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ऋता शेखर 'मधु'(Rita)

Abstract Romance

4.5  

ऋता शेखर 'मधु'(Rita)

Abstract Romance

अजनबी

अजनबी

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बरसात की एक रात

शाम का धुंधलका छाने लगा था। खिड़की पर बैठी निहारिका अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी। बाहर आसमान में बादलों की आवाजाही चल रही थी। शीतल हवा शरीर को हौले हौले थपकी दे रही थी। वह कुछ ऐसा पंक्तिबद्ध करना चाहती थी कि जो भी उसे पढ़े वह रुमानी ख्यालों में डूब जाए। ख्यालों के बादल मन के आसमान में उमड़- घुमड़ कर बहुत कुछ कहना चाहते थै। हाथों में कलम थी, वह अदरख वाली चाय भी बना लाई थी। बहन को पकौड़ियाँ तलने का निर्देश भी दे आई थी। हाथों से आँखें बन्द करके किन्हीं ख्यालों में डूबी लिखने को उपयुक्त शब्दों की तलाश में हौले हौले गुनगुना भी रही थी। अचानक चेहरे पर हल्की फुहार पड़ी तो उसने आँखे खोल दीं। इस समय उन फुहारों ने उसके मन में चल रहे रुमानी ख्यालों को और अधिक लबरेज करने लगी। वह इन हल्की फुहारों का और अधिक आनंद लेना चाहती थी इसलिये उसने उठकर खिड़की को बन्द नहीं किया। हल्के हल्के चाय सुड़कने लगी। आज उसके ख्यालों में वह बार बार दस्तक दे रहा था।

उस वक्त निहारिका बी एस सी फाइनल में रही होगी। परीक्षा के दिन नजदीक आ रहे थे। प्रयोगशालाओं की गतिविधियाँ बढ़ी हुई थीं। ग्रुप में बाँटकर सबके लिए दिन निश्चित किया गया था कि वे कुछ प्रयोगों का पुनर्अभ्यास कर लें। वह सावन का महीना था। बारिशे कभी कभी देर तक धरती पर अपनी रुनझुन के साथ लगी रहतीं या कभी कभार तेज बिजली को भी लाकर सबको डराया करती। उस दिन निहारिका को सारे प्रयोग करने में शाम होने लगी थी। कॉलेज का चपरासी उसे बार बार प्रयोग समेटने को कह रहा था। घड़ी में सात बज चुके थे। निहारिका ने सारे सामान समेटे और बाहर आ गई। उसकी सहेली जया भी उसके साथ थी। वह दिन खुला खुला था इसलिए निहारिका अपना छाता लाना भूल गई थी। यह बात उसे तब पता चली जब अचानक बारिश शुरू हो गई। बाहर आकर दोनों सहेलियाँ बस स्टॉप पर खड़ी हो गईं। जया ने अपने घर फोन किया तो उसका भाई बाइक से आकर उसे ले गया। निहारिका किसे फोन करती। घर में सिर्फ एक छोटी बहन थी। माँ- पापा गाँव गये हुए थे। वह वहीं पर खड़ी बस का इन्तेजार कर रही थी। वह पूरी तरह से भीग चुकी थी तभी एक बाइक सवार वहाँ आया और जोर से बोला, “मेरी बाइक पर बैठ जाइए , मैं आपको घर छोड़ देता हूँ।”

निहारिका ने ध्यान से उधर देखा, वह सवार रेन कोट में था और हेलमेट भी पहना था उसने तो वह उसकी उम्र या व्यक्तित्व का अंदाजा नहीं लगा पा रही थी। वह चुपचाप खड़ी रही।

“अरे, आप क्या सोच रही हैं। मेरे पीछे बैठ जाइए। मैं आपको आपके घर छोड़ दूँगा। रात बढ़ती जा रही है। सड़क भी सुनसान है। डरिये मत, कहीं भगाकर नहीं ले जाऊँगा”, कहकर वह हँस पड़ा। निहारिका झेंप गई मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। वह चुपचाप आकर पीछे की सीट पर बैठ गई। डर तो बहुत लग रहा था पर सुनसान सड़क पर यूँ अकेले रहना भी खतरनाक था।

बाइक स्टार्ट करते हुए उसने कहा , ‘मुझे पीछे से पकड़ लीजिए, हवा तेज है...कहीं आपको उड़ा न ले जाए’।

