अनब्याही
अनब्याही
अमृता जी का कई दिन से बीपी लो चल रहा था। फिर भी सुबह-सुबह वे वाॅक पर गईं। फिर जो होना था सो हुआ। पार्क का एक चक्कर लगाते-लगाते खुद भी चक्कर खा कर गिर पड़ीं। आसपास के लोग दौड़ते हुए आए। अमृता जी को यहां सब पहचानते थे। रोज सुबह वाॅक करने जो आती थीं। गिरिश जी के सेवानिवृत्ति के पश्चात जब उन दोनों ने भुवनेश्वर में सेटल होने का निर्णय लिया तो पुराने जान-पहचान वाले सब भुवनेश्वर से जा चुके थे। अमृता जी के हंसमुख स्वभाव और मिलनसार प्रवृत्ति के कारण वे जहां भी जातीं जल्दी लोगों के साथ घुल-मिल जाती थी। यहां भी उन्हें जान-पहचान बनाने में अधिक देर न लगी। उनके पति, गिरीश शथपति साहब का स्वभाव बिलकुल इनके विपरीत था। वे गंभीर और अंतर्मुखी स्वभाव के थे। और बिना प्रयोजन के कहीं आते-जाते नहीं थे। वे किसी बेहद बड़े ओहदे पर सरकारी मुलाजिम रह चुके थे। जिसके कारण भी वे सहज रूप से सबसे जुड़ नहीं पाते थे।
"अंटी जी, आपको ज्यादा चोट तो न आई? क्या आप खड़ी हो पाएंगी?" अत्यंत कोमल स्वर में किसी ने उनसे पूछा।
आंखे खोली तो अमृता जी थोड़ी देर तक उसे देखती रह गई। एक अत्यंत रूपवती स्त्री, जिसकी उम्र कोई पैंतिस साल के आसपास होगी, चिंतातुर आंखों से उन्हें देखे जा रही थी। उसके माथे पर दमकती गोल बिंदी और सिंदूर का हल्का-सा आभास वे देखने लगी और उस स्त्री के व्यक्तित्व में एक ऐसा स्निग्ध आकर्षण था कि अधेर उम्र की अमृता जी भी थोड़ी देर के लिए अपनी वर्तमान अवस्था से विस्मृत हो गई। उनके मन में एक क्षण के लिए एक अजीब-सी इच्छा जाग्रत हो उठी।
'' काश!मेरी बहू भी ऐसी होती। "
उनकी बहू लिंडा हालांकि बहुत अच्छी थी पर वैसी नहीं थी जैसी एक औसत भारतीय सास को आमतौर पर पसंद आती हैं।
पैरों में आई मोच से होने वाले दर्द ने उन्हें तुरंत ही वर्तमान में लाकर पटक दिया। वे किसी तरह उस स्त्री का सहारा लेकर खड़ी हुई पर एक कदम भी आगे न बढ़ा पाई। वह लड़की न जाने कहाॅ से हल्दी और चूना गरम कर लाई और उनके पैरों में उसका लेप लगा दिया। फिर थोड़ी देर बाद उन्हें अपने स्कूटर के पीछे बैठालकर उनके घर तक छोड़ने आ गई। इस अपरिचित स्त्री के उपकार से अमृता जी कृतज्ञता से अंदर तक भींग गई। और उसे चाय पीने के लिए आमंत्रित कर दिया। जिसे लड़की ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
आज सुबह की चाय उस लड़की को ही बनानी पड़ी क्योंकि शथपति जी को किचन का कोई काम तो आता ही न था।चाय पीते-पीते बातचीत होने लगी। उस लड़की ने अपने बारे में बताया कि उसका नाम मधुरा है और वह भुवनेश्वर में ही एक काॅलेज में पढ़ाती हैं। नाम की तरह उसकी आवाज भी अत्यंत मधुर थी।
