अंधा प्यार
अंधा प्यार
मैं बेताबी से कॅफे में उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। आज मेरी उससे पहली मुलाकात है। मेरी उससे जान-पहचान हुए छह महीने ही हुए थे। किन्तु कुछ ही समय में हम एक-दूसरे के काफ़ी करीब आ गये थे। मैं कुछ पत्रिकाओं में लेख लिखा करता था। ऐसी ही एक पत्रिका में मैंने उसकी लिखी एक मर्मस्पर्शी कथा पढ़ी। वह कथा मानो मेरे मन बस गयी। कथा के आखरी पृष्ठ पर मैंने उसका नाम पढ़ा - स्नेहा माथुर। साथ ही उसका चित्र भी था। उसके विशाल नेत्रो ने मानो मुझे मोहित कर लिया था। मैं उसकी हर कहानी पढ़ता और अपनी टिप्पणी उसे लिख भेजता। उसने भी मेरी कहानियों पर टिप्पणी लिख कर मुझे भेजनी शुरू कर दी। और यूँ हि कुछ दिनों में हमारी दोस्ती हो गयी। धीरे-धीरे हम एक-दूसरे के करीब आने लगे। आज हमने मिलने का फैसला कर लिया।
आज उसका इंतज़ार करते हुए मन में जितनी प्रसन्नता थी उतना ही ड़र भी था। मुझे बचपन मैं पोलियो हो गया था जिसकी वजह से मुझे चलने के लिए बैसाखियों का सहारा लेना पड़ता था। मुझे ड़र था कि इस कारण स्नेहा मुझसे मुँह न फेर ले। कुछ क्षण बाद स्नेहा अपनी एक सहेली का हाथ पकड़े कॅफे में दाखिल हुयी। वह इतनी सुंदर थी कि मैंने अपना दिल थाम लिया। वे दोनों मेरे पास आकर बैठ गयी। कुछ देर बाद उसकी सहेली बाहर निकल गयी। मैंने अधिक विलंब किए बिना स्नेहा सेपने दिल की बात रख दी। साथ ही यह भी कहा कि मैं विकलांग हूँ। उसने मेरी बात का जवाब नही दिया।
"तुम्हारी खामोशी ने मुझे मेरा जवाब दे दिया। तुम एक विकलांग को क्यूँ अपनाओगी ?" मैं अपना दर्द छुपाने के लिए हँसा।
"कहते हैं प्यार अंधा होता है।" उसने मुस्कुराते हुए कहा, "और मेरी जैसी अंधी लड़की के प्यार को विकलांगता भला कैसे दिखाई दे सकती है ?"
वह खिलखिला कर हँस पड़ी।
"फ़िर वो कहानियाँ?"
"मेरी कहानियाँ मेरी सहेली शिखा लिख कर पत्रिकाओं में भेजती थी। तुम्हारी कहानियाँ भी वही पढ़ कर सुनाती थी।"
वह फ़िर मुसकुरायी। उस दिन मुझे यह अहसास हुआ कि मुझे मेरा सोलमेट मिल गया।