Mukul Kumar Singh

Inspirational

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Mukul Kumar Singh

Inspirational

कनकट्टा

कनकट्टा

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नीलाम्बर के आँखों से आँख मिलाये बंगाल सिन्धु किसी से कम नहीं हैं जिसके वक्ष स्थल पर उठती-गिरती जल तरंगे अपनी तटों पर टकराती हैं तो हृदय कांप तो अवश्य जाती है पर उतनी बुरी नहीं कि एक बार कोई इसे देख ले और पुनः यहां आने से जी चूराने लगे। असंभव हैं कारण इसका तटीय सौन्दर्य इतना सुन्दर है कि जो एकबार यहां आ गया तो बार-बार यहां आना चाहेगा। किनारे नहीं कहूंगा । अनगिनत नदियों का संगम स्थल ने असंख्य द्वीपों का निर्माण कर विशाल वनांचल की सृष्टि की है और अपने विशेषताओं से पुरे विश्व को अपना रसपान कराती हैं। हालांकि इसके सभी द्वीपों में मानव निवास नहीं है कारण इसकी अरण्य सम्पदा घने वन से आच्छादित गरान,गेउंवा,हेताल,होगला तथा विख्यात सुन्दरी वृक्ष औरमगर,घड़ीयाल.अनगिनत विषाक्त सांपों, कीड़े-मकोड़ें व रॉयल बंगाल टायगर का निवास स्थल है। जिन द्वीपों में मनुष्यों का वास है ऐसे हीं एक गांव को केंद्र करके अपनी लेखनी को शब्दों का जाल बिछाने को बाध्य कर रहा हूं –निमाई सरदार एक किसान जिसके परिवार बोलकर पत्नी , दो पुत्र गौरांग व निताई तथा एक पुत्री कमली। कृषि योग्य थोड़ी सी जमीन और मछलियां  पकड़कर बेचना हीं उसका पेशा है। दूर-दूर तक नाव लेकर समुद्र में चला जाता था। समुद्र की लहरें जैसे उसका मित्र हो और उससे मन की बातें करता है। मछलियों के आड़त में जब भी जाता सारे आड़तदार उसे अपना मानते हैं। वैसे बात-चित करने में निमाई भी बड़ा कुशल था। कहा जाता है सुख और दुःख दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। निमाई की परिवारिक नैया बड़े मजे से सागर के वक्षस्थल पर तैर रही है। गौरांग की उम्र सत्रह तथा निताई पांच वर्ष छोटा।

दोनों भाई एक हीं स्कूल में हैं, गौरांग नवम श्रेणी और निताई पांचवी श्रेणी का छात्र था। गौरांग पिता के कामों में हाथ बंटाना शुरु कर दिया था जिससे रोजगार में श्रीवृद्धि होने लगी। फलतः निमाई बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए योजना को मूर्त रुप देना चाहा परन्तु विधाता कुछ और करने की योजना पहले हीं तैयार कर चूका था। एकदिन ऑयला नामक शक्तिशाली चक्रवात के सामने सपनों का घरौंदा तिनके की भांति ढह गया, सुन्दरवन की सारी सुन्दरता को छीन लिया । चारो तरफ सामुद्रिक जल का साम्राज्य और रोते-बिलखते मानवी काया,मृत देहों के अम्बार दिख रहे हैं। बस इन शवों की आकृति देखकर इतना हीं कहा जा सकता था कि यह मनुष्य है और वह पशु। बचे हुए लोगों की सूचि में कोई भी व्यक्ति ऐसा न था जिन्होने अपने परिवार के किसी सदस्य को न खोया हो । प्रकृति ने अपनी ध्वंस क्रिया में धन-जन की क्षति का जो रुप बनाया उसमें कहीं भी कोई भी एक घर की छप्पर नहीं दिखी। जीवित बचे हुए लोगों में अपने स्वजन की खोज में भूखे-प्यासे आशा की किरण लिए इधर-उधर सर पटक रहे थे। परन्तु हताशा हाथ लग रही थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में उद्धार एवं सहायक संगठनों का रुप अद्भूत थी जहां उनकी मानवीयता राजनैतिक सत्ता में बने रहने की परिकल्पना से परिपूर्ण। जो भी त्राण सामग्री अमूक झण्डे के छत्रछाया में हीं दिए जायेंगे दूसरे को नहीं देने देंगे। कुछ ऐसा सोचकर छीना-झपटी हो रही थी। हां एक चमत्कार देखी जा रही थी कि एक-दो नौकाएं ऐसी थी जिन पर सवार उद्धारक गण सर पर सफेद टोपी पहने कुछ विशेष लोगों की हीं त्राण सामग्री दे रहे थे इनसे कोई उलझ नहीं रहे थे क्योंकि यह राजनैतिक नेताओं की कृत्रिम धर्मनिरपेक्षता को कवच प्रदान करेगी अर्थात प्राकृत्रिक आपदा में मानवीयता के साथ भेदभाव को बढ़ावा देने का प्रयास चल रही थी। देश का दूर्भाग्य है सभी एकता-समरसता की बात करते हैं पर वास्तव में कथनी एवं करनी में अन्तर होता है।

निमाई सरदार अपने स्वजनों की तलाश में काफी भटकने के बाद एक-एक करके पत्नी, छोटा पुत्र निताई और पुत्री कमली से मिलन हो जाता है पर गौरांग का कोई पता नहीं।पुत्र वियोग में पत्नी अर्द्ध विक्षिप्त हो जाती है। दुःखों का पहाड़ सामने। सरकारी सहायता तो जरुरतमन्दों को मिलता हीं नहीं। निमाई कुछ नकद राशि की आशा में इससे-उससे मिलता है पर असफल। किसी तरह से कैम्प में आश्रय मिली और भोजन, वस्त्र भी। परन्तु ऐसी सहायता उसके गले नहीं उतरती है। कारण जो परिश्रम की पूजा करते हैं उनके लिए सरकारी सहायता पाने हेतू राजनैतिक कार्यकर्ताओं कें सामने हाथ फैलाना पसन्द नहीं करते हैं। धीरे-धीरे जल साम्राज्य का पतन हुआ तो सबसे पहले अपनी जमीन पर सर छुपाने कुटिया का निर्माण जो अस्थायी था।। संग हीं संग खेतों में फसल बोने का काम नहीं होगा इसलिए पुनः मछलियां पकड़ना प्राम्भ कर दिया और आड़त ले जाने लगा। कहावत हैं जो अपनी सहाता स्वयं करता हैं ईश्वर भी उसी की सहायता करते हैं। उपार्जन का रास्ता खुला तो आड़तदारों ने भी उसकी मदद की। अब उसने अपने कुटिर को स्थायी रुप दिया। पत्नी की चिकित्सा तथा गौरांग को ढूंढना उसके जीवन का लक्ष्य वनकर रह गया।। निताई एवं कमली घर पर रहकर मां की देखभाल करने लगे। दोनों को अपने भैया गौरांग को अधीक दिनों तक साथ न पाकर उनके बाल मन को बड़ा आघात लगता है परन्तु बाल्यकाल की कमी बहुत जल्द भर जाती है। दोनो भाई-बहन में भी परिवर्तन हुआ । हमेशा साथ रहना, साथ-साथ खेलना-खाना, मां की सेवा करना, घर का काम करना, जाल सुखाना एवं जाल कट-फट गया तो उसकी मरम्मत करना एवं पिता के कामों में हाथ बंटाना। कभी-कभार निताई गाँव के अन्य मौलियों के साथ जंगल की रूख करने लगा। उसका स्कूली जीवन समाप्त। धीरे-धीरे वह मधु संग्रह करने में विशारद और वनांचल ने उसे अपना संतान के रुप मे स्नेह रस से सिंचित कर दिया। जंगली जीव-जंतुओं के घात-प्रतिघात से भली-भांति परिचित हो गया। वहां के प्रत्येक वृक्ष उसे थपकियां देता ,लताए जैसे उसका सखी हो। वन्य जतुओं  की उपस्थिती को फौरन हीं भांप जाता था। तीन-चार वर्षों में हीं वनांचल हो या मत्सय शिकार मे लोग उसे जानने लगे। अब तो निमाई उसे अपने साथ रखने लगा और मधु संग्रह करने के लिए दायित्व प्रदान कर दिया। घने जंगलो की झाड़ियों में छिपे बाघों से कई बार सामना हो चुका था। निताई को बाघ का शांत भाव से चलते देखना बड़ा अच्छा लगता था। एकटक वनराज के शरीर संचालन, ज्वलंत आग उगलती आंखे, पूंछ पटकना तथा बाघों की गुर्राहटे उसे प्रिय लगती थी और यही विशेषता बाघों की शारीरिक भाषा को पढ़ने में वह सिद्धहस्त हओ चुका था। वन कुछ-कुछ पक्षियों का तो बंधु बन गया था जो उसकी उपस्थिती मात्र से पेड़ की डाली हो या झुरमूट –झाड़ी में कलरव की ध्वनि तीव्र सुनाई देती थी, डैनों की झटर-पटर आनन्द का संकेत देती थी। निताई की इस विशेषता से उसका पिता निमाई गर्व का अनुभव करता था। इसलिये वह सदैव कहा करता था कि बेटे ये हमारे देश के अनमोल धरोहर हैं इन्हे बचाकर रखना भी हम सबका कर्त्तव्य है।

