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Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

4  

Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

अपराधबोध

अपराधबोध

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"पापा,बचा लो मुझे।बहुत दर्द हो रहा है पापा।"आई.सी.यू से लगातार सुगंधा की यही आवाज़ आ रही थी।जितनी देर होश में आती चिल्लाने लगती और कुछ समय बाद अचेतन में चली जाती।

रजनीश असहाय बैठा,उसकी तड़प सुन रहा था।जो आता दिलासा देकर चला जाता।उसकी चीख में पीड़ा थी,बेटी का दर्द समझते हुए भी लाचार था।


माँ ने हाथ पर हाथ रखकर कहा,"समझ सकती हूँ तेरी पीड़ा।एक लाचार पिता के रूप मे भी और....।"कह माँ पल्लू में मुँह छिपाए सुबकने लगी।


डॉ. जैसे ही उसे देख बाहर आते रजनीश दौड़कर पहुँच जाता।

"डॉ. साहब,क्या स्थिति है मेरी बेटी की।मैं मिलना चाहता हूँ उससे।क्या घाव बहुत गहरा है?"


"देखिए हम आपकी तकलीफ समझ सकते हैं।आप पढ़े-लिखे समझदार इंसान हैं।कल्पना करके देखिए एसिड कहीं टच भी ही जाए तो रोम-रोम हिला देता है फिर उसके ऊपर तो सीधा अटैक हुआ है।आपकी बेटी की किस्मत अच्छी थी जो सिर्फ गाल को छूकर निकल गया।वो दर्द से ज्यादा सदमे में है।डरी हुई है।स्थिति काबू में आ जाए फिर आप मिल सकते हैं।पुलिस केस है।वो भी पीड़ित की गवाही के लिए लगातार आ रहे हैं।विश्वास रखिये हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश में लगे है।जल्दी ही स्थिति सामान्य होगी।"


"माँ..।"कह जिस तड़प से वो बैठा,एक अनकहा सा दर्द उसकी आँखों में था।मांँ भी नजरों ही नजरो में समझ रही थी कि इतिहास दोहराया जाता है ये वाकई सच है।आज दो दिन बाद सुगंधा होश में आई।


"पापा..पापा मुझे बचा लो।वो फिर आ जाएगा पापा।मुझे बहुत दर्द हो रहा है।आप मेरी सारी तकलीफ दूर कर देते हो ना पापा।मुझे बचा लो पापा।"और कह फिर अचेतन में चली गई।

"देखिए अब सुगंधा से जो मिलेगा पुलिस की निगरानी में ही मिलेगा।"

"आप घर जाइये रजनीश जी।हम आपको सूचित करते रहेंगे।"

माँरजनीश को जबर्दस्ती घर ले आई।


"कमरे में जैसे ही पहुँचा जोर-जोर से चीखने की आवाज़ आने लगी,"अब क्या करोगे रजनीश।कैसे उसकी तकलीफ दूर करोगे।आज महसूस हो रहा है ना दर्द....।"अपने दोनों हाथों से कानों को जोर से बंद कर माँ के पास दौड़ा चला आया,"माँ वो....।"


"क्या हुआ बेटा।"


"माँ वो....चिल्ला रही थी....।"


"कुछ नहीं होगा।सब ठीक हो जाएगा।तू अपने आप को संभाल मेरे बच्चे।अपना नियंत्रण मत खो।सिर्फ अपनी बेटी की तरफ ध्यान दे।सुगंधा की माँ और पिता दोनों का फर्ज तुझे अदा करना है।उसे दर्द है,डर है इसलिए ज्यादा तड़प रही थी।"


लेकिन रजनीश को कहाँ चैन था।जैसे ही अकेला बैठता एक ही आवाज़ आज बेचैन किए थी,"मुझे बचा लो मुझे बचा लो।क्यों किया तुमने मेरे साथ ऐसा।मेरा रक्षक ही मेरा भक्षक बन गया" और भी न जाने क्या-क्या....।


एक कमजोर बच्चे की तरह माँ के पल्लू का सहारा लिया।पिता वहीं खड़े थे,"रजनीश बेटा,जानता हूँ तुम बहुत तकलीफ में हो,मुझे कहना तो नहीं चाहिए पर जिस आवाज़ से परेशान हो तुम तड़प रहे हो ना ये तुम्हारा अपराधबोध है।किसी की अंतरात्मा की हाय ऐसे ही तड़पाती है बेटा।ये चीख जो तुम आत्मसात कर रहे हो ये तुम्हारी बेटी की नहीं....!ये तुम अच्छे से जानते हो।"


"लेकिन मेरे कर्मो की सजा मेरी बेटी को क्यों?"


