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Vibha Pathak

Tragedy Inspirational

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Vibha Pathak

Tragedy Inspirational

अम्मा

अम्मा

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पाठक जी बेफिक्र होकर अपना बिजनेस संभालते थे, घर की तो उनको बिल्कुल भी चिंता नहीं थी, क्योंकी उनकी पत्नी ने पुरे घर के साथ उनको भी संभाल रखा था, चाहे उनकी सुबह उठते चाय हो या रात को सोते समय दूध 

सुबह से लेकर शाम तक का सबकी देखभाल करने कि जिम्मेदारी पंडिताईन ने बहुत अच्छे से संभाल रखी थी। 

6 बच्चों की जिम्मेदारी, अरे पाठक जी के माता पिता,  वो भी तो बच्चे ही थे, और पाठक जी के 4 बच्चे जो इतने शैतान की खुद शैतान भी शरमा जाएं, (जोक सपाट के लिए कहा है ये)

पाठक जी काफ़ी पढ़े लिखे और सुलझे हुए इंसान थे, 

वो काम के प्रति बहुत ही जिम्मेदार और निष्ठावान थे। उनके कई गुणों के कारण समाज में उनकी बहुत इज्ज़त थी। सभी उनको बहुत मानते थे । उनसे सलाह, मशवरा भी लिया करते थे। इनके बिल्कुल विपरीत थी पंडिताइन, ज़्यादा पढ़ी लिखी तो नहीं लेकिन हा समझदार बहुत थी, किताब पढ़ ना पाए लेकिन "रामायण" की बहुत सी चौपाई मुंहजबानी याद थी उनको, 

घर परिवार, आस पास में बहुत लोग बातें बनाते थे लेकिन कोई फर्क नहीं एक कान से सुन दूसरे से निकाल देती थी।।

पाठक जी अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे, और उससे ज़्यादा उनका सम्मान, उनकी पंडिताइन को ज़रा सा भी कोई कुछ भी बोले तो उसकी ख़ैर नहीं समझिए।।

बनारस के मैदागिन जगह पर उनका मकान जिसमे पति पत्नी अपने बच्चो के साथ बड़ी ही हसी ख़ुशी के साथ रहा करते थे, उनकी गृहस्थी सुखपूर्वक चल रहीं थीं। 

उनके चार बच्चों में पहली संतान जो लड़की बाकी के 3 लड़के, पढ़ने में सबसे होशियार उनकी बड़ी बेटी ही थी, 

बच्चे सभी मां के ज़्यादा करीब थे, जो कुछ उन्हें चाहिए होता, मां के पास ही फरमाइश करते और मां तो उनकी अलादीन के जिन्न से ज़्यादा तेज जो हर फरमाइश को झठ से पूरा कर देती।।

पाठक जी कभी कभी पंडिताइन को बोल भी देते थे इतना दुलार प्यार मत दिखाओ लेकीन मां की ममता और प्यार अपार होती है। उसके लिए तो बच्चों को ख़ुशी से बढ़कर कुछ भी नहीं होता है।। 

धीरे धीरे समय बीतता गया बच्चे बड़े होते गए, बेटी की शादी एक अच्छे से घर में हुई 3 बेटों की भी हो गई, लेकीन कोई भी लड़का योग्य नहीं निकला या यूं कहे कि 

"पिता की कमाई खाने वाले ही निकले"।। 

पाठक जी कभी कभी चिल्ला उठते लेकिन पंडिताइन उन्हें समझाती अरे बच्चे है जब खुद के बच्चे होंगे तब तक संभल जाएंगे।।

पाठक जी एक बात हमेशा कहते थे कि अत्यधिक प्रेम इनके प्रगति का अवरोध बन सकता है।।

 माता पिता पुत्र की शादी उनकी खुशी, और ज़िम्मेदारी बाटने के लिए किए थे लेकिन उन्हें क्या पता की उनका खुद का घर ही बट जाएगा,

उनकी धर्म पत्नी जिससे संसार में वो सबसे अधिक प्रेम करते है, वो तक उनसे दूर हो जाएगी।।

जिस पिता ने बच्चों को कभी भार न समझा हो, ना कभी रोका ना टोका हो किसी भी कार्य के लिए उन्ही बेटों ने मिलकर अपने पिता को दुनियाँ का सबसे बड़ा भार घोषित कर दिया, पाठक जी अकेले अपने परिवार जिसमें उनके माता पिता, बच्चें, पत्नी, बुआ, भाई बहन, सभी का एक समान भरण पोषण किया, वही परिवार वही बच्चें धीरे धीरे जैसे जैसे समय बितता गया पाठक जी और उनकी पत्नी का भरण पोषण ना कर सके.. 