झिझकते हुए निहारिका ने उसे पीछे से पकड़ लिया। उसके दिशा- निर्देश पर बाइक वाले ने उसे घर तक छोड़ा। दरवाजे पर आकर बाइक से उतरते हुए उसने मानवता के नाते उसे अन्दर आने को कहा। शायद उसे भी ठंड लग रही थी। उसने बाइक बन्द किया और घर के दरवाजे तक आ गया। वहाँ आकर उसने अपना हेलमेट उतारा। रेन कोट उतारने के लिए उसके हाथ कोट की चेन पर थे तभी उसकी नजर निहारिका से टकरा गई। निहारिका ने हड़बड़ाकर अपन मुँह फेर लिया।

वह मुस्कुराता हुआ अपने कोट उतारकर वहीं रेलिंग पर रखता हुआ बोला, “किसी अनजान को घर के अन्दर ले जाते हुए डरेंगी तो नहीं।”

“नहीं, इतनी भी डरपोक नहीं हूँ। आपने इंसानियत दिखाई तो एक कप कॉफी पिलाने की इंसानियत तो मैं भी दिखला ही सकती हूँ न,”कहकर वह भी मुस्कुरा दी। साथ ही उसने उसके पूरे व्यक्तित्व पर नजर डाली। वह सेना की वर्दी में था। चेहरे पर एक तेज था जो सहज ही किसी को भी आकर्षित कर सकता था।

“अन्दर आइए, कहती हुई निहारिका ने उसे सोफे की ओर इशारा किया।

“कौन है दीदी ,”कहती हुई उसकी छौटी बहन बाहर आ गई।

“बताती हूँ, पहले इनको एक तौलिया तो लाकर दे। "

“जी दीदी”, कहती हुई वह अन्दर चली गई।

“क्या परिचय देंगी बहन को,” कहते हुए वह जोर से हँस पड़ा।

“यही कि...कि...इन्होंने मुझे हवा और बारिश से बचाया और सही सलामत घर तक पहुँचाया...सो सिम्पल, इससे अधिक और क्या,” कहती हुई वह बाहर खिड़की की ओर देखने लगी।

“बस इतना ही...”कहकर वह उसकी नजरों में झाँका।

“हाँ”, फिर उसने कहा, “बस कुछ देर रुकिए, मैं झट से कॉफ़ी बना लाती हूँ।”

शायद वह उसकी नजरों में छुपे चुहल से बचना चाहती थी । कुछ देर बाद दोनों के हाथों में कॉफ़ी की मग थी और इधर- उधर देखकर बातें करते हुए भी नजरें टकराकर झुकने को विवश हो रही थीं।

“आप इतनी बारिश में कहाँ जा रहे थे?” बात बदलने के लिए निहारिका ने पूछा।

“शायद आज आपसे मिलना तय कर रखा था भगवान ने, इसलिये ही तो आया”, कहकर वह हँस पड़ा। "बाई द वे मैं अपने माता पिता से मिलने जा रहा था। घर में एक छोटी बहन भी है। सावन में उससे राखी भी बँधवानी थी।”

“अभी क्यों, रक्षाबंधन आने में तो बीस दिन हैं," निहारिका ने कौतुहल से पूछा।

“पर मैं उस समय कारगिल मोर्चे पर रहूँगा। आदेश आ चुका है। कल शाम को निकलना है। लौट आऊँगा तो सही है , न आ सका तो बहन को फिर यह कलाई नसीब न हो सकेगी,’कहता हुआ वह थोड़ा भावुक हो गया।

“अरे, ऐसा नहीं कहते। आप अवश्य लौट कर आयेंगे। बहनों के आशीर्वाद सदा साथ रहते हैं और देशवासियों के भी...”इसके बाद कुछ देर चुप्पी पसर गई।

“कोई और भी होता इन्तेजार करने वाला तो अवश्य ही लौट आता...”कहता हुआ वह फिर उसी मोहक अंदाज में हँस पड़ा।

“हो भी सकता है कि कोई और भी आपका इंतेजार करे...”कहने के साथ ही निहारिका की नजर नीचे झुक गई।

वह एकाएक मौन हो गया।

“बारिश थम चुकी है...दूर तक जाकर वापस भी लौटना है। चलता हूँ,” कहकर वह बाहर आ गया। जितनी देर में उसने रेन कोट और हेलमेट पहना, एक बार भी निहारिका को नहीं देखा।

बाइक पर बैठकर उसने हेलमेट का शीशा ऊपर किया और