अमृता जी ने भी उसे अपने बच्चों के बारे में बताया। उनके दोनों बच्चे ( बेटा अमिताभ और उससे पांच साल छोटी बेटी नंदिनी) इंजीनियरिंग करने के बाद अमरीका में सेटल हो गए थे। उन्होंने वहाॅ अमरीकनों के साथ ही घर बसा लिया जिससे कि उनको जल्दी वहां की नागरिकत्व भी उपलब्ध हो गई। उनके पोते और नवासी भी अपनी गोरी माँ और पिता की तरह ही गोरे हैं। उन्हें भारत आना पसंद नहीं । अमृता जी का बड़ा मन करता है उनके साथ मिलने का। अपने पोते ,नवासी के साथ खेलने का। यह कहते हुए अमृता जी का गला रुंध गया। फिर वे मधुरा को एलबम दिखाने लगी। जब वे अमरीका गई थी गिरीश जी के साथ तब उन्होंने ये तस्वीरें ली थी। आज के डिजीटल युग में भी अमृता जी ने उनका प्रिंट निकालकर एलबम में सजा रखा था। और जब भी उनकी याद आती तो ये एलबम खोलकर बैठ जातीं।
अमृता जी ने देखा कि एलबम के पन्ने पलटते हुए न जाने क्यों मधुरा के हाथ एक दो बार कांप उठे थे।
"क्या बात है, बेटा?" उन्होंने पूछा।
"कुछ नहीं अंटीजी, मेरे अपनों की याद ताजा हो आई।"मधुरा ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा।
जाते समय मधुरा ने उनसे पूछा, "अंटी जी क्या मैं आपको बउ ( ओड़िया भाषा में माॅ को कहते हैं) कह सकती हूं? और क्या कभी-कभी आपसे मिलने यहां आ सकती हूं?"
अमृता जी ने इजाजत दे दी। उन्हें भला क्या आपत्ति हो सकती थी? उनके पास काफी खाली समय था और लोगों से बातचित करना वे पसंद भी करते थे।
समय के साथ इन दो भिन्न उम्र की महिलाओ के बीच की दोस्ती गहरो होती चली गई। वे कोई नया पकवान बनाती तो मधुरा को अवश्य फोन कर बुलातीं। मधुरा जबतक उसे चखकर अच्छा न कहे उन्हें चैन न मिलता था। वे कभी-कभी मधुरा के साथ शाॅपिंग पर जाती। थियटर में कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो मधुरा और उसकी बउ दोनों साथ-साथ देखने जाते। इस तरह एक साल के अंदर दोनों एक-दूसरे के इतने करीब आ गए कि मधुरा के काॅलेज में जब छुट्टी होती तो वह बउ-बापा के साथ आकर सारा दिन बिता जाया करती। यहां तक कि उनके बच्चों का फोन आता तो कभी-कभी बउ के व्यस्त होने पर मधुरा फोन रिसीव भी कर लेती थी और मेसैज लिखकर रखती। यहां तक कि अमृता जी के मन में अपने बच्चों से दूर होने की जो शिकायत थी वह मधुरा के सान्निध्य में अब धीरे-धीरे कम हो रही थी। मधुरा एक ओर उनकी बेटी जैसी थो तो दूसरी ओर उनकी बहू की जिम्मेदारियाॅ भी निभा लेती थी। मधुरा का भी भुवनेश्वर में अपना कोई न था। इसलिए उसे भी बउ और बापा से गहरा आत्मीय लगाव हो गया था।
मधुरा एक मराठी मुलगी थी। परंतु कुछ ही समय में उसने बहुत अच्छी ओड़िया सीख लिया था। और बउ बापा के साथ धारा प्रवाह ओड़िया बोलती थी। वह उन दोनों का बड़ा ही ख्याल रखती थी। बापा, जो कम बोलते थे, वे भी अब मधुरा से खुलकर बातें कर लिया करते थे। कुछ तो बात थी मधुरा में जो उसने उन लोगों के दिल को जल्दी ही जीतने में कामयाब हो गई थी। उसके सहज अपनापन के जरिए वह किसी भी उम्र के व्यक्ति को अपना बना ले सकती थी। शायद लंबे समय से छात्रों को पढ़ाते रहने के कारण मनोविज्ञान की वह इतनी अच्छी जानकार हो गई थी कि दूसरों के मन को आसानी से पढ़ लेती थी।
कुछ दिन बाद अमृता जी के बेटे अमिताभ का फोन आया ।
"हैलो बउ, किमिति आछन्ति? ( कैसी हैं आप?)