"अकेले होकर भी पाठक जी सबका एक जैसा ख्याल रखते थे,

मै आजतक समझ ना पाई कैसे वो ये कमाल करते थे।।

इतनी ईमानदारी पे भी आंसू पीते चले गए

ऐसे में भला वो कैसे जीते चले गए"

पाठक जी के पास चाहे चार पैसे ही क्यूँ न बचे रहे आख़िर के वे उनमें भी बच्चों की खुशियों के बारे में पहले सोचते थे। 

और आज चार बच्चें मिलकर पाठक जी और उनकी पंडिताईन का ख्याल नहीं रख पाए तो उनकी खुशियाँ बहुत दूर की बात है, पाठक जी अपनी पत्नी से हमेशा एक बात कहते थे कि. 

"जैसे जैसे बुढ़ापा मुझपे छा रहा है

वैसे वैसे मेरे बच्चों की मुसीबतें बढ़ा रहा है।। 

कि मुद्दतों बाद मैं तो उनका जीवन जीने वाला था

एक अरसे बाद ही सही अब मैं ख़ुद बच्चा बनने वाला था।। 

पाठक जी को कभी अपने बच्चों से ये उम्मीद थी नही की उनका ख्याल रखे बस वो चाहते थे कि वो बच्चे बस अपनी माँ का ध्यान रखे, क्योंकि पंडिताईन बहुत प्रेम से बच्चों की परवरिस की थी, और वो ये सब बर्दाश्त नही कर पाती।। किंतु ये महज उनका एक भ्रम था एक स्वप्न की भाँति आया क्षण भर में आँखों से ओझल हो गया।। 

बुलन्दियों की सीढ़ियों पर बच्चें जब चढ़ रहे थे

उनके सिर से माँ बाप के हाथ उतर रहे थे।। 

अंततः हुआ ऐसा जो शायद पाठक जी ने कभी सपने में भी नही सोचा, ना ही ये घटना कभी घटित हुई हो किसी के साथ, 

क्योंकि समान्य तरीके से तो हर घर में थोड़ी बहुत नोक झोंक होती रहती है किंतु जो पाठक जी के साथ हुआ वो अब तक किसी के भी साथ नही हुआ था।। 

पाठक जी जिससे सबसे अत्यधिक प्रेम करते थे यानी की उनकी धर्मपत्नी वो उनसे दूर हो गयी, जिसका उनको गहरा आघात लगा।। दुनिया में सबसे प्यारा व्यक्ति अगर आपसे दूर होता है तो आपको कैसा लगेगा तो ज़रा सोचिये पाठक जी की क्या हालत हुई होगी।।

दुनिया में सबसे बड़ा रोग है "पुत्र मोह " इस मोह ने एक संहार तक करा दिया, इस मोह में ना जाने कितने जोड़े को अलग कर दिया। प्रकृति के साथ झेडझाड़ करने से उथल पुथल हो जाती है दुनिया कुछ ऐसा ही हुआ पाठक जी के साथ।

जिस प्रकार शरीर के बिना आत्मा और आत्मा के बिना शरीर निर्थक होते है ठीक वैसे ही पंडिताईन के बिना पाठक जी. 

ना जाने कितने कलेश, कितनी लडाइयां और अनगिनत कुर्बानियां शायद उनका जिक्र करना हमारे लिए मुमकिन ना हो पाए. 