एक दिन पिता-पुत्र मछलिओं का शिकार करता हुआ किसी नदी के मुहाने के किनारे सरकण्डे ऐसी घास वाले क्षेत्र में नौका लिए बढ़ते जा रहे थे। अचानक जल क्रिड़ारत एक जोड़ा बाघ दिखाई दिया जिसे देख निताई आनन्दीत हो उठा। पिता से कहा – बाबा,देखो-देखो कितना अच्छा लग रहा है । पर निमाई कुछ और हीं बुदबुदाता है, शैतान मनुष्य इसे भी समाप्त करते जा रहे हैं। निताई को पिता इस तरह बुदबुदाकर कहना अटपटा सा लगा। अतः पिता से पुछ बैठा कि क्या हुआ बाबा तुम किसको समाप्त करने की बात कह रहे हो।

किसी को नहीं रे बस लोभी शिकारियों के बारे में बोल रहा हूं। निताई अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपने पिता से पुनः प्रश्न करता है – अच्छा बाबा  शिकारियों को रोकने के लिए वन विङाग के पुलिस हैं वे क्या करते हैं। नाव का डांड़ चलते रहना की छपाक-छपाक आवाज और नदी के वक्षस्थल चिरने वाली चच्च-चच्च-चच्च शायद कुछ और हीं सेकेत दे रही थी। नाव आगे बढ़ रही थी। पिता-पुत्र दोनो हीं बाघ के जोड़े से दूरियां बनाए हुए थे क्योंकि ऐसी स्थितियों में किसी भी प्रकार की बाधा बाघों के लिए अप्रिय होती है और वे आक्रमण कर बैठते हैं। सामने नदी की बांक थी और किनारे झाड़ियो का घना आच्छादन। नदी की धारा पहचान कर निमाई जाल फेंकता है । जाल आहिस्ता-आहिस्ता जलराशि में समाता जा रहा है तथा नाव भी आगे बढ़ती जा रही है। कुछ समय पश्चात जाल की डोरी में खिंचाव तथा मछलियों का उछलना सामने प्रकट होने लगा। अब जाल से मछलियां निकाल कर हांड़ी में रखने का कार्य निमाई कर रहा था और पतवार निताई के हाथों में, हांड़ी को एक तरफ रख निमाई थोड़ा दम लेना चाहता है। कमर की टेंट से बिड़ी निकाल होंठो के बीच रख दियासलाई की तिल्ली से बिड़ी सुलगाया। गहरा कश लगाकर धुआं छोड़ता है,जो गोल छल्ला बनते हुए सर के उपर नीला आसमान सा छाता बन जाता है। तभी “दड़ाम” गोली चलने की आवाज और साथ हीं बाघ का गर्जन सुनाई दिया,दूसरी “दड़ाम” पुनः गुंज उठी। पैड़ों की डालियों एवं झाड़ियों में हलचल मच गई और पंक्षियों का दल पंखों को फड़फड़ाते विभिन्न दिशाओं की ओर पलायन करने लगे। दोनों बाप-बेटे चकित होकर आवाज की दिशा में को थाहने का प्रयास करते हैं। नैया का पतवार स्वयं निमाई थाम लिया और नौका को तेज गति धारा में मोड़ दिया । आधा घंटो की दूरी तय करने के पश्चात नाव की गति मंद पड़ने लगी तथा तटों की हरियाली फिका पड़ने लगा। शायद यह जंगल का अंतिम सिरा था। अब उतनी सतर्कता आवश्यक न थी। सामने हीं एक दूसरी नौका दिखी जो निमाई के हीं गाँव का और तीन सवार। “निमाई काका, आजका दिन कैसा गया खुछ मिला या नहीं”? एक तीस वर्षीय युवक की आवाज थी जिसका नाम तपन। दोनों नौकाएं पास-पास आ गई। तपन के नौका पर एक वृद्ध हूक्का गुड़गुड़ा रहा था एवं एक किशोर जो निताई का हमउम्र था। वृद्ध व्यक्ति ने अपनी हूक्का निमाई की ओर बढ़ाया। हूक्के को देख निमाई कीं आँखों में चमक आ गई लेकिन इस चमक पर नियंत्रण कर ली गई। इसी अंतराल में दोनो किशोर भी आंखों हीं आंखों में कुछ बातें कर चुके थे। जिसे तपन ताड़ जाता है और उसके नोका पर सवार किशोर को कहा –“ क्या रे रघु । क्या कह रहा है निताई को”। प्रत्युत्तर में सिर्फ “ना” वह भी गर्दन हिलाकर। तपन  अपनी हांड़ी को निमाई की ओर बढ़ाकर कुछ रुपयै की मांग करता है। हूक्के की गुड़गुड़ाहट थम जाती है और मछली वाली हांड़ी हिलाकर निमाई देखा । फिर उसने अपनी कमीज की जेब से रुपये निकालकर तपन को दिया और कहा –

“ अभी ये रख लो बाकी शाम को मिल जाएगी”।

“ठीक है काका”। तपन रुपये ले लेता है। दोनों हीं नौकाए मंद-मंद धारा में बहती जा रही थी।

थोड़ी देर पहले टोटे चलमे की आवाज तुमने सुना निमाई। दूसरी नाव में बैठे वृद्ध ने पुछा।

हां तारा दा। आज फिर बड़े मियां को गोली मारी गई है। अब देखना है किन-किन दक्खिने मछुआरे को बड़े मियां अपना शिकार बनाएंगे। लोग तो कहेंगे नर खादक बन गया है,मार डालना चाहिए। निमाई के शब्दों में आक्रोश स्पष्ट छलका उठी।

हुंह –नर खादक। खादक कौन है। बड़े मियां या सरकारी वन विभाग। मेरे सर के बाल सफेद हो चुके हैं यह सब देखते-देखते। वृद्ध के वाणी में व्यंग्य थी। निमाई मछलियों को  अपनी हांड़ी में रख लिया और वृद्ध की बातों के समर्थन में कहता है –

ठीक हीं कहते हैं तारा दा। इसी से तो वन-विभाग वाले बाघों को रेडियो कॉलर पहना दिया है ताकि चोर शिकारियों से मिलकर वनकर्मी हीं बड़ेमियां का शिकार कर अपना पेट मोटा करता है।

और यही लोग बड़ा उपदेश देते हैं, इन्हे भी जीवित रहने का अधिकार है। बाघों का शिकार दण्डनीय अपराध है। ............तपन भ इस क्षोभ में शामिल हो जाता है। अंतिम वाक्य थोड़ा विकृत कर कहा।

निताई और उसका हमउम्र दोनो हीं एक हीं नौका परआपस में गप-शप करने में व्यस्त थे। बड़ों की बातोंसे उन्हे क्या मतलब। परन्तु बाघ का शिकार-नरखादक आदि शब्द निताई के कानों में पहुंचा। न चाहकर भी यह दोनों शब्द उसके किशोर हृदयपटल में समा जाती है। इसलिए जब बाप-बेटे वापसी की ओर थे तभी निताई के मन में जिज्ञासा जागी बाघ नरखादक कैसे बन जाता है। और पिता से प्रश्न पुछ बैठा –

“अच्छा बाबा, बाघ बड़ा एवं सुन्दर जानवर है। उसकी गोल-गोल आँखों का पिटिर-पिटिर करते हुए देखना मुझे तो बहुत अच्छा लगता है, फिर वह नर खादक कैसे बन जाता है”!

“जानता है बेटा, हमलोगों का सुन्दरवन का बाघ भगवान का चमत्कार है। उसे प्रकृति ने मांसाहारी बनाया है। अपने भोजन के लिए अन्य पशुओं का शिकार करता है लेकिन मनुष्य को अपना ग्रास नहीं बनाता है”.............बेटे के मन की उत्सुकता को शांत करने के लिए उत्तर दिया।

“तो वह नरखादक क्यों बन जाता है”........ निताई पुनः पुछता है।

“नरखादक तो सुनो”। निमाई गहरी सांस लेकर कहता है। “नरखादक बाघ वही होता है जो अपना शिकार करने में असमर्थ हो जाता है और ऐसी स्थिती बुढ़े बाघों में हीं दिखाई देती है या किसी कारणवश बाघ अपाहिज हो गया हो और भोजन के लिए शिकार नहीं कर पाता है तब भोजन की जुगाड़ में लोकालय में प्रवेश कर गवादि पशुओं का शिकार करता है। परन्तु मनुष्यों पर आक्रमण नहीं करता है”।

“लेकिन बाबा तूम कहते हो मनुष्य पर आक्रमण नहीं करता है तब लोग उसे नरखादक क्यों कहता है”,.........निताई पिता को बीच में हीं टोकता है।

“क्योंकि मनुष्य हीं उसे लाचार बना डालता है और वनविभाग के कर्मचारी एवं चोर शिकारियों की मिलीभगत से बाघ को घायल कर दिया जाता है ताकि वनराज घने जंगल से बाहर आने के लिए बाध्य हो”।

“शिकारियों को कैसे पता चलता है कि बाघ किस स्थान पर है”.........निताई की जिज्ञासा शांत नहीं हुई।

