अलगाव
अलगाव
अरे शिवपूजन, क्या कह रहे हो आखिर दोनो भाई अलग हो हीं गये। हाँ हमको तो विश्वास नहीं होता है। देवनाथ पिपल पेड़ की छाया को घूरता है। चबूतरे पर कोई हाथ-पैर ढिला कर लेटा हुआ है तो कोई बैठे सुस्ता रहा है। त्रिलोचन कहता है।
इसमें विश्वास की क्या बात है यह तो घर-घर की कहानी है।
गरमी का मौसम अपनी रौद्रता से पशु-पक्षी को जीभ निकालने को मजबूर कर रही है। त्रिलोचन तथा शिवपूजन खेतों मे गोबर यहाँ-वहाँ फेंक रहे थे। पसीने से तर – बतर। धूप एकदम जलाए दे रही थी। जेठ अपने समाप्ती के कगार पर खड़ी थी। बस इन्तजार थी आकाश काला होकर एकबार धरती की प्यास बुझाए और वे बैलों के कंधे पर पालो चढ़ाए आनन्द से झूम उठे। सूरज देव अब खेतों में रहने नहीं देंगे। चलो चलते हैं थोड़ा पिपल बाबा के छाया में सुस्ता लें। खंचिया लेकर छाया में गमछी डोला – डोलाकर आराम कर रहे हैं। इधर – उधर की बातें करते दिनेश और रमेश दोनों भाइयों की बात करने लगे। इन दोनों भाइयों के बीच बंटवारे की चर्चा करना स्वप्न के समान लगती है। इनके प्रेम और स्नेह पर लोग ईर्ष्या करते थे एवं कहा करते थे – भाइयों का मेल हो तो ऐसा। परन्तु आज ऐसे क्या हो गया न झगड़ा न किसी प्रकार का विवाद। पंचों के सामने शांति के साथ खेतों का घर का, बर्तन-बासन आदि का आपस में बांट-बखरा कर एक नदी कल-कल करती हुई दो किनारे में सिमट गई।
पेड़ की डाल पर पक्षियों की चहचहाहट थोड़ा गड़बड़ाता सा दिखता है और एक घोसला थपाक से नीचे गिर पड़ता है। देवनाथ गिरे हुए घोसले को देखकर दुखी हो जाता है क्योंकि उस घोसले में दो अण्डे थे जो फूट चुके थे। रमेश-और दिनेश दोनों के माता-पिता मात्र तीन बिघा ज़मीन के काश्तकार मेहनती एवं संतोषी स्वभाव के थे। उनको ज्यादा कुछ नहीं बस दोनों बेटों को सच्चा आदमी बनाना चाहते थे और सफल भी हुआ। रमेश और दिनेश दोनों अपने-अपने स्वभावानुसार रमेश किसी तरह अष्टम श्रेणी पास कर पिता के साथ खेतों में हाथ बंटाने लगा तथा दिनेश बी.ए. प्रथम वर्ष परीक्षा देकर हीं फौज में भर्ती हो गया। उस छोटे से गाँव में खुशी की लहर छा गई। गाँव के लोग कहने लगे कि हमारे यहाँ तो सचमुच में जय जवान – जय किसान रहते हैं। सबसे ज्यादा खुशी तो मिली तब जिस दिन दिनेश को राष्ट्रपति के द्वारा अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। दिनेश काश्मीर के नौशेरा में तैनात था और आतंक - वादियों के सिमापार से कई घुसपैठियों को खदेड़ भगाया। उसकी सूझबुझ और साहस ने गाँव का नाम रौशन किया। दोनों भाइयों को देख गाँव वाले अपने बच्चों को भी जय जवान – जय किसान बनाने के स्वप्न देखने लगे। दोनों भाइयों की शादियाँ हो गई और दोनो बहुएं सुशील एवं नेक थी । मिलजुलकर रहती थी। कोई झगड़ा या विवाद कभी नहीं हुआ। दिनेश ने अपने बच्चों तथा रमेश के बच्चे को स्मार्ट बनाने के लिये कुकुरमुत्ते की भाँति उगनेवाले अंग्रेजी माध्यम को अच्छे स्कूल में भर्ती करवाया तो रमेश भी छोटे भाई की लाडली बिटिया के नाम पर बैंक में एक बड़ी रकम रेकरिंग जमा कराई। फिर एक दिन माता-पिता चल बसे। दोनो भाई मिलजुल कर रहने लगे।
