अमर सुहागन
अमर सुहागन


पेड़ों की शाखों पर झूले लहरा रहे थे, चहुँ ओर हरियाली के बीच लाल जोड़ों में सजी क्या नवविवाहित औरतें और क्या जीवन के कई सावन उस लाल जोड़े में देख चुकी औरतें, सभी की सभी झूलों में पेंग मारती सावन के गीत गा रही थीं। हँसी ठिठोली करती वे आपस में एक दूसरे को छेड़ रही थीं और अपने अपने पहले मिलन और पहले सावन की यादों में उलझी हुई थीं।
एक वृद्धा नीचे ज़मीन पर चादर बिछाए बैठी हाथों में रंग बिरंगी चूड़ियाँ लिए और उन नई उगती बेलों की हँसी ठिठोली में खुद की खुशियाँ ढूँढती गा रही थीं-
किसियाँ की पोली बोल्या ऐ मनिहार लला, किसियाँ कूक बुलाया ऐ मनिहार!
राधे की पोली बोल्या ऐ मनिहार लला, ननद की कूक बुलाया ऐ मनिहार लला!
बहु शांति पहरन बैठी ऐ मनिहार लला
कोई हरी हरी तो कोई लाल पहरा दो ऐ मनिहार!
किसियाँ की पोली बोल्या ऐ मनिहार लला।
उनके पीछे पीछे सभी औरतें हँसतीं खिलखिलातीं गा रही थीं और झूलों को ज़ोर से पेंग मार रही थीं।
सामने बने एक पक्के दुमंजिला मकान में खड़ी एक इक्कीस साल की लड़की उन औरतों को देख मुस्कुरा रही थी। फिर पीछे से उसकी ननद आ उसे खींच नीचे ले गई। झूलों पर पेंग मारती वो अपनी शादी के पहले सावन का पहला झूला झूल रही थी और दूर सीमा पर लड़ते अपने पति की यादों में खोई हुई थी।
धक धक बजती गोलियों की आवाज़ के बीच उसने उसकी आवाज़ सुनी थी।
"मैं ठीक हूँ अभिज्ञा, तुम चिंता मत करो! तुम बस अपना और मेरे बच्चे का ध्यान रखो।"
" इसे तुम्हारी ज़रूरत है मनु। तुम इसके लिए वापिस आ जाओ।"
" मैं आऊँगा अभि, बस पहले अपने देश की जरूरतें पूरी कर दूँ। इन दुश्मनों को खदेड़ दूँ यहाँ से फिर चला आऊँगा तुम्हारे पास।"
फ़ोन पर उसकी सिसकियाँ सुन दोबारा बोला था वो,"अभि, मुझसे जुड़ने से पहले ही जानती थीं तुम कि मुझपर पहला अधिकार मेरे देश का है। फिर अब कैसे कमज़ोर पड़ सकती हो तुम? तुम ही तो मेरा साहस हो।"
" मैं कमज़ोर नहीं पड़ रही हूँ मनु, तुम जाओ, इस मिट्टी का तुम पर मुझसे पहले हक़ है। बस ये याद रखना कि दूर कहीं कोई तुम्हारे इंतज़ार में पलकें बिछाए बैठी है। तुम्हारे किये वादों पर जो विश्वास लाये बैठी है उसके लिए तुम्हें वापिस आना है।"
" मैं ज़रूर आऊँगा अभि।" और अचानक ही फ़ोन कट गया था।
हरियाली तीज पर कथा सुनती वो अपने शादी के जोड़े में सजी बैठी थी, माथे पर अमर सुहाग का टीका लगाए वो सीमा परलड़ते अपने पति की लंबी उम्र की कामना कर रही थी जब वो वज्र आकर उसपर गिरा।
गाँव के पोस्टमैन ने आकर उन्हें खबर दी कि मानव सीमा पर लड़ते हुए शहीद हुआ है। हाथों में थामी थाली धम्म से ज़मीन पर गिर पड़ी थी उससे।
लाल जोड़े के रंग को सफेदी में ढलते देख रही थी वो। वो जो उससे लौट आने का वादा कर गया था आखिरकार लौट ही आया था, तिरंगे में लिपटा ही सही।
एक ओर गाँव से चली उसकी अंतिम यात्रा में हज़ारों की संख्या में लोग थे जो उसके अमर होने का नारा लगा रहे थे और उसे सदैव अपने दिलों में जिंदा रखने का दम भर रहे थे और दूसरी ओर अभिज्ञा मानव के अंश को चीख किलकारियों और उसे भी देश पर वारने के वादे के बीच इस दुनिया में ला रही थी।
उसके चेहरे पर जहाँ एक ओर अपने सुहाग को खोने का दर्द था वहीं दूसरी ओर अपने पति के देश पर मर मिटने का गर्व भी।
वो आज भी सजती है, आज भी पहले सावन की ही तरह हर सावन झूले के पेंग मारती है, हाथों में चूड़ियाँ भरती है, तीज के गीत गाती है और आज भी अपने सुहागन होने का जश्न मनाती है। वो आज भी सुहागन है क्योंकि उसका पति अमर है और वो अमर सुहागन.....वो आज भी गाती है-
कोई हरी हरी तो कोई लाल पहरा दे रे मनिहार लला !