" मु भाला अछि। (मैं ठीक हूं बेटा)। बस तुम लोगों को देखने की बड़ी इच्छा हो रही है।"अमृता जी बोली।
" बउ ,आपकी यह इच्छा जल्दी ही पूरी होने वाली है। हम अगले महीने इंडिया आ रहे हैं। लिंडा, रोमित और मैं।" अमिताभ ने फोन पर यह खुशखबरी दी।
अमृता जी अपने बेटे और पोते से मिल पाने की इस खुशी को केवल अपने तक समेट नहीं पाई।तुरंत जाकर उन्होंने गिरिश जी को बताया। जल्द ही मधुरा को भी इसकी खबर दे दी गई। अमृता जी फिर तैयारियों में जुट गई। मधूरा उनका हाथ बंटाने समय पर पहुंच जाती थी।
अमृता जी ने तय किया कि हालांकि अमिताभ और लिंडा की शादी ईसाई रीति अनुसार अमरीका में हुई थी, अतः इस बार जब वे आएंगे तो हिंदू तरीके से वे उनकी दुबारा शादी करवाएंगी। आखिर उनके भी कुछ अरमान थे बेटे की शादी को लेकर।! क्या हुआ जो उनका पोता भी साथ आ रहा है। विदेश में तो बच्चे अकसर माॅ-बाप का व्याह होते देखते हैं। फिर नाते-रिश्तेदारों को भी तो दिखाना था।
नियत दिन अमिताभ, लिंडा और पोते रोमित को एयरपोर्ट लेने अमृता जी और गिरिश जी पहुंच गए। अमृता जी उन्हें देखकर फूले नहीं समा रही थी। घर पहुंचकर उन्होंने मोहल्ले भर को बुलाकर अपने बेटे और उसकी मेम बहू से मिलवाया। पोते का साथ पाकर वे तो छोटे बच्चे की तरह चहकने लगी। अचानक उन्हें याद आया कि मथुरा नहीं आई मिलने। उसका नम्बर मिलाया तो बार-बार स्वीच ऑफ आ रहा था। फिर काम-काज में वे इतना व्यस्त हो गई कि कुछ दिनों के लिए मधूरा को भूल गईं ।
बेटे और बहू की शादी और उसके पश्चात रिसेप्शन पार्टी काफी शानदार रही। रिश्तेदारों से घर भरा था।बड़ी चहल पहल रही घर में कुछ दिन। इन सबके बीच अमृता जी के मन में कई बार मधूरा की याद हो आई। वह होती तो सारे कामों को चुटकियों में निपटा देती। उसे भी इसी समय गायब होना था। लिंडा को तो घर के काम-काज कुछ आते ही नहीं थे।ऊपर से धूल-मिट्टी और गर्मी से उसे ऐसी एलर्जी थी कि डर के मारे अपने कमरे से भी नहीं निकलती थी।
बहरहाल, किसी तरह सारा काम ठीक-ठाक निपट ही गया। गिरिश जी का भरपूर सहयोग मिला था इसबार। उनको आजतक कभी घरेलू कामों में हाथ बंटाते हुए नहीं पाया था। और इतनी बातें तो गिरिश जी ने अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं की होगी। मधूरा के कारण ही उनका यह काया-पलट संभव हो पाया था।
"मधूरा, मधूरा, मधूरा---जब से यहां आया हूं आप दोनो सिर्फ उसी का नाम रट रहे हैं। आखिर आपकी यह मधूरा हैं कहाँ ?" अमिताभ ने उत्सुकतावश पूछा।