दिनेश प्रायः छुट्टियां लेकर गाँव आ जाता और दस-पन्द्रह दिन तक रमेश के साथ खेत के काम में हाथ बंटाता। इससे उसका मन भी बहल जाता और रमेश भी गर्व से फूला न समाता। मन हीं मन ईश्वर को धन्यवाद देता जो दिनेश ऐसा अनुज मिला। रमेश में दिनेश को अपने पिता का रुप दिखाई देता था। बड़े भाई के स्नेह पाकर इतराता था वह। ऐसी हीं छुट्टी लेकर इस बार बैसाख में आया कि बैसाखी ताड़ी ने बिगाड़ कर रख दी उसकी गाड़ी। रवि की फसल खेतों से उठकर खलिहान में और वहाँ से अनाजों को कोठिय़ों को सौंपी जा चुकी थी। हरियाली के नाम पर बगिचों में लगे आमों के पेड़ जिसमें रस से भरी पीला -पीला, लाल-लाल बड़े-छोटे पके आम झूल रहे थे। देखने वाले के जीभ में अनायास हीं लार टपकने लगती है। दोपहर होते-होते गर्म हवाएँ चलती । दूर-दूर आँखें दौड़ाने पर पलकें स्वतः हीं बन्द हो जाती है। पशु-पक्षी ग्रीष्म से इतना ज्यादा दिल लगा बैठे थे कि दोपहर को स्वतः हीं डैनों को फुलाए बैठे रहते थे।
अपरान्ह की गति अस्ताचलगामी की ओर जा रही है। चबूतरे के पास बच्चे खेल रहे हैं जिनमे रमेश-दिनेश के बच्चे शामिल हैं। रमेश बगिचे से घर लौट रहा था। उसे देख उसके घर के बच्चे – पापा आ गए, बड़े पापा आ गए कहते हुए दौड़ पड़े। उन्हे पता था कि रमेश उनके लिए पके आम लाया होगा और यह सत्य भी था। रमेश बच्चों के हाथ में पके आमों को देता है। बस यहीं पर उस परिवार को राहू की वक्र दृष्टि ग्रास लेती है। रमेश बच्चों के हाथों में रसीले आम बांट रहा था, दिनेश के बेटे के हाथ में जो आम था उसमे थोड़ा धूल लगा दिखा और रमेश धूल झाड़कर अपने बेटे को तथा उसके बेटे का आम भतिजे के हाथ देता है। इसी अदला-बदली के समय दिनेश वहाँ से गुजरता है और उसकी आँखें इस घटना को देख लेती है। राहू अपना काम कर दिया। दिनेश को लगता है भैया उसके बच्चों को साथ भेद-भाव कर रहा है और रात को भोजन करते समय अपना निर्णय सुना देता है कि भैया अब हमलोगों को अलग हो जाना चाहिए। रमेश हक्का-बक्का। वह दिनेश से कारण पूछता है पर अनूज से कोई उत्तर न पाकर बुझे मन से आत्म-समर्पण कर देता है। सबसे ज्यादा आघात दोनों बहुओं के हृदय पर होती है क्योंकि जबसे वे इस परिवार में आई है किसी भी प्रकार का कोई ठोना-वादी नहीं हुआ था फिर न जाने आज कौन सा आसमान फट पड़ा जो अलग होना पड़े।