ही मांगी तुमने सौ काम गिना दिए।”

अब सुबह से कौन बकझक करे वह चाय शेखर के हाथ मे पकड़ा वापिस हो गई ।

बच्चों का टिफ़िन बना वह खुद ही उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने जाती है। पहले बाबूजी चले जाते थे छोड़ने पर जब से ठंड बढ़ी, उनके घुटनों का दर्द बढ़ न जाये वह खुद ही जाती है। शेखर तो घर के इन सब कामो से हाथ ही खींच लेता है ।

घर आते ही शेखर की आवाज फिर गूँजने लगी, “धरा धरा

मेरे कपड़े निकाल दो और फटाफट नाश्ता बना दो मैं भी आॅफिस के लिए आज जल्दी निकलूंगा।"

माँजी कहती हैं, "रोज बेटा मैं मदद कर देती हूँ ।"

पर एक तो ठंड और ऊपर से उनकी उम्र का लिहाज कर वह मना ही कर देती है की, "मैं कर लूँगी सब काम, आप परेशान न हों ठंड में।" आज माँ देख रही थीं कि एक कप चाय भी बहु बैठकर आराम से नहीं पी पाती और उनका बेटा शेखर चकरघिन्नी की तरह उसे लगातार नचाये जा रहा है, हर चीज उसे हाथ मे चाहिए, गुस्से से उनका पारा चढ़ गया । वे शेखर के कमरे में गईं और चिल्ला कर बोली, “शेखर धरा भी इंसान है, तुझे अपने छोटे छोटे काम तो खुद कर लेने चाहिए, जबकि तुम देख रहे हो सुबह से वह कितने काम मे व्यस्त है की एक कप चाय भी उसने आराम से बैठ कर नही पी।"

"तो क्या हुआ मेरे आॅफिस जाने के बाद पी लेगी फिर से ।"

शेखर ने बेपरवाही से कहा । "उसे भी सुबह से काम करने के लिए एनर्जी चाहिए ठंड भी बढ़ गई है, बेटा तुझे उसका ख्याल रखना चाहिए पर तू तो उसे और भी परेशान करता है, वह कोई कठपुतली है क्या जिसे तू सुबह से यहाँ से वहाँ नचाता रहता है? अरे अर्धांगिनी है वह तेरी, उसके सुख-दुख का ख्याल तो रख तू ।"

"माँ आप जाओ आराम करो आपकी तबियत कई दिन से ठीक नही चल रही ।"

"बेटा मेरी तबियत ठीक नही रहती, धरा के काम का कोई सहयोगी नही, मुझे डर है कहीं वह ही बीमार ना हो जाये ।" माँ थोड़ा नाराज़ होते हुए बोली ।

"अच्छा बाबा ख्याल रखूंगा उसका, खुश हो अब ।" कहकर शेखर ने अपने कपड़े खुद आलमारी से निकाल पहने ।

धरा कमरे में आई तो वह तैयार हो चुका था, उसे देख मुस्कुराते हुए बोला, “नाश्ता "

"हाँ तैयार है, यहीं लाऊँ क्या "

"बिल्कुल नहीं, चलो वहीँ टेबल पर बैठ कर खाएंगे ।"

"हाँ भई और तुम भी बैठो साथ मे खाएंगे। फिर तुम अपना काम करती रहना, तुम्हे सबका ध्यान रखना है, इसीलिये नाश्ता बहुत जरूरी है तुम्हारे लिए और हाँ कल से मैं सुबह की चाय खुद आकर लूंगा और अपने सब काम भी खुद ही करूंगा ।"

"क्यो कुछ गलती हुई क्या मुझसे।" धरा ने कहा डरते हुए।

"नहीं धरा गलत मैं था अब तक, मुझे समझ आना चाहिए बच्चों के साथ अब तुम्हारी घर के प्रति भी जवाबदारी बढ़ गई है और इसमें मुझे तुम्हारा हाथ बटाना चाहिए। तुम आज तक बिना बोले सब करती रही, कभी मना भी नही किया और मैं इतना स्वार्थी हो गया कि केवल अपना सुख ही खोजता रहा पर अब नहीं, मुझे माफ़ कर दो ।"

"ऐसा मत कहो शेखर, माफी क्यो मांग रहे हो, हाँ साथ मिलकर काम करने से हमारी खुशियाँ और बढ़ जाएंगी। पत्नी हर चीज में पति का साथ ही खोजती है आखिर ये घर परिवार हमारा ही है और सबकी खुशियां भी हमसे ही।"

गिले-शिकवे गर्म चाय की चुस्कियों में विलीन हो चुके थे ।


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