पति पत्नी में अगर मतभेद होता है तो बच्चें ज़रिया होते है मिलाप का लेकिन यहाँ मतभेद कारण ही खुद पाठक जी के बच्चें, पाठक जी ने खूब समझाया पंडिताईन को लेकिन हद से ज़्यादा झुकना शायद पाठक जी के स्वाभिमान को मंजूर नही, अब वक्त था एक कठिन फैसले का या यू कहे कि नियति ने यही लिखा था। 

पाठक जी ने किसी को रोका नही जो जितना जिससे बन पाया सबने अपने अपने हिस्से का समान उठाया और निकल गए, पाठक जी रह गए अकेले 

पंडिताईन ने जाते हुए बस इतना कहा  "मैं जानती हूँ कि मेरा अत्यधिक प्रेम इनके लिए अवरोध उत्पन्न करेगा, और आपके लिए भी अब आप स्वतन्त्र है"🌻

आंगन के बीचो बीच गद्दा लगाए बैठे पाठक जी बस सबको जाते हुए दरवाजे़ से देखते गए, और एक बार भी किसी ने पीछे मुड़ कर नही देखा।। कुछ दिन बनारस में गुज़र जाने के बाद पाठक जी वहाँ का मकान बेच के गाँव निकल गए, और गाँव जाकर निस्वार्थ भावना से सबकी सेवा में लग लगे।। 

धीरे धीरे 16 साल गुज़र गए, पाठक जी ने अपने पैत्रिक गाँव में एक नाम काम सब बना लिया था, कोई भी लड़ाई झगड़ा हो सब पाठक जी सुलझाते, किसी को एक छोटा सा भी काम करना होता तो पाठक जी से पूछ के करते।। गाँव में पाठक जी ने बच्चें बच्चियों के लिए स्कूल खुलवा रखा था, कभी कभी तो खुद बच्चों को पढ़ाने लग जाते थे, कभी कभी अपने पोते पोतियों के बारे में सोचते की वो सब भी ऐसे बड़े हो गए होंगे जिन बच्चों ने अपने दादा को देखा नही उन बच्चों को बड़े प्यार से समझाते, बताते उनका सम्मान करनाकरना सिखाते।। 

एक दिन उनके इस काम को सरहाने के लिए डीएम ने अपने घर खाने पर बुलाया, समान्यतः होता है किसी श्रेठ व्यक्ति द्वारा किये गए कार्यो को प्रोत्साहित करना चाहिए।। 

हालाँकि पाठक जी जाना तो नही चाहते थे क्योंकि उनको शहर गए लगभग 16 साल हो चुके थे वो नही चाहते थे की कोई भी जख्म ताज़ा हो, जिस  दिन उन्हे शहर जाना था खूब जोरों की बारिश हो रही थी सुबह से अचानक एक बच्ची की तबियत ज़्यादा खराब होने के कारण उसे शहर जाना था साधन ना होने की वजह से लोग पाठक जी से मदद मांगने आये, पाठक जी ने अपना वाहन उन्हे ले जाने हेतु दिया तभी पाठक जी की देखभाल करने वाले छोटू ने कहा बाबा आपको भी तो जाना था डीएम के यहाँ चलिए साथ में चला जाए, पाठक जी ने हा किया और सब निकल पड़े शहर की ओर पहले पाठक जी ने बच्ची को हॉस्पिटल में भर्ती कराया ताकि सही उपचार हो सके, और फिर डीएम से मिलने पहुँचे 

बारिश अब थम चुकी थी, डीएम के यहाँ गेट पर सभी को पता था की आज पाठक जी आने वाले है, जैसे ही गाड़ी गेट पर पहुँची गार्ड ने उन्हे पहचान लिया और उनका स्वागत करते हुए उन्हे अंदर ले जाने लगे, 

आज पाठक जी को डीएम आवास पर सब कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था मानों की उन्हे खुद कोई अपने घर में ले जा रहा हो, बाहर की तरफ़ चारों ओर बगीचे ही बगीचे जहाँ खूब सारे पेड़, फूल पत्ते लगे हुए थे, 

पाठक जी हर एक क्यारी को बड़े ध्यान से देख रहे मानो वो खुद बना के गए हो तभी डीएम आती है और उनका स्वागत करती है, 