"पता नहीं वह कहाँ रह गई।" उसकी बउ ने कहा। "फोन स्विच ऑफ आ रहा है बार-बार उसका। तेरे बापा गए थे उसके होस्टल। वहां भी नहीं है।"
"कोई जरूरी काम आन पड़ा होगा उसे। इसी वजह से घर चली गई होगी।" बापा जी बोले।
इसके कुछ दिन बाद अमिताभ और लिंडा अमरीका चले गए। पर मुश्किल से एक महीना भी नहीं बीता होगा कि एक दिन देर रात को अचानक बेटी नंदिनी का फोन आता है। वह फोन पर बुरी तरह रो रही थी। यहां तक कि रोते हुए उसकी हिचकी बंध गई थी।
"बउ, भाइना और भाउज का अक्सीडेंट हो गया। गाड़ी भाउज चला रही थी। एक ट्रक के नीचे•"••• अपना वाक्य पूरा करने से पहले नंदिनी फिर से रो पड़ी।
"वे दोनों अब इस दुनिया में नहीं है। भाइना की अंतिम इच्छा के अनुसार उनकी बाॅडी लेकर हम इंडिया आ रहे हैं।"
"भाउज की बाॅडी उनके भाई अपने साथ॰॰॰ नंदिनी कहती रही,पर बीच में ही अमृता जी बेहोश होकर जमीन पर गिर गई।गिरिश जी उन्हें अस्पताल ले गए। नंदिनी को फोन करके उन्होंने सारी बातें जान ली। जोरदार धक्का उन्हें भी लगा। जिस उम्र में बेटों के कंधे पर चढ़कर शमशान जाने की तमन्ना होती है उसी उम्र में बेटे को कंधा देना पड़ेगा। यह सोचकर वे फफकर रो पड़े।
सिर्फ एक महीना पहले जहां शादी की शहनाई की मधूर ध्वनि गूंज रही थी आज उसी घर में मातम की काली छाया मंडरा रही थी। जवान बेटे का लाश आंगन के बीचो बीच रखी थी और दो जिन्दा लाशें उसी आंगन के एक कोने में कुर्सी पर बैठी सब कुछ ऐसे देख रहे थी मानों खुद के क्रिया-कर्म में शामिल होने के लिए आए हो। इतना रो चुके थे कि अब उन बूढ़ी आंखों में आंसू भी न बचे थे। सिर्फ दो पत्थर की मूर्ति की भांति वे वहां मौजूद भर थे। उनके बुढ़ापे का सहारा, उनकी सारी खुशियों को विधाता ने एक ही झटके में छीन लिया।
नंदिनी और उसका पति राॅबर्ट सभी पड़ोसियों और रिश्तेदारों को सम्हाल रहे थे।
तभी अचानक भीड़ को चीरती हुई मधुरा अमिताभ के शव के पास आकर खड़ी हो गई। फिर सबकुछ भूलकर रोती हुई पछाड़ खाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। ऐसा लग रहा था जैसे उसके वर्षों के संयम और तपस्या का बांध आज टूट रहा है। आज वह श्रृंगार रहित सफेद साड़ी पहने हुए थी जैसे किसी अपनी निकट आत्मीय के मृत्यु-शोक में शामिल होने के लिए आई हो। पता नहीं कितनी देर तक यों वह रोती रही। फिर अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पाकर वह रुकी।
किसी ने अत्यंत मधुर आवाज में उसे पुकारा-
"भाउज!"
