अनचाहा नहीं अजन्मा
अनचाहा नहीं अजन्मा
"मैं इस बच्चे को जन्म नहीं दूँगी, यह मेरा आखिरी फैसला है!"
श्रुति ने अपने एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा तो अतुल को थोड़ा धक्का लगा। उसे यह महसूस हुआ जैसे श्रुति अपने शरीर से उसका अंश काटकर निकाल देना चाहती है।
और मधुरिमाजी को एकदम से अपने सास होने का एहसास हुआ और लगा कि उनके होनेवाले पोते को जन्म ना देने का फैसला करके उनकी बहू ने उनका अपमान किया है और उनकी आज्ञा की अवहेलना की है।
पर...
जब थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने भी आकर श्रुति के बच्चे के गर्भपात कराने के निर्णय को सही ठहराया तो वहाँ खड़े सभी परिवार जनों की प्रश्नवाचक दृष्टि डॉक्टर की ओर उठ गई।
तब डॉक्टर ने उनका डाउब्ट क्लियर किया।
"चुँकि कंसीव करने के बाद भी श्रुतिजी ने कंट्रासेप्टिव पिल्स ले लिया था इसीलिए हो सकता है बेबी की नॉर्मल ग्रोथ ना हो। गर्भस्थ शिशु का ग्रोथ का सही पता तीसरे महीने के बाद ही सही तरीके से चल पाता है और श्रुतिजी काफ़ी कमज़ोर भी हैं, इसलिए अभी उनके हेल्थ और गर्भ की स्थिति को देखते हुए अभी उनके गर्भपात का निर्णय बिल्कुल सही है!"
जब श्रुति के सास ससुर अवधेशजी और मधुरिमाजी के साथ उसकी ननद कनिका ने भी यह डॉक्टर के मुँह से सुना तो उनकी तनी हुई भृकुटियाँ थोड़ी सामान्य हुईं।
तभी श्रुति अपने सास ससुर के पास आकर बोलीं,
"मुझे पता है आप लोगों के मन में अपने पोते या पोती को देखने की बहुत इच्छा है पर जब डॉक्टर कह रहे हैं कि हो सकता है बच्चा दिव्यांग हो सकता है तो मुझे यही सही लग रहा है। मैं एक माँ हूँ, मेरे लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं है। बस आप लोगों का साथ चाहिए!"
बोलते बोलते श्रुति का जब गला रूँध गया तो उसके पति ने आगे बढ़कर उसे थामते हुए कहा,
"श्रुति! हमारे लिए तुम्हारे स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ नहीं है। उस अजन्मे शिशु की वजह से मैं अपनी पत्नी को नहीं खो सकता!"
पति का प्यार और स्पोर्ट पाकर श्रुति जब ऑपरेशन के लिए गई तो उसके मन में भी अपने बच्चे को खोने का बहुत दर्द था।
अपने मन और तन दोनों में अगाध पीड़ा लेकर जब श्रुति को ऑपरेशन थियेटर से बाहर लाया गया तो वह बेहोश थी। उसके होश में आने तक पति उसके पास ही बैठा रहा। होश आते ही श्रुति ने तीव्र दर्द का अनुभव किया। उसकी आँखों से आँसू निकले ही थे कि पति ने आगे बढ़कर पोछ दिया और आँखों ही आँखों में यह जता दिया कि,
"तुम मेरी वाग्दत्ता हो, और हर परिस्थिति में मैं तुम्हारे साथ हूँ!"
श्रुति ने पति के सांत्वना देते हाथ को कसकर पकड़ लिया था जैसे मेले में खोया कोई छोटा बच्चा अपने परिजनों से वापस मिलने पर उनका हाथ कसकर पकड़ लेता है।
चूंकि श्रुति बहुत कमज़ोर थी और उसका रक्तश्राव भी काफ़ी हो गया था इसलिए उसे एक दिन अस्पताल में रहना पड़ा।
जब अपनी खाली कोख और भारी मन लिए घर आई तो अपने कमरे में आकर एकदम रूलाई सी फूट पड़ी।
थोड़ी देर में उसकी ननद चाय लेकर आई और कहा,
"अच्छा ही है वो अनचाहा मेहमान चला गया। नहीं तो अगर जन्म लेकर लूला लंगड़ा पैदा होता तो उसे कौन पालता पोसता!"
सुनकर श्रुति को बहुत दुख हुआ। अपने अजन्मे बच्चे को 'अनचाहा मेहमान' कहे जाने से उसका कलेजा जैसे छलनी हो गया।
"वह कोई अनचाहा मेहमान नहीं था दीदी!"
श्रुति ने दृढ़ शब्दों में कहा तो पति ने उसका समर्थन करते हुए कहा,
"सही कहा श्रुति ने... हमारा बच्चा भले ही हमारी बदकिस्मती से हमारे साथ नहीं है पर हमारी यादों में हमेशा रहेगा!"
श्रुति ने पति की ओर सजल नेत्रों से देखा और दोनों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे को आश्वासन दिया... मानो कह रहे हों,
सब कुछ ठीक हो जायेगा।
सुबह का सूरज कुछ और प्रखर हो चला था...तिमिर तो कबका छुप चुका था। बाल अरुण अब अपने बढ़ते आकार के साथ नभ में पूर्ण आच्छादित हो चला था। श्रुति भी अपने मन में एक नई आस, एक नई रौशनी का अनुभव कर रही थी।
(समाप्त )