डीएम - आखिर कार आपसे मुलाकात हो ही गई। । 

पाठक जी - जी ऐसा बिल्कुल नही लग रहा है कि मै यहाँ पहली बार आ रहा हूँ, सब कुछ बिल्कुल मेरे जैसा है, जैसा मै फूल पत्तियों को सहेज के लगाता हू उनका ख्याल रखता हूँ बिल्कुल वैसा ही है ( पाठक जी को एक पल को लगा वो उन्ही का अंश तो नही) ऐसा सोचते हुए उन्होंने पूछ लिया।। 

आपके परिवार वाले कहा से है साथ है या कही दूर

डीएम - जी मैं बिहार से हूँ, और परिवार सब बिहार में है और आप जैसे मेरे भी बाबा थे लेकिन अभी कुछ महीने पहले ही उनका देहांत हो गया।। 

पाठक जी - ( एक लंबी सांस लेते हुए) ये बगीचा किसकी देख रेख में है।। 

डीएम - जी हमारी अम्मा के, आइये अपनी अम्मा से मिलवाते है और उनके हाथ का खाना भी खाइये बहुत लज़ीज़ पकवान बनाती हैं। 

खाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी टेबल पर थालियां लग चुकी थी, पाठक जी को खाने की खुशबु आनी शुरू हो गयी थी, 

लगता है आपकी अम्मा बहुत अच्छा खाना बनाती है खुशबु से पता चल रहा है।। 

पाठक जी ने जैसे ही एक निवाला खाया उन्हे एक क्षण भी न लगा ये जानने में की ये पकवान तो बिल्कुल उनकी धर्मपत्नी जैसा बनाती थी ठीक वैसा ही है। उन्होंने कहा अपनी अम्मा को बुलाइये उन्हे भी खाने को कहे।। 

डीएम - अम्मा मेरे साथ कभी खाती नही दरसल वो यहाँ 15,16 साल से है खाना की वजह से उनको यहाँ से हटाया नही गया, जिस भी अधिकारी की यहाँ पोस्टिंग होती है वो सभी को बड़े प्रेम से खिलाती है, और सारा काम इस उम्र में भी ख़ुद करती हैं, पूरे बगीचे को की देखभाल एक बच्चे के जैसे करती हैं। हम सभी उनका बहुत सम्मान करते है।। 

कभी अपने बारे में कुछ बताती नहीं, और कोई पूछता भी नही और इस बार तो मैंने सोचा है की अगले हफ्ते मेरा तबादला होने वाला है तो मैं उनको लेकर अपने साथ जाऊंगी, 

क्योंकि मैं उन्हें अपने से अलग नही रख सकती उनकी देखभाल अब खुद करूँगी।। 

ऐसा सुनकर मानों पाठक जी के पैरों तले जमींन ही खिसक गयी 16 साल पहले पुत्र मोह में पंडिताईन उन्हें छोड़ के चली गयी थी तो यहाँ कैसे, अब दूसरा निवाला उनके गले से नीचे ही नही उतर रहा था, गला एकदम रुंध गया था, मन कर रहा था की खाने को छोड़ पहले जाए रसोईघर में देखे की उनकी ही पंडिताईन है और क्या हुआ उनके साथ कितना कुछ झेला होगा बहुत सी बातें उनके मन में घूम रही थी।। 

पाठक जी जैसे तैसे करके उठे और वहाँ से निकल गए गाँव आते हुए पूरे रास्ते बस पंडिताईन के बारे में सोचते रहे की कैसे 16 साल बीत गए उन्होंने एक बार भी खोज खबर नही ली, अपने अहम में इतने मगन थे की बेटे भी आते पैसा या राशन ले जाने तो पत्नी के बारे में पूछना ही भूल गए.. 

गाँव पहुँचते ही पूरी रात बस पंडिताईन के बारे में सोचते रहे पूरी रात सो नही पाए, जैसे ही सुबह हुई नहा धोके तैयार हुए और छोटू को कहा गाड़ी निकालो डीएम आवास चलना है।। 