उसने चौंककर देखा। यह नंदिनी थी। उसने कहा,
"भाइना ने मृत्यु से पहले आपके बारे में सबकुछ बता दिया। मुझे नहीं मालूम था कि आप इसी शहर में रहती हैं।"
अमिताभ के क्रिया-कर्म सब मिट जाने के बाद नंदिनी ससम्मान मधुरा को अपने बउ और बापा के पास लेकर आती हैं और कहती हैं---
"यह मधुरा नहीं इनका असली नाम शुभांगी देशपांडे हैं। भाइना और ये बंगलौर में एक ही इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ते थे। इन दोनों का प्रेम कैम्पस में मशहूर था। भाइना ने एकबार भावनाओं में बहकर इन्हें एक मंदिर में ले जाकर माला पहनाई थी। और उस समय इनकी मांग भी भरी थी।उस समय इनकी लिगल मैरिज की उम्र नहीं हुई थी इसलिए आगे चलकर इनसे शादी करने का वादा भी किया था।"
" परंतु इंजीनियर बनने के बाद भाइना विदेश चले गए और शुभांगी को भूल गए! वहाॅ ग्रीन कार्ड पाने के लिए जल्द ही लिंडा से शादी कर बैठे। पर भाइना ने अपने अंतिम समय में मुझे बुलाकर यह सब कहा और उन्होंने मुझसे विनती की कि शुभांगी को ढूंढकर उनके साथ किए गए सभी अपराधों के लिए उनकी ओर से मैं क्षमा मांग लू।"
"यह क्या पागलों की तरह कह रही है?" अमृता जी ने शुभांगी को एक नजर देखते हुए नंदिनी से पूछा। "इसने तो अपना नाम मधुरा बताया था।"
"बउ मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई। आगे सुनिए।"
एक लंबी साॅस खींचकर नंदिनी आगे की कहानी सुनाने लगी।
"शुभांगी अपने दोस्तों के माध्यम से भाइना का पूरा समाचार रखती थी। जिसदिन उसे भाइना की शादी की खबर मिली वह पूरी तरह टूट गई थी। उसने अपनी मल्टीनैशनल कंपनी का जाॅब छोड़ दिया। वे फिर डिप्रेशन में चली गई थी। एक साल तक किसी रिहैब में भी रही। फिर जब ठीक हुई तो उन्होंने भुवनेश्वर इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ाने का ऑफर स्वीकार कर लिया। उसे मालूम था कि आप दोनों यहां अकेले रहते हो। इसलिए नाम बदलकर वह आपके पास आती थी और आपकी देखभाल करती थी।"
" जो काम भाइना और मै कभी कर न पाए वही काम भाउज ने कर दिखाया।" यह कहते हुए नंदिनी रो पड़ी।
शुभांगी ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया। और दोनों एक-दूसरे से लिपटकर रोने लगी।
गिरिश जी ने आगे बढ़कर शुभांगी के सिर पर हाथ रखा और उसे ढेरों आशीर्वाद दिया।
अमृता जी शुभांगी के इस त्याग और तपस्या के आगे नतमस्तक हो गई। उन्हें मधुरा की पिछली सारी बातें याद आ गई। वह आश्चर्यचकित थी कि अमिताभ द्वारा प्रताड़ित होकर भी कैसे इस लड़की ने उसके परिवार की सेवा की। किस तरह प्रतिदान की रंचभर भी आशा न रखते हुए निःस्वार्थ भाव से इनका भला करती रही। इनके खालीपन और मायूसी को अपनी खुशी से भरती रही।
वे आगे बढ़ीं और शुभांगी का हाथ पकड़कर रूंधे स्वर में बोली -
"बेटी तो मैं तुझे पहले ही बना चुकी थी क्या अब बहू बनकर मेरे पास रहेगी?" तुझे बेटा तो अब न दे सकूंगी। पर उसके बेटे, अपने पोते को तुझे सौंपती हूं।"
मधुरा ने उन्हें प्रणाम किया और पास खड़े रोमित को गोदी में उठा लिया।