“बड़ी साधारण सी बात है, रेढियो कॉलर तो बाघों के गले में लगी हुई होती है और इसी की सहायता से बड़े मियां की उपस्थिती, दूरी-दिशा का पता वन विभाग या तस्करों को होती है बन्दुक से गोली निकलती है और वनबीबी का दुलारा घायल हो जाता है। ऐसे अनगिनत बाघों की हत्या कर दी जाती है। कभी-कभी दो-चार रुपयों के लालच में गाँव वाले हीं इन्हे घेर कर मार डालते हैं एवं अपनी पिठ बचाने के लिए कह देते हैं कि लोकालय से गवादि पशुओं को खा जाया करता था। अतः बाघ अपनी प्राणरक्षा हेतू मनुष्यों के उपर आक्रमण करने लगा। आजकल तो जो ग्रामीण जंगल की ओर गया, उसके जीवन की आशा करना व्यर्थ मानते हैं। इस स्थिती के लिए दोषी तो हम मनुष्य हीं हैं क्योंकि अपने पैर पर कुल्हाड़ी स्वयं चाला रहे हैं और जब पैर कट जा रही हो तो दोष किसी अन्य के माथे पर मढ़ दी गई”.................पिता के व्याख्यान को पुरा समझ नही पाया। और जो समझा वह केवल इतना हीं कि बाघ को नरखादक बनाया जाता है,बाघ अपनी स्वभावानुरूपजल्द मनुष्य पर आक्रमण नहीं करता है और वल्कि वनकर्मियों की अर्थलिप्सा से बाघों की संख्या में गिरावट हो रही है।

        समय का चक्का कभी रुकता नहीं है और ना हीं किसी का इन्तजार करती है। वह आगे बढ़ती रहती है। सांस लेने के लिए भी थमती नहीं हैं। सुन्दरवन भी इसी के साथ कदम से कदम मिलाकर न जाने कितने घटनाओं को समाहित किये हैं कौन जानता है। बाघों से सहानुभूति रखने वाला निताई आज जैसे बाघों से प्रतिशोध लेने पर तुल गया है क्योंकि बाघ ने उसके जीवन में ऐसी आँधी लाई तथा उसे आज अकेले जीवन जीने को बाध्य कर दिया। सात-आठ वर्षों में अकेले जीवनधारण ने एक साहसी मौली बना दिया। वह एक जीवट मछुआरा बन चुका है एवं उसने प्रण किया है कम से कम एक बाघ को तो अवश्य मारेगा भले हीं मारा जाय या जेल हीं जाना पड़े। बीती घटना को याद करके उसकी आंखे जल उठती है जब तीन नौका का दल एक हीं जगह पर लंगर डाले घर वापसी की तैयारी कर रहा था अचानक निकट हीं गोली ,चलने की आवाज सनाई देती है। बड़े मियां की गर्जन से वह क्षेत्र कांप उठा। पहले झाड़ी में हलचल फिर आकाश में खगवृन्द डैने झपटाते हुए अलग-अलग दिशाओं की ओर उड़ गए। तीनों नौके के सवारी मधु संग्रह कर वापस तट तक पहुंच चूके थे बस थोड़ी सी दूरी रही होगी। अचानक झाड़ियों में अस्वाभाविक हलचल होता है तथा सिमाबद्ध जलक्षेत्र में छपाक शब्द सुनाई देती है। जल का रंग लाल एवं किसी बड़े जीव की हल्की सी छटपटाहट फिर सब कुछ ऐसा शांत हुआ जैसे कुछ हुआ हीं नहीं। उसी के साथ नजदीक झाड़ी में गुर्राहट एवं छलांग और एक मानवीय आर्तनाद सुनाई दिया। नौके में सवार नाविक सकते मे,किंकर्तव्यविमूढ़। जब चेतना का संचार हुआ तब उनके मध्य एक साथी नहीं था। निताई अचानक ....... मेरे बाबा कहकर फूट-फूट कर रोने लगा। डरे सहमे नाविकों के सामने समस्या थी निताई को सांत्वना देना और निमाई के मृत शरीर को किसी तरह वापस ले जाना। इसलिए पहला काम उन्होने निताई को समझाना शुरु किया--- निताई बेटा शांत हो जाओ। हम तुम्हारे बाबा को तो हम जीवित नहीं कर सकते । वन बीबी की जो ईच्छा थी वह पुरी हो गई। हम सब उसके बनाए माटी के पुतलें उसके आगे हम सब असहाय हैं। अतः अपने आपको सम्हालो,धैर्य रखो। रोना-धोना छोड़कर अपनी मां-बहन के बारे में सोचो। तुम्हारे सिवा अब उन दोनों का कोई सहारा नहीं बचा। इन बातों का प्रभाव तो निताई पर अवशय पड़ा पर क्रंदन का वेग थमने का नाम नहीं ले रहा था ,हां पछाड़े मारने में कमी आई। बार-बार आँसूओं के बीच पिता का चेहरा सामने आ-जा रहा था तभी उसके कानों में सुनाई पड़ा कि नौका में नाव में जो भी दा-कटारी,लाठी या सड़की है सब निकाल लो। अभी वह नरखादक ज्यादा दूर नहीं गया होगा, मृत शरीर को उसके पंजे से दूर करना होगा अन्यथा वह लाश को घने में खिंच लिया तो सब बेकार। इतना सुनना था कि निताई के शरीर में एक अजीब विद्युत तरंग प्रवाहित ने लगी। फौरन हीं नाव से टांगी,कटारी एवं हँसुआ निकाल लिया। अन्य दो नाव से एक धनुर्वाण,रामदाव,सड़की,हँसुआ तथा खुखरी से लैस होकर बड़े मियां से सामना करने के लिए आगे बढ़ गए जो नाविक सदैव सागर की लहरों से पंजे लड़ाता हो वह आवश्यकता पड़ी तो बड़े मियां को पछाड़ने की क्षमता ऱखता है। मृत्यु से निर्भीक एक मछली रखने वाली हांड़ी को पिटता हुआ जिसके पिछे निताई हाथ में खुखरी लिए मन में पिता के हत्यारे की हत्या करेगा बाकी के तीनों दिशाओं पर लक्ष्य बनाए आगे बढ़ते जा रहे हैं। हांड़ी पिटने की आवाज तीव्रतर होती जा रही है ताकी नरभक्षी परेशान होकर लाश छोड़ थोड़ी दूर चला जाय। सौभाग्य से वन विभाग का नौका भी इसी ओर चला आ रहा था और इस दल को देख कर पूछा— “क्या तुमलोगों में से कोई मिसिंग हो गया है”!

“हाँ बाबु। इस लड़के का पिता निमाई”

“निमाई, जिसका बड़ा लड़का खो गया है”!

“हां, रेंजरबाबु शायद आपने भी गोली चलने की आवाज सुना है”

“गोली” क्या इधर शिकारियों का दल गया है”!। पुछनेवाले वनविभाग कर्मिको का चेहरा एक बारगी बदला फिर सहज हो गया। इस बदलाव को नौकारोहियो ने भी अनुभव किया कि कहीं दाल में कुछ काला है। पर कुछ कर नही सकते हैं क्योंकि वन विभाग वाले सरकारी कर्मचारी हैं।

“नहीं मालुम। हमलोगों ने देखा नहीं। वो तो निमाई हमारे दल में सबसे पिछे रह गये थे। अचानक गोली चलने की आवाज सुनाई दी और उसी के कुछ क्षण बाद बाघ को छलांग लगाते देखा तथा आह शब्द हमारे कानों में। हमलोग डर गए। एक-गूसरे का मुँह ताकने लगूब पाया कि निमाई हमारे साथ नहीं है”।

“किस ओर छलांग लगी थी”

“उस ओर साहेब”। वनकर्मी दूरबीन आँखों पर चढ़ाता है तथा सामने तट से लगे झाड़ियों की ओर देखा। अचानक वह प्रसन्न हो कहा –

“अरे वो रहा,लाश की पीठ पर बैठा है”।

“सौमेन तुम सिधे नाव को आगे बढ़ा कर बाँयी तरफ घुमाओ और तुमलोग हाँड़ी पीटते-पीटते सावधानी के साथ आगे बढ़ो। डरने की बात नहीं है हमारे पास बन्दुक में गोली लोडेड है”।

“लेकिन सर, इसमे विपद की संभावना भी है”। एक वनकर्मी ने कहा

“ऐसा कुछ नहीं होगा। पहले उस पर बेहोशी वाली इन्जेक्शन फायर करेंगे। हमलोग वन्य जीव-जन्तुओं की रक्षा करते हैं उनकी हत्या नहीं। चलो आगे बढ़ो। टायगर का रिसीवर कांटा संकेत कर रहा है”। नाव में रखी हुई यंत्र से पीं-पीं की आवाज आ रही थी।