गाँव से बनारस शहर 30 किलो मीटर की दूरी पर था पर ना जाने क्यूँ सफ़र अब बहुत लंबा लग रहा था, जैसे तैसे करके डीएम आवास पहुँचते और वहाँ बहुत भीड़ लगी थी।।  पूछताछ में पता चला आज सुबह सुबह अम्मा चली गयी जो बगीचे में अक्सर घंटों बिताया करती थी, खाना बेहद स्वादिष्ट बनाती थी, पाठक जी के पैरो तले तो जमीं ही खिसक गयी वो वही बैठ गए, तब तक डीएम साहिब भी आ गई उनके पास आके उनको उठाया और कहा अम्मा ने कभी कुछ भी बताया नही मैं हमेशा पूछती थी तो रो देती लेकिन कुछ बताती नही, कल आपके जाने के बाद वो रो रही थी मुझे स्टाफ ने बताया तो मैंने उनसे पूछा कई बार तब भी उन्होंने ने नही बताया, रात को खाना खाने के बाद वो मेरे पास आई और कहा ये चिठ्ठी पाठक जी को दे देना।। 

और मैंने उनसे कुछ भी नही पूछा, 

पाठक जी चिठ्ठी लेकर पढ़ने लगे

प्रणाम 

"प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि वह पर्वत को हिला दे, इसे बस पहचानने भर की देर है, वास्तव में प्रेम ही परमात्मा है, यह मर्म समझ जाएं तो दुःख में भी आप अपनी मुस्कान बनाएं रख सकते है, जैसे की मैंने किया आपसे अलग होने के बाद लगा की तीनों बेटों के साथ रहूँगी तो शायद ये कठिन समय गुजर जायेगा किंतु ऐसा हुआ नही, बच्चों के पास समय नही था उन्हें बाहर निकलना था तो सब आश्रम में छोड़ मुंबई चले गए, जैसे तैसे करके मैं मैदागिन, मकान पर गयी तो पता चला आप यहाँ से चले गए मैं टूट कर बिखर गयी थी कुछ दिन तो मंदिरों में गुजारे फ़िर आश्रम गयी, वहाँ जीविकापर्जन हेतु कुछ न कुछ करना था तो वही काम करने लगी, एक बड़े से साहब आये तो उनको मेरे हाथ का खाना अच्छा लगा बोले अम्मा मुझे खाना बनाकर खिलाओगी, तो उनके साथ यहाँ आ गयी और सबकी देखभाल करने लगी प्रेम पूर्वक, सभी मुझसे बहुत प्रेम करते है यहाँ, 

मेरा मानना है कि मुश्क़िलों में भी आप मुस्कुरा सकते है हालाँकि ये एक तप से कम नही होगा।क्योंकि इससे सहनशक्ति बढ़ती है। इससे किसी भी मुश्किल घड़ी में भी हिम्मत मिलती है। 

यदि किसी रात आप ठीक से सो नही पाते है तो विचलित हो जाते है, निः संदेह नींद पूरी नही होने पर थकान महसूस होगी, दरसल में आपको थकान नींद पूरी न होने से नही बल्कि इसे सहज रूप में स्वीकार न करने से होता है, स्वीकारने से कुछ आसान होता है, ठीक वैसे ही हमारे बेटों ने जो किया वो स्वीकार करना मुश्किल था लेकिन सब कुछ जानते हुए मैं उनके ही साथ गई तो मुझे मेरे किये की सज़ा मिलनी ही थी, क्योंकि आपका मेरे प्रति निःश्वार्थ प्रेम था, और मेरे प्रेम में मिलावट आ गयी थी। 

कुछ लोग दुःखों से बचने के लिए आत्महत्या कर लेते है कई बार सोचे लेकिन गंगा जी को प्रणाम कहकर वापिस आ जाते थे, लगा की यह समस्या का हल नही है यह मात्र अज्ञानता है। जीवन जीना है तो जिंदगी को हर परिस्थितियों में हँसके मुस्कुराके जिये.. 

आपके प्रेम ने जिंदगी के 82 वर्ष तक साथ दिया उम्मीद है आगे भी आपका प्रेम बना रहे।अब बाकी का बचा जीवन पाठक जी आपके साथ जीना है, आपके बगीचे को बिल्कुल आपके जैसा बनाना है और आपको खिचड़ी ज़्यादा पसंद है तो वही खिलाना है और इस बार  नमक कम ही रखेंगे हम"।।

मुस्कान के साथ

आपकी अपराधी 

पंडिताईन


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