"क्योंकि वो भी किसी की बेटी थी।"


अगले दिन सुगंधा को होश आ गया।


"पापा ऐसा क्यों किया उसने!मैंने तो उससे सच्चा प्यार किया था।"


"देख सुगंधा सब भूल जा मेरी बच्ची।पुलिस पूछे तो किसी को भी पहचानने से इनकार कर देना।कोई भरोसा नहीं बेटा,किस रूप में वो बदला ले।"


"क्या हुआ था आपके साथ?कौन लोग थे वो?क्या कोई दुश्मनी?क्या आप पहले से जानती हैं उन्हें...."


प्रश्न सुनकर सुगंधा फूट-फूट कर रोने लगी।कशमकश में थी।


पापा दिन में बाहर गए तो एक महिला जिसने साड़ी के पल्ले से सिर ढका हुआ था पुलिस की इजाजत से सुगंधा से मिलने गई।

ये उसका रोज का नियम बन गया।आज सुगंधा के कमरे से निकली तो रजनीश से टकरा गई।जैसे ही नजर मिली,रजनीश उन चिर-परिचित आँखों में डूब गया पर वो अंजान बनी तेज गति से बाहर की ओर चली गई।


"कौन थी माँ....कहाँ आई थी?"


"कोई कह रहा था महिला आयोग से थी।"


आज सुगंधा की स्थिति में सुधार है।पुलिस आज बयान लेने वाली है।रजनीश बार-बार यही कहता रहा,संभल कर बोलना।तुम्हें कुछ याद नहीं कह देना।


रजनीश ने देखा आज एक अलग ही तरह का विश्वास सुगंधा की आँखों में था।आज तड़प कम,क्रोध ज्यादा था।पुलिस ने वही प्रश्न दोहराए,"आप चुप क्यों हैं बताइए क्या आप जानती है उसे?कौन था वो....।"


सुगंधा बुरी तरह रोने लगी।रजनीश ने विरोध करते हुए कहा,"नहीं जानती वो।कैसे जान सकती है इतने गिरे इंसान को,जिसमें इंसान होकर इंसानियत नहीं।मेरा श्राप है उसे,वो कभी सुखी नहीं रहेगा।"


"आप बीच में मत बोलिये सर।आप पिता हैं आपकी तकलीफ हम समझ सकते है लेकिन हमें हमारा फ़र्ज़ पूरा करने दीजिए।कानूनी कार्यवाही के बीच न पड़ें तो अच्छा है।"


सुगंधा ने नजर उठाकर देखा तो मुँह ढके वो महिला दूर खड़ी थी।एक हाथ छाती पर रखा हुआ था।सब उसके जवाब के इंतजार में थे।


"जानती हूँ मैं उसे आज से नहीं पिछले दो साल से।पर दोस्ती का ये सिला देगा मैंने सोचा न था।मैंने उसे सच्चे मन से प्यार किया था और उसने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।"


उसका जवाब सुन,महिला ने तसल्ली की सांस ली और तेज कदमों से बाहर निकल गई।रजनीश सिर पर हाथ रख वहीं बैठ गया,"ये क्या कह रही है,तू होश में तो है!"


"पापा अन्याय के खिलाफ खड़े नहीं होंगे तो न्याय कैसे मिलेगा,ये मुझे आंटी ने बताया।इतनी हिम्मत उसी इंसान की हो सकती है जिसने उस दर्द को करीब से देखा है।मेरे घाव पर अपने प्यार की मलहम जो उन्होंने लगाई उसने मुझे लड़ने की हिम्मत दी है।"


सभी की आँखों में एक ही प्रश्न था,"कौन थी वो?"


"क्या आप कोर्ट में पेशी के दौरान उसे पहचान पाएँगी।"


"जी बिलकुल।"


आज पेशी है।सभी आरोप-प्रत्यारोप लगने के बाद,कोर्ट के फैसले की बारी थी।सबकी नजर अचानक उस महिला पर पड़ी जो तेज कदमों से सामने आकर सीट पर बैठ गई।आज भी पल्ले से सिर ढका था,बस आंँखे दिखाई दे रही थीं।जैसे ही दरिंदे को सजा सुनाई गई वो उठ खड़ी हुई।उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।एक लंबी सी सिसकी उसने ली तो सब का ध्यान उसकी तरफ गया।कोर्ट खाली होने लगी।सुगंधा खुश थी कि वो आंटी,आज भी उसका मनोबल बढ़ाने आई हैं।जैसे ही उसके पास जाने लगी।

हथकड़ी में जकड़ा वो कैदी उसके पाँव में आकर गिर गया,"माँ मुझे बचा लो माँ....ये सब अनजाने में हो गया।"


मुँह फेर कर बोलीं,"विश्वासघात की सजा यही होती है।"और कह निकल गई।सब स्तब्ध थे कि जिसे महिला आयोग का सोचा था वो उस दरिंदे की माँ है।


"पापा कोई माँ इतनी मजबूत कैसे हो सकती है!"