हांड़ी पीटने की आवाज धीरे-धीरे बाघ के कानों में जाने से उसकी मुंछे कांटे की भांति सख्त हो गयी। नथुनों की संचालन तेज हो गई। पलके स्थिर होकर कभी दांए कभी बांए घुम रही थी। क्रोध से आंखे लाल-लाल होकर जल रही थी और लाश के उपर बैठा पुंछ को इधर-उधर पटक रहा था। वन विभागवाले ईंजन को बन्द कर डांड़ का प्रयोग कर नाव को आगे बढ़ाए जा रहे थे ताकि बाघ आक्रमण न कर बैठे। अब तक बाघ बेहोशी के इन्जेक्शन के सिमा में आ चुका था। सबकी हृदय की धड़कने बढ़ती जा रही थी। बस थोड़ी औरनिकट-और निकट। हांड़ी पीटने की ढम्म-ढम्म भड़े मियां के लिए असह्यनीय हो चुकी थी। वह गरजा । पुनः गरजा। सारा जंगल कांप उठा। हांड़ी पीटनेवाले भी झाड़ियों में अपने को छिपाये सावधानी के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे । निताई तो एकदम खुखरी लिए तैयार था कि किसी तरह से बड़े मियां सामने आ जाये। ये मछुआरे अन्य दिन भी सावधान रहते थे पर आज तो वनराज के पंजे से कुछ छीन लेने की तैयारी थी। जान हथेली पर लिए धारदार अस्त्रों से लैस। थोड़ी सी चूक हुई कि पता नहीं दल का कौन सदस्य पुनः न लौटे। फिर एक बार गर्जन और वनराज लाश से उतर गया एवं झाड़ी की आड़ मे चला गया । हांड़ी पीटने वालों ने उसे देख लिया था। सांसे थमती जा रही थी कदमों में शिथिलता आ गई परन्तु साहस में कमी नहीं थी। हांड़ी को और भी जोर-जोर से पीटने लगे। नाविकों की आँखों में ईशारे हो गये और वे दो दल में बंट गये। एक दल बाघ के निकट एवं दूसरा दल लाश की ओर। वन विभाग की नाव भी निकटतर आ चूकी थी। फलतः बाघ बाध्य होकर अपना स्थान बदल दिया और गरजा। निताई का चेहरा कठोर, मन में केवल पिता के हत्यारे की हत्या।

परीक्षा की अंतिम घड़ी आ गई । समय का योग हीं कहा जाय ती कार्य एक साथ संपन्न हुआ। वन विभाग की ओर से बेहोशी की फायर तथा बाघ का छलांग हांड़ी पिटनेवालों की ओर एवं लाश की टांग पकड़ खिंच कर हांड़ीवालों की दिशा में। सब कुछ मिलकर गड्डमड्ड की स्थिति और मार डाल-मार डाल। पागल की भांति अस्त्रों के प्रहार ने वनराज को पलायन करने को बाध्य कर दिया । पता नहीं किसके अस्त्रों के प्रहार बाग का एक कान एवं एक टांग कट गयी। निताई ने भी पलायनरत वनराज को देखा कि वनराज कनकट्टा बन चूका है। निमाई की लाश को नौका पर उठा लिया गय़ा। सबने देखा कि निमई की गर्दन पर बाघ ने पंजे से आक्रमण किया था इसी से निमाई पुरी तरह से चिल्ला भी नहीं पाया था। पिता की मृत्युपरांत कई महीने बाद हीं मां भी चल बसी। समय किसी का इन्तजार नहीं करता है एवं मानव जीवन में घटनेवाली प्रत्येक घटनाए इसी कालचक्र भंवर मे चक्कर काटता  रहता है और चक्कर काटते-काट्ते कोई आघात जल्द भर जाता है। परन्तु किसी का चोट काफी दूर – दूर समय के साथ दौड़ता रहता है। समय ने निताई में परिवर्तन का ऐसा लहर उठाया था कि वह अपने जीवन के प्रति लापरवाह बन गया था। कई वर्षों के पश्चात छोटी बहन की गृहस्थी बसा दी। अब वह एकदम निठल्ला सा आगे नाथ न पीछे पगहा। दिन भर नान लेकर मछलियां शिकार करता या घने जंगल की खाक छानता जैसे किसी को ढूंढ रहा हो पर किसे, शायद वही जानता था। आर्थिक रुप से सम्पन्न हो चूका था। कभी-कभी छोटी बहन के ससुराल चला जाया करता था। दो-तीन दिन रहा बस। कमली उसकी छोटी बहन अपने इस भैया के लिए काफी चिन्तित रहती कि माता-पिता का साया तो अब रहा नहीं केवल निताई भैया को छोड़कर इस दुनियां में उसका मां-बाप-भैया सब कुछ तो केवल और केवल निताई भैया। अपने सास-ससुर-पति से आग्रह करती है उसकी बौदी अर्थात भाभी लाने के लिए पर निताई मना कर देता है। कमली एक दिन उसके घुटने पर पैर रखकर फफक-फफक कर रोई – “छोड़दा , तुम्हारे सिवा  मेरा अब कौन बचा। बड़दा का आज तक कुछ पता नहीं चला। बाबा को बाघ ने मार डाला,मां भी चल बसी। अन्य सभी लड़कियां अपने-अपने बापेर बाड़ी जाती है और मैं कहां जाउं”?

निताई का गला भी रूंध जाता है। बहन की ठोड़ी उठाकर आंसू पोछता है – “धत्त पगली रोते नहीं। अभी मैं जीवित हूं। तेरे लिए जीवित रहूंगा”।

“ठीक हीं कहते हो छोड़दा। तभी तो लोग कहेंगे कि मैंने हीं तुम्हारा घर बसने नहीं दिया और यह सुनकर मैं खुशा से पागल हो जाउंगी”। कमली बोली...........

“मेरी दुलारी बहना,लगता है किसी ने तुम्हे बहका दिया है”।

“नहीं छोड़दा। क्या मैं छोटी सी बच्ची हूं जो बहक जाउंगी। मैं रात में जब सो जाती हूं तब सपने में देखती हूं मैं अपने बाबा के घर आई हूं अपनी बौदी से बातें कर रहीं हूं तथा छोटे-छोटे दो-तीन बच्चे मेरे गले में लटक कर ओ पिसी-ओ पिसी कह - कह शोर कर रहे हैं और जैसे हीं उन्हे आदर करने के लिए हाथ बढ़ाती हूं कि आंख खूल जाती है। उठकर बाथरूम में जाकर रो लेती हूं ताकि कोई कोई यह न कहे की यह रोती है”।

निताई बहन के सामने निरुत्तर। कमली के हृदय-यंत्रणा को वह समझ रहा है पर वह करे भी तो क्या । अतः वह कमली को भूलाने के लिए कहता है...........

“अरे पगली,दुःख करने की क्या आवश्यकता है और फिर अभी समय तो भागा नगीं जा रहा है न। जरा एक बोट खरीद लूं तब देखा जाएगा। मैं दिन-रात मेहनत कर रहा हूं किसलिए”।

कमली एकटक अपने छोड़दा के चेहरे को पढ़ने का प्रयास करती है। ग्रीष्म आता है अपनी दाह से सकल जीव को संत्रस्त कर चला जाता है। वर्षा आई मन भर के खुब नाची, जब थक गई तो औरों का तमाशा देखने के लिए बैठ जाती है तत्पश्चात शरत् का आगमन होता है। शिरीष के फूलों की सुगंध एवं काश के फूलों की उपस्थिती से सुन्दरवन की सुन्दरता में चार-चांद लग जाता है और मां दुर्गा के ससुराल से मैके आने पर स्वागत करती है पर कमली कभी भी मां दुर्गा नहीं बन पाई। हृदय में कांटा सालता है। प्रत्येक दिन संध्यारती के समय आंचल पसारती है –“ हे जगजननी, मेरे बाबा के आंगन में बस तुम्हारी कृपा दृष्टि की बरसात करा दे मां”।

कम्ली की भावना को भली -  भांति निताई समझता है पर वह इन सबसे दूर कुछ और करना चाहता है। उसकी सोचों में –मन में पिता की मृत्यु अभू तक जड़ जमाये बैठा है। आज भी जंगल में भटकता – फिरता है सिर्फ और सिर्फ एक कनकट्टा बाघ। कब उससे सामना होगा। सामना होगा भी या नहीं सचमुच में अब तक जो किया है, सबके सब उसके पिता का था। माता-पिता मृत्यु के बाद कमली के लिए छोड़दा हीं सब कुछ था। बहन के किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, खुब परिश्रम करता है। कमली के लिए यह बात छिपा न था। इसलिए अपने भैया के भविष्य की चिन्ता में डूबी रहती थी कि कल को उसे यदि कुछ हो गया तो भैया का क्या होगा। उसकी एक सोच यह भी थी कि शायद भैया किसी लड़की को पसंद कर रखा हो और लड़की वाले उसके छोड़दा को नापसंद करता हो। ऋतूएं हंसते हुए आती है किसी को हंसाती है-किसी को रुलाती है। नदियों,सागर की लहरें,वन्य जीव-जन्तूओं के साथ वनवासियों के जीवन में आनन्द,शांति,उत्साह,रोमांच परिवर्तनशील मानसून इनके हृदय में निवास करता है। ऐसे हीं परिवर्तनों के बीच निताई को मानसिक शांति मिलती है। यहां तक की पशुओं की भाषा भी समझने लगा है। मधु छत्ते से मधु संग्रह करते समय मधुमक्खियों की भन्न-भन्न की ध्वनि से हीं समझ जाता है कि कौन कितना आक्रामक है। वनों के पेड़-पौधे के औषधिय गुणों के ज्ञान भंडार के कारण ग्रामिणों ने उसे कविराज के स्थान पर आसिन कर दिया है। परन्तु इस कार्य के लिए कभी भी शुल्क नहीं लिया। उसका जीवन नदि की बहती धारा बनकर नदी का किनारा ढूंढ़ रही है जहां उसे विश्राम मिलेगा। बारिश के दिनों में सागर में निम्न दबाव की बात अपने आप में अलग होता है। लगातार कई दिन कि रिम-झिम-रिम-झिम, दड़ाम-दड़ाम मेघों का गर्जनसबके हृदय को कँपा देती है। इतनै से हीं प्रकृति को प्रसन्नता नहीं होती है वन की ओर चमकती वज्र प्रहार, उठती-गिरती लहरें तेज हवाओं का शह पाकर नाविकों सहित नौकाओं को निगलने के लिए जीभ से लार टपकाती है। सभी मानवीय कायें घर में बैठे-बैठे उब जाते हैं तथा गृहबन्दी सजा से मुक्त भी नहीं हो पाते हैं। हल्की-हल्की फुहारे पड़ रही थी। निताई नाव लिए जंगल की ओर से बहती नदी या खाड़ी तरफ अग्रसर था। जाल नाव पर छोटा हीं लिया था ताकि बर्षा के समय कोई विपद आ भी जाये तो सहजता से उसका सामना कर सके। वैसे आज का दिन उसके लिए बड़ा अच्छा था क्योंकि छोटी-बड़ी मछलियां आसानी से जाल में आ रही थी। मचलियों को हाँड़ी में रखते समय आँखे चमक उथी है। अचानक एक गन्ध उसके नथुनों को फड़काने लगी। इसेगंध को वह पहचानता है। जरुर साहबजादा है आस-पास में। उसके कान खड़े हो गये, एक पल को भय ने भी घेर लिया। कहीं कोई अनहोनी तो नहीं न होने जा रही है।वह तो आज अकेला है। क्या पिता की भांति वह भी शिकार नहीं हो जाएगा। नहीं कभी नहीं। स्साले कनकट्टे, तुने मेरे बाप को मारा है। या तो तू मुझे मार डालेगा या मैं तुझे । बस इतनी सी आवेग से उसके शरीर में बिजली कौंध जाती है। झट से नाव में रखी खुखरी निकाल लिया और उस पर कलाई का दबाव बढ़ गया। आँखों के सामने पिता का मृत शरीर दिखाई देने लगा। उसके कानों में आंव-आंव की ध्वनि सुनाई देने लगी,हूंकार भी पर उसमें तेजी नहीं थी। नाव धीरे-धीरे जंगल के और अन्दर प्रवेश कर गई। जो भी हो आज तो बड़े मियां से पंजे लड़ाना हीं है। लड़ाना हीं नहीं बल्कि हरामजादे को मार डालूंगा। ऐसा दृढ़ संकल्प ने उसके मन में समाये निराशा एवं डर  दोनों को हीं उखाड़ फेंका। परन्तु अब तक वह सामने क्यों नहीं आया। इतना समय तो नहीं लेता है। कहाँ छुपकर बैठा है । कहां ताक लगाए छुपा बैठा है। इधर तो कोई खास उंचा पेड़ भी नहीं है। फिर किधर बैठा है। गंध और भी तिव्रतर हो चूकि थी। बड़ी सतर्कता से नेत्रों का संचालन कर रहा था। तभी नदी की जल में कुछ गिरने की आवाज। ऐसी ध्वनि तो उसका हो हीं नहीं सकता है। ध्वनि की ओर नाव को मोड़ दिया। कुछ ही पल गुजरने को थी मनोवांछित शत्रु दिख गया। पर आँखे आश्चर्य से फैल गई वह जल से स्थल की ओर उठने का प्रयास कर रहा है। उठते समय मानो मिट्टी खरोंच डालेगा। परन्तु असफल हो गया। नाव के आने की आहट उसके कानों में पहुंच चुकी है एवं नाव और उसके बीच की दूरी कम होती गई। इसके साथ हीं हत्यारे एवं प्रतिशोधक नाविक की हालत भी बदलने लगी। एक की आँखे आश्चर्य से फटी जा रही है तो दूसरे की आँखों मे असहाय का लक्षण। अरे यह तो वही कनकट्टा है ,इसी ने मेरे बाबा की हत्या की ङै आज मैं इसे जिन्दा नहीं छोड़ूंगा। वर्षों से इसे ढूंढ़ रहा हूं। मेरे हृदय में धधकने वाली आग्नि आज शांत होकर रहेगी। जबड़े भींच गये,खुखरीवाला हाथ उपर उठा पर यह क्या हाथ जैसे शक्तिहीन हो गये हों। हत्यारे की आँख से आँख मिलाए हुए है। प्रतिद्वन्दी की पलके केवल पिटिर-पिटिर कर रही है न कोई गर्जन न कोई क्रोध का लक्षण । वनराज का आधा शरीर जल में तथा दोनो पंजे मिटी में धँस गया है। बार – बार वह सामनेवाले आक्रमणकारी को देख रहा है जैसे कह रहा है रूक क्यों गए ? चलाओ खुखरी और मार डालो मुझे। तुम्हे आनन्द मिलेगा और मुझे मुक्ति। मुक्ति ! हां मुक्ति,इस यंत्रणामय जीवन से मुक्ति। तुम्हारी तरह हीं किसी द्वीपद ने मुझे घायल कर दिया और भूख की दलदल में धकेल दिया जहां भोजन के लिए शिकार भी मैं ठीक से नहीं कर पाता हूं। चलो अपने को बचाने की अब मेरी सारी कोशीशें बेकार होगी। हे मानव मुझे! इस तड़पन से अच्छा है तुम मेरी जीवन लीला समाप्त कर दो।