रजनीश के कदम उसे रोक न पाए।वो उस महिला से मिलने चला गया।

"कोई माँ अपने ही बच्चे को सजा कैसे दिलवा सकती है,क्यों आप क्या देवी बनना चाहती हैं,क्या कारण है इसके पीछे!"


"जी नहीं।मुझे देवी नहीं बनना।सिर्फ ये सोचकर मैंने ये साहस किया कि काश मैंने ये कदम बहुत पहले उठाया होता तो आज दूसरा रजनीश पैदा न हुआ होता।"कहते हुए उसने अपने चेहरे पर से पल्ला हटा दिया,गला पूरा झुलसा हुआ था।उसके मुँह से अपना नाम सुन वो चोंक गया।


"सुपर्णा तुम!"


"हाँ मैं।याद आया कुछ।एक दिन आपकी माँ ने ममता का वास्ता देकर मुझे कमजोर कर दिया था।मैं नहीं चाहती थी सुगंधा कमजोर पड़े।दर्द से ज्यादा विश्वासघात की जो पीड़ा मैने सही वो आपकी बेटी कभी नहीं सहेगी।इतिहास दोहराया जाता है रजनीश,आज तुम्हें अच्छे से समझ आ गया होगा।आज तक मुझे सिर्फ पीड़ा होती थी कि जिस इंसान को मैंने तन-मन से चाहा उस इंसान ने मुझे धोखा दिया।पर आज तुम्हारी जगह अपनी औलाद को देख घृणा हो रही है ये सोचकर कि मेरी औलाद मेरा दर्द न समझ सकी।वो तुम्हारी जैसी कैसे हो गई!लेकिन आज उसे सजा दिलवाकर मुझे तसल्ली है कि जो गलती मैंने आज से बाईस साल पहले की थी उसका हिसाब चुकता हो गया।एक औरत के रूप में और एक माँ के रूप में मुझे अपने आप पर गर्व है।"


"लेकिन आज जिस अपराधबोध से मैं गुजर रहा हूँ उसका प्रायश्चित कैसे होगा....।"


"कभी नहीं होगा।अभी तो ये शुरुवात है।बेटी की तड़प,एक बाप की बेबसी,हर वक्त एक डर और जब उसका चेहरा देखोगे ना तो हर बार तुम्हारे घाव हरे होंगे।फिर भी वो बच्ची है,निर्दोष है,भगवान करे उसकी किस्मत में मेरे पति जैसा जीवन साथी लिखा हो जो ये पीड़ा अपने साथ बाँट कदम से कदम मिलाकर उसके साथ चले।मिलना चाहोगे मेरे पति से....।"कह उसने आवाज़ मारी,"अरुण....अरुण....।"


अरुण को सामने देख,रजनीश हतप्रभ रह गया,"तुम....!"


"पहचान गए अपने परम मित्र को....पापा के मना करने के बाद जब मैनें तुमसे मिलने को मना किया तो तुम्हारे मंसूबे अरुण अच्छे से समझ रहा था।उसने मुझे तुम्हारे घृणित विचार के लिए आगाह किया लेकिन मुझे,मेरे प्यार पर यकीन था।तुम पर यकीन था।प्यार मतलब पाना ही तो नहीं लेकिन मैं गलत थी,दुर्घटना के वक्त तुम्हारी माँ की याचनाओं से कमजोर पड़ गई और तुम्हारे पक्ष में गवाही दे तुम्हें बचा लिया।लेकिन आज बहुत सोचने के बाद जब तुम्हारी जगह अपने बेटे को देखा तो इस निर्णय पर पहुँची कि इतने ईमानदार पिता को उनके बेटे ने क्या सिला दिया।आज यदि उसके गलत कदमों को मैंने सजा मिलने से पहले नहीं रोका तो न जाने कितने और रजनीश ऐसा दुस्साहस करेंगे।जाओ....चले जाओ यहांँ से और अब फिर कभी मत आना।"


रजनीश पूरे रास्ते यही सोचता रहा सच,प्यार मतलब पाना ही तो नहीं होता।आज सबकुछ खोकर भी सुपर्णा ने एक बार फिर आत्मसम्मान पा लिया और मैं रजनीश,धोखेबाज,दरिंदा और आज एक लाचार पिता जीवन भर इस अपराधबोध तले दबता रहूँगा।


जीवन बहुत कीमती है और प्यार सबसे मूल्यवान।अपने बच्चों को एक सुखद व संस्कारिक वातावरण दें।बच्चों को जितना प्यार देना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है गलत बातों पर टोकना,उनके लिए एक स्वस्थ वातावरण तैयार करना।इतिहास दोहराया जाता है इस बात में कोई संदेह नहीं।कर्म ऐसे हों जिसका फल सुखद हो।


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