        इस तरह निश्चल जानवर को देखकर निताई का आवेश ठंढा होता जा रहा था। नाव कासामने वाला प्रांत कनकट्टे के देह को स्पर्श किया। उसमे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी। नजाने कौन सी आकर्षण शक्ति ने बाघ की ओर उसके कदमों को आगे बढ़ाया। झा3ड़ियों के बिच से बहती जलराशि के वक्षस्ळ पर नाव डोलने लगी। कनकट्टा कातर दृष्टि से निताई की तरफ देख रहा था। ध्यान से देखने परकनकट्टे के गर्दन और पिछली टांग की पखने पर गोली लगने से क्षत-विक्षत आघात दिखा। अब निताई को सारी भात समझ में आ गई कि यह दो-तीन दिन पहले हीं किसी चोर शिकारी का शिकार बना है। गोली लगने के कारण हीं चलने-फिरने में लाचार हो इस घने आदमकद वाले तृणांचल की बहती खाल में आ फंसा है। छोर शिकारियों का दल ऐसे क्षेत्रों से अपने को दूर रखना चाहता है क्योंकी यहां प्रायः शिकारी हीं स्वयं शिकार हो जाया करता है। इसलिए यह अभी भी जीवित बचा है। उसके गर्दन में लटकता रेडियो कॉलर देखकर उसका मन बदल जाता है। पिता की कहे गये वाक्य स्मरण हो आया – बाघ अकारण मनुष्य पर आक्रमण नहीं करता है। मनुष्य हीं उसे नरखादक बना देता है। उसके हृदय में मंथन होने लगी। इस बाघ को उसके पिता पर आक्रमण करने के लिए किसने प्रेरित किया था,किसने और क्यों  आक्रमण करने के पूर्व गोली चलाई,जिस बाघ को गोली लगी वह कहां गायब हो गया आदि प्रश्नों के सामने निताई स्वयं को वेबश पाता है। आखिर बाघ मात्र एक प्राणी नहीं बल्कि प्रकृति का अनमोल उपहार है। अन्ततः निताई अपनी पराजय स्वीकार कर लेता है। खुखरी और बाघ दोनों को देखा। इधर बाघ पुनः डांगा पर उठने का प्रयत्न करता है। निताई खुखरी को एक तरफ रख दिया तथा नाव के पाटातन से एक चौड़ा काठ उठाकर थोड़ा डरा-सहमा बाघ से स्पर्श कराते हुए डांगा एवं लाव के मध्य पुल की भंति रख दिया और खुखरी पुनः हाथ में धारण कर लेता है। क्या पता जंगली जानवर है कहीं आक्रमण कर दिया तो? डर और सहानुभूति दोनो हीं निताई को अपने जाल में फांस लेता है। वनराज काठ को एकबार देखा फिर निताई की ओर देख अगले पंजे को काठ पर रखा तथा बड़ी मुश्किल से बांयी पिछली टांग की सहायता से प्रायः – प्रायःउठने में सफल हो गया लेकिन काठ पर लेटा हीं सुस्त पड़ा रहता है। उसकी याचना भरी दृष्टि निताई की ओर पिटपिटा रही थी। इन याचक नयनों को देख निताई का मन करुणा से भर उठा और अपने को रोक नहीं पाया। नाव से पानी में उतर गया तथा काठ सहित बाघ को अपनी दैहिक शक्ति कि सहायता से नाव पर उठा लिया। बाघ शांत एवं प्रतिक्रियाहीन होकर निताई की और टकटकी लगाए रहा। इस भारी-भरकम जीव को उठाने में निताई का दम फुलने लगा। जल राशि के उपर तैरती नाव हो और भारी वस्तु को उठाने में कितना मजा है यह कोई निताई से पुछ कर देखता। कुछ पल तक बड़े मियां को स्नेह भरी दृगों एवं हाथ का स्पर्श दिया तो वनराज एक पालतु पशु की भांति अपने सरीर को ढीला छोड़ दिया। बाघ के क्षत स्थल को देख उसकी चिकित्सा की व्यवस्था की जाय तो जल्द हीं स्वस्थ हो जाएगा। जैसी सोच वैसा कार्य,सबसे पहले वनराज के गले में टंगी रेडियो कॉलर को काट कर जलार्पण किया एवं नाव की पतवार थामे घने वन की तरफ आगे बढ़ गया। काफी अन्दर प्रवेश कर एक सुरभित स्थान पर नाव को छिपाया। नाव से वनभूमि पर कदम रखा हीं था कि कई वन्य जानवरों तथा पेड़ों की झाड़ियों में पक्षियों का शोरगुल होने लगा। शायद इन जीवों को आभास हो गया कि वनराज निकट हीं आया हुआ है। उनको ते पता नहीं है आज वनराज लाचार है। निताई झाड़ियों में वनौषधियों को संग्रह करता है और वनराज के पास लौट आया। कनकट्टा नाव पर निश्चल स्थिती में पड़ा था। वनौषधियों के पत्तों को हथेलियों पर मसल कर क्षत वाले स्थान पररसों को टपकाया जिससे बंगाल टायगर के शरीर में थोड़ी सी हलचल होती है। निताई दूसरे हाथ से उसके शरीर एवं सर को सहलाता है। कुछ समय गुजरा,बाघ ने दोनों आँखे बन्द कर ली। यहां तक तो सब ठीक था परन्तु एक नई समस्या निताई के सामने आ खड़ा हुआ की इस घायल को कहां रखा जाय जहां इसकी चिकित्सा एवं भोजन की व्यवस्था कर सकूं और यह चोर शिकारियों से भी बचा रहे ताकि यह स्वस्थ होकर जंगल में वापस लौट सके। निताई का अन्तर्मन बार-बार उसे कहने लगा कि तुमने इसके प्राणों की रक्षा की तो अब कदम पिछे मत हटाओ। यगि इसे इस हाल में छोड़ करचले जाओगे तो अवश्य यह किसी द्वीपद के लोभ-लिप्सा का शिकार हो जायेगा। अतः तुम्हारा दायित्व है इसकी देख-भाल करना और यदि ऐसा नहीं करते हो तो इसका अंत निश्चित है,फिर तुझमें तथा सरकारी भ्रष्ट वनकर्मियों में क्या अन्तर रह जायेगा। निताई के लिए दुविधा की स्थिती बन गई करे तो क्या करे। उसका सारा शरिर में जैसे विद्युत धारा प्रवाहित होने लगी। यदि घर ले जाकर रकता है और लोकालय में खबर फैलेगी और इमानदार वनकर्मी या पशुप्रेमी उसे बाघ मारने या घायल करने के अपराध में जेल के अन्दर कप देगा। नहीं-नहीं, झूठ-मूठ के कानूनी दाव-पेच में नहीं फंसना है। कहावत है कि यदि किसी को कोर्ट-मुकदमा से प्यार हो गया तो जर-जोरू-जमीन-जायदाद सब समाप्त पर कोर्ट सुन्दरी से मुक्ति नहीं मिलती है। ना बाबा ना। एक तो दर्द कम होता नहीं उपर से खुजली। फिर क्या करना चाहिए। इस उधेड़बुन में दो-तीन घंटे गुजर गए। अचानक वनरा ज के शरीर में हलचल,उसकी आँख खुली तो निताई को अपने पास बैठा पाया। उठने का कोशीश किया तो निताई फसे सहारा देता है। किसी तरह करवट बदला। निताइ के हाथों के स्पर्श की भाषा को वह समझ गया। प्रकृति का खेल बड़ा अद्भूत है सारे प्राणियों के शरीर की बनावट भले हीं अलग होती है पर स्नेह-माया-ममता की भाषा एक समान। दोनो प्राणियों ने एक-दूसरे के मन को पढ़ लिया था कि हम शत्रु नहीं मित्र हैं। बड़े मियां रह-रह कर निताई के हाथों को सूंधता है। उसकी पुंछ में हरकत होने लगी। एक लम्बी जम्हाइ लेता है और मुंह से पालतु पशुओं की तरह ध्वनि निकाला जैसे कुछ कहना चाहता है। शंभव है उसे भूख लगी हो। वनबीबी के संतान इस भाषा को आसानी से समझ आ जाती है। निताई फौरन हीं नाव मैं ऱखी हांड़ी के मुंह से जाल हटाकर एक बड़ी मछली बाहर निकाल और वनबीबी के दुलारे बेटे के मुंह के पास ले जाता है। मछली की गंध पाकरउसके नथुनों में कम्पन होती है,मुंछे कांटे की भांति खड़ी हो जाती है। भूख के आक्रमण को भोज्य पदार्थ और भी कहीं ज्यादा उग्र कर देता है। फौरन हीं ग्रास कर लिया पर यह उंट को मुंह में जीरा। तब निताई पकड़ी गई और भी मछली को उसके सामने रख दिया। दैहिक रुप से दुर्बल बाघ अधिक उदरस्थ नही कर पाया। तत्पश्चात निढाल हो गया और उसकी गोल-गोल नेत्र झपकियां लेने लगा। इस तरह से एक भयंकर जीव को अपनापन दे उसका हृदय जीतना निताई को परम शांति प्रदान करता है। जिस समय उसने रेडियो कॉलर से उसे मुक्त किया था,संभवतः बाघ ने भी धन्यवाद दिया होगा कि तुमने आज एक बंदी को कारागार से मुक्ति प्रदान की। अब उसकी उपस्थिती का आकलन सरकारी वनविभाग भी नहीं कर सकेंगे था यह सुरक्षित भी रहेगा। निताई मन हीं मन सोचता है आज उसने जीवन में प्रथम बार कोई अच्छा कार्य किया है। अब जो होगा देखा जायेगा अर्थात आत्मिक दृढता ने दुविधा को दूर कर दिया। निताई की नाव वापसी की ओर अग्रसर। अपरान्ह की मन्द-मन्द हवा निताई को शाबासी और ढलती सूरज की पुत्री उसके सत्कार्य से प्रसन्न हो अपनी तेजमय शक्ति को मन्द कर धूप से होने वाली जलन को शितलता प्रदान किया। घर के निकट पहुंचते – पहुंचते पश्चिमी सागर हल्का लाल-काले रंग में पसर गया था। पक्षियों का झुण्ड तीर की आकृति में अपने बसेरे की ओर आना-जाना कर रहे थे। नाव तट से आ लगी। यह स्थान सभी नाविकों का आड़त केन्द्र है। यहां से पकड़ी गई मछलियों को आड़तदार खरीद लेते हैं। निताई जानबूझ कर नौका को एक दम सबसे अंत में बांधता है ताकि कोई उसके नौका पर ध्यान न दे कारण बाघ को साथ ले आया था जिसे एक चादर से ढंक दिया था। मछली की हांड़ी लेकर चारो तरफ देख लेता है कहीं कोई उसके नाव पर नजर तो नहीं न रख रहा है। आश्वस्त हो जाने के बाद तट से उतर तपन के पास पहुंचा,उसे देख तपन कहता है –

“ आओ निताई-आओ। बड़ा खुश दिखाई दे रहे हो,लगता है आज बड़ी मछली हाथ लगी है”

“ नहीं काका। आज ज्यादा देर तक जाल नहीं डाल पाया”

“ अरे भतिजे मैं तुझे अच्छी तरह से पहचानता हूं”

“:मेरा विश्वास करो। मैंने कभी झूठ बोला है”।

“ वो तो सब ठीक है। क्या आज आड़त में देने लायक मछली नहीं पकड़ पाए हो, कितना है”? तपन स्वयं हीं निताई के हांड़ी के मछलियों को देखा। कभी-कभी निताईस्वयं आड़त न जाकर तपन को हीं मछलियां दे दिया करता था। तपन कुछ पुछता उससे पूर्व हीं निताई कहा –

“ तपन काका मेरा एक अनुरोध रखोगे ”

“ अनुरोध क्यों रुपये की कमी आ पड़ी है। बोलो कितना दूं तूझे। संकोच मत कर”। परन्तु निताई के चेहरे पर पाँच-छः की गिनती शुरू हो गई। मन में विचार उठता है कहीं ज्यादा न बोलना पड़े। तपन समझ गया वह मांगने में झिझक रहा है। इसलिए स्वयं हीं कहता है-

“भतिजे अपने काका पर इतना भी विश्वास नहीं है। तुम अपनी असुविधा मुझे बताओ। यदि आवश्यक हुई तो मैं अभी इसी वक्त अपनी फिशिंग बोट बेच दूंगा क्योंकि आज मैं जो भी हूं तेरे पिता के कारण हूं। बोलो कितने रुपयों की आवश्यकता है”

“काका मुझे रुपया नहीं। बस छोटी मछलियों के बदले में बड़ी मछलियां चाहिए”। कहते हुए सकुचाता है निताई,

“बस इतना हीं ठीक है ले लो पर करोगे क्या”!  निताई नाव पर लेटे घायल वनराज के बारे में बताया। तपन को विश्वास नहीं होता है उसने कौतुहलवश कहा-

“मुझे दिखा सकते हो”।

“हां। आओ मेरे साथ”। वनराज जिस नाव पर लेटा हुआ था,दोनों वहां पहूंचे । वनराज निशंक हो पड़ा था। उसके कटे कान को देख तपन को बीते वर्षों की छवि दृगों में उभर आती हैं। फौरन हीं निताई ताड़ गया कि तपन कनकट्टे को पहचान चुका है। तपन कुछ बोले उसके पहले हीं वह तपन से कहा कि-

“काका, यद्दपि यह मेरा दुश्मन है पर अपने बाबा के शब्दों को याद कर निश्चय किया है इसकी चिकित्सा करूंगा जब यह स्वस्थ हो जाए तो वापस जंगल में छोड़ दूंगा”। तपन के नेत्र सजल हो उठे। उसे लगा की ताई के स्थान पर निमाई दा खड़ा मुस्करा रहा है और कह रहा है जंगल कका राजा हमारे देश की धरोहर है इसकी रक्षा करना हम शभी देशवासियों का कर्तव्य है। तपन निताई की पीठ थपतपाता है। इस भावनात्मक भाषा को उन दोनो के सिवा कोई नहीं समझ पाया।

“लेकिन इसकी जानकारी वनविभाग को जब मिलेगी तो हम शबी लोगों पर कानूनी कारवाई होगी”। तपन थोड़ा चिंतित हो उठा।

“पर मैंने पहले हीं इसके रेडियो कॉलरको गले से अलग कर पानी में फेंक दिया है”। कुछ पल का मौन। दोनो हीं सो रहे निश्चिंत जीव को एकटक निहार रहे थे ,जिसके डर से सारा जंगल कांपता है आज वह द्वीपदों के दया-करुणा पर आश्रित है। मनुष्यों की भोग लिप्सा पुरे जग को विपन्न कर चूका है। एक के बाद एक प्राणी विलुप्त होते जा रहे हैं। यदि यही हालात रही तो वह दिन भी बहुत जल्द आ जाएगा स्वयं मनुष्यभी इस सुन्दर जग से विदा ले लेगा।

“ठीक है। चलो कुछ जरुरी काम भी करने पड़ेंगे”। तपन बड़ी मछलियां निताई को दिया।

“इसे रखो। बड़ी मछलियों की कमी नहीं होगी तथा दवा-दारू करने के लिए तुम्हारा इसके पास रहना आवश्यक है परन्तु सावधान रहोगे। जंगली जानवर है ,पूर्णतः भरोसा नहीं किया जा सकता है। शायद यह तुम्हारे स्पर्श को पहचान चुका होगा। यदि कोई अन्य आया तो उसकी खैर नहीं”।

“हां काका ठीक हीं कहते हो”। कहीं अपनी आत्मरक्षार्थ प्रत्याक्रमण न कर बैठे। निताई भी इस सच्चाई को जानता था। पने आप को बचाते हुए इसकी चिकित्सा तो करनी हीं पड़ेगी। इसीलिए तो जंगल से वनौषधियों को साथ लाया था उसे तपन को दिखाया दिखाया।

“तो अभी हीं लगा दो। क्या पता जागने के बाद क्या खेल दिखाए”। तपन ने कहा-

“ना – ना। मैं पहले हीं लगा चुका हूं”।

“क्या कहता हो बलिहारी तुम्हारे साहस की”! आश्चर्य से आंखे फैल गई।

“हां काका। डर तो मुझे भी लग रहा था पर जैसे हीं पत्ते को हाथ से मसल करउसके क्षत स्थान पर लगाया,थोड़ा सा छटपटाया था मैंने उसके शरीर पर हाथ बुलाया कि वह शांत होकर मुझे देखता रहा”। निताई बड़ी मछलियों को लेकर वनराज की सेवा में उपस्थित। सोए हुए जीव के पीठ को सहलाने लगा। उसकी आँख खुली। पिट-पिट कर निताई की ओर देखा। उठने का प्रयास करता है पर सफल नहीं हुआ। निताई एक बड़ी मचली को उसके मुंह के निकट ले गया। नथुने फुले और पिचके ,मुंछे एन्टिना की भांति कांपी। ग्रास को करने के स्थल पर मुंह को दांए-बांए घुमाया। उसकी भयंकर आग उगलती आँखों से चिंगारी भड़क उठी। एक क्रोध मिश्रित ध्वनि निकालने के लिए जबड़े फैलाया अन्दर में लकलक करती गुलाबी जीभ बाहर निकल आई । भयंकर ध्वनि सुनकर होश गुम्म तपन के और डर के मारे एक हीं छलांग में बाहर। निताई चौंक गया,तपन काका यहां कैसे पहुंच गया बाघ तपन को देखकर गुर्रा रहा था। निताई उसके पीठ पर हाथ सहलाता है तथा मुंह से पुचकारने वाली शब्द उत्पन्न करता है। बड़े मियां शांत होकर निताई के हाथवाली मछली को गरम-गरम जीह्वा द्वारा लपेट बड़े जबड़े की गह्वर में धकेल दिया,फिर दूसरी मछली की भी एक हीं हाल पहुंचा दिया। तिसरी मछली देने के पूर्व औषधिय पत्तों को  निताई ने तपन की बढ़ाया। तपन उन पत्तों से नरम कपोलों को अलग कर निताई की ओर बढ़ाया,जिसे उसने हथेलियों पर रगड़ा और उससे निकलनेवाली रस की बूंदों को क्षत स्थल पर टपकाया। रॉयल बंगाल ने अपने शरीर को जोर देकर ऐंठन ली। निताई उसके शरीर को सहला रहा था। उसकी देखा-देखी तपन भी सहमे-सहमे उस जीव के पीठ पर हाथ फेरा। हालांकि वनराज कोतपन का सहलाना पसन्द नहीं आया फिर भी उसकी छठी इन्द्रिय ने शायद उसे सच का त्रान दिया और वह सहज हो गया। उसकी आग उगलती आँखे निताई और तपन को निहारता है। उसके क्षत स्थल पर औषधिय पत्तों की रस की बूंदों ने उसके शरीर को ढीला कर दिया एवं धीरे-धीरे पलके बन्द बो गई। निताई पुनः उसके शरीर को ढंक दिया। तपन उसी दिन शाम को गांव के कुछ लोगों बुलाकर नौकाघाट के पास ले गया। निताई के कार्य की जानकारी दिया एवं सबके मन में निताई के प्रति गर्व का भाव जगाया एवं उस भयंकर जीव के रक्षा का दायित्व मात्र निताई का नहीं बल्कि सबका है ऐसा बोध शक्ति का संचार किया। तत्पश्चात रॉयलबंगाल की चिकित्सा एवं रक्षा आदि विषय पर सबने आलोचना जिसमे एक बड़ा सा पिंजरा,भोजन के लिए मछलियां –हंस-मुर्गी,वनौषधी के साथ-साथ अंग्रेजी दवाओं की व्यवस्था आदि पर निर्णय लिया गया। फौरन हीं उस पर कारवाही । गांव में हीं एक के पास पिंजरानुमा बोट था जिसका उपयोग इसके पूर्व किसी बाघ को मुक्त कराने के लिए वनविभाग वालों ने भाड़े पर लिया था। निताई के स्नेह के बन्धन में बंधा रॉयल बंगाल नये कैदखाना को स्वीकार कर चुका था। चिकित्सा और भोजन की उचित व्यवस्था हो जाने से त्वरित स्वस्थ होने लगा। उसकी सेवा के लिए निताई को सदैव पिंजरा के  आस-पास हीं रहना पड़ता था। सात-आठ दिन तो जैसे वह अपना सब कुछ त्याग त्याग दिया था। जैसे हीं आँख के सामने से हटा कि रॉयल का गरजना और अस्थिर हो जाना शुरु । गनिमत इतना हीं था कि शारीरिक रुप से दुर्बल गर्जन तीव्रतर नहीं हो पाती थी। धीरे-धीरे वह पिंजरे में चहलकदमी करने लगा एवं वैसे-वैसे पुरे गांववालों में उत्सव का वातावरण बनने लगा। अब तो पास-पड़ोस के गांव से लोग देखने के लिए आने लगे तो प्रशासन को खबर न लगे यह तो असंभव है। और आखिर एक दिन वनविभाग के अधिकारी पुरे दल-बल सहित उपस्थित। निताई के गांव के लोगों ने समझा कि कानूनी कारवाई होगी। इसलिए सभी पुरुष-महिला-बच्चे जिसे जो मिला अस्त्रों लैस वनविभाग वालों के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार वनविभाग वाले घेर लिए गए। ग्रामिणों का नेतृत्व निताई एवं तपन ने दिया। वनविभाग वाले यह सब देख सहम गए। एक बाघ को बचाने के लिए ग्रामिणों को एकजुटता,जागरण को देख अधिकारी महोदय तो दंग रह गए। भीड़ से आवाज आ रही थी – “वापस चले जाओ। इसे हम स्वयं हीं जंगल में छोड़ आएंगे,इसकी रक्षा हम स्वयं करेंगे। लोभी शिकारी-चोर शिकारी-तस्करों के साथी बाबू लोग वापस जाओ”>

“मेरी बात तो सुनो।“ अधिकारी महोदय थोड़ा साहस कर बोला

“नहीं-नहीं। हम आपकी बात नहीं सुनेंगे।“

“देखो, हमलोगों की ड्यूटी है वन सम्पदा की रक्षा करना। यदि आपलोग हमारे काम में बाधा दोगे तो हमे दूसरी व्यवस्था करनी पड़ेगी।“

“ओ साहेब हमलोगों को डराना चाहते हैं क्या ! हमने आँधी-तुफान की गोद में आँखे खोली है। तुमको जो करना है कर लो पर यहां से चले जाओ। ईस जंगल पर हमारा अधिकार है। यहां के पेड़-पौधे,जीव-जंतु सब हमारा है इनकी रक्षा हम करेंगे।“

“देखिए आप के भले के लिए कह रहा हूं यह नर खादक है............!

“खबरदार इसे नरखादक कहा। यदि ऐसा होता तो लगभग तीन सप्ताह से कैसे हमारे साथ रह रहा है। इसे नरखादक कहते तुमलोगों को शर्म नहीं आती है। वन्य जंतुओं की सुरक्षा के नाम पर रेडियो कॉलर की सहायता से इनकी हत्या करानेवाले यहां से वापस चले जाओ नहीं तो अच्छा नहीं होगा। कहे देता हूं..........! निताई आवेश में आ जाता है.

“सर फोर्स मंगवा लो। इन शैतानों का हाव-भाव ठीक नहीं लग रहा है.........”.एक कर्मचारी ने  अधीकारी के कान में फिस-फिस कर कहा-कहा ।

“वो तो मैं समझ रहा हूं पर फोर्स बुलाने से परिस्थिती जटिल हो जाएगी”। अधिकारी महोदय गंभीरता से सोच रहा था इन ग्रामिणों को कैसे मनाया जाय। उधर भीड़ में चिंगारी हवा के झोंके का इंतजार में है। चारो ओर से बार-बार नारे उठने लगी –“ चोर-चोर मौसेरं भाई वापस जाओ-वापस जाओ”।

“देखिए आपलोग मेरी बातों को समझे।आप सभी से मेरा अनुरोध है कि उस जीव को हम ले जाएंगे। उसका चिकित्सा कर टायगर को वापस जंगल में छोड़ देंगे। आपलोगों को शायद पता नहीं है यह हमारे देश इण्डिया का राष्ट्रीय पशु है और इसकी रक्षा करना हम सबका कर्तव्य है”।

“ओ बाबू, आप अपना उपदेश अपने पास रखो। ऐसा सुनते-सुनते अपनी जवानीसे आज बुढ़ा हो चला हूं। आपलोगों को यह कष्ट नहीं करना होगा। अगले सप्ताह हम स्वयं इसे जंगल में छोड़ आएंगे। क्यों भाई, आप लोग क्या कहते हो...........” भीड़ में सामने हीं एक वृद्ध खड़ा था। उसी ने कहा....... उसकी ओर अधिकारी महोदय ने देखा एक दुर्बल काया जिसकी हड्डियां गिनी जा सकती है पर उसकी आँखों मे गजब की विक्षोभ की ज्वाला दिख रही थी।

“सर, ये ऐसे नहीं सुनेंगे। बड़े थाना को फोर्स भेजने के लिए कहता हूं। जब पड़ेंगे दो-चार डंडे सारा उत्साह पीछे घुस जाएगा.........” एक अन्य अधिकारी ने मुख्य अधिकारी को परामर्श दिया।

“ना-ना-ना- दास बाबु। मुझे ऐसा नहीं लगता है। गांववालों का मोटिव वही है जो हम चाहते हैं”। अब तक की परिस्थीतियों से अपने आप को सहज कर चुका था।

“ठीक है आपलोग जैसा चाहते हैं वैसा हीं होगा। मैं आपलोगों के इस पुण्य कार्य में पुरा सहयोग दूंगा। सरकार भी आपके इस कार्य की सराहना करेगी.............”.भीड़ यह सुनकर सन्नाटे में। क्योंक ग्रामिणों को विश्वास हीं न था की वन विभाग वाले उनका सहयोग करेंगे। लेकिन जब अधिकारी महोदय स्वयं आगे बढ़कर उस वृद्ध के पास जाकर कहा –“ बड़दा, आप मेरा विश्वास करो”। ............. वह वृद्ध, अधिकारी के चेहरे को एक पल गहराई से पर्यवेक्षण करता है। शायद उसकी अनुभवी आँखे सच्चाई को पढ़ रही थी। तत्पश्चात वह निताई और तपन की ओर देखा एवं पुछा – “क्या कहते हो बाबु जो कह रहे हैं..........”

“क्या गारंटी है, ये हमारे साथ विश्वासघातकता नहीं करेंगे”। निताई का प्रश्न था यह।

“हां-हां, ठीक हीं कहते हो निताई। पता नहीं पुलिस लेकर आयेगा एवं हमलोगों को कानूनी पेंच में फंसाकर हमारे गाँ के लड़कों को रात में घर से उठाकर ले जाएगा। लड़के जेल के अन्दर और उसका परिवार वाले घटी-बाटी लेकर रास्ते पर भीख मांगेगा”।

“नहीं-नहीं, इनको जो करना है करे। हमारे सामने मुक पशु पर नकली प्रेम न दिखाए.........”. भीड़ से आवाज आती है।

“ग्रामवासी भाई सब क्या इनकी बातों पर विश्वास करेंगे...........” तपन भीड़ की ओर प्रश्न किया।

“नहीं-नहीं। ये लोग यहां से चले जाएं,यह जंगल हमारा है, इसकी रक्षा करने के लिए हम अपना जान तक देने को तैयार हैं”। यह नारा धीरे-धीरे बलवती होने लगी। यह देख अधिकारी महोदय के आँखो के सामने चिपको आंदोलन का वह दृश्य उभरने लगा जब एक-एक पेड़ को बचाने के लिए नर-नारी पेड़ से चिपक गए थे। कहीं उसी का पुनरावृति यहां होने जा रही है। अतः इससे बचना होगा। अंतोगत्वा उसने एकदम भीड़ के निकट जाकर अनुरोध किया कि,

“देखिए विश्वास कोई वस्तु नहीं है जो बाजार में बिकती है और मैं खरीदकर ले आउंगा लेकिन इतना अवश्य कहूंगा सारे अधिकारी अविश्वसनीय नहीं होते हैं”। निताई के कंधे पर हाथ रखकर कहा –“ निताई बेटे तुम मुझे एक अधिकारी के रुप में न देख तुम्हारे गाँव का हीं एक सदस्य समझो और अब मैं तुम एवं तपन के उपर छोड़ता हूं तुम दोनों क्या करोगे”। इतना कहकर वह लौट जाने का प्रयास करता है। निताई तथा तपन उसे लौटता देख आँखो-आँखो में बाते कर लेते हैं।

“ठहर जाओ ओ साहेब। हमलोग अगले सप्ताह हीं इस बड़े मियां को जंगल में छोड़ आएंगे वह भी आप सब के सामने............” .एकदम दृढ़ निश्चय भरे शब्द निताई के थे जिसे सुनकर अधिकारी के कदम थम गए। पीछे मुड़कर पुनः निताई के पास पहुंचा और उसकी पीठ थपथपाई,

“शावास निताई हम सबको तुम्हारे उपर गर्व है। तुमने एक सच्चे नागरिक के रुप में राष्ट्रीय सम्मानकी रक्षा हेतु अपना सुख-दुख नहीं देखा। मैं अपने विभाग से तुम्हारी प्रशंसा करूंगा”।

“साहेब। आप की इन बातों से मुझ पर क्या फर्क पड़नेवाला है। मैं तो बचपन से हीं मौली-मछुआरा हूं और आनेवाला समय में भी रहूंगा। चलो तपन काका”।

“हाँ चलो-चलो। भाई सब वापस लौट चलें। अगले सप्ताह हमलोग अपने वनदेवी के पुत्र को उसके घर छोड़ देंगे। भीड़ की गुंज से आकाश गुंजायमान हो उठी.............बोलो-बोलो वनदेवी माई की-------जय – भारतमाता की--------जय”।

भीड़ धीरे-धीरे पतली होती गई। वनाधिकारी पतली हो रही भीड़ को गहराई से देखते खड़ा रहा और वनविभाग के कर्मचारी कभी भीड़ को देखते तो कभी अपने बड़े बाबू को। जब वनविभाग का दल वहां से वापस लौटता है,वनाधिकारी महोदय गाड़ी की पिछली सीट पर पीठ टिकाए  गहरी सांस लेकर छोड़ता है जैसे मन को हल्का कर लेना चाहता है तथा बगल वाली सीट पर उसका सहायक की ओर गर्दन घुमाकर कहता है – “घोषाल दा, निताई और तपन ने हमलोगों को कर्तव्य पालन करने का जो आदर्श दिखाया है वह सही में एक नागरिक का कर्तव्य है”। गाड़ी की ईंजन सर्र-सर्र करती आगे बढ़ती जा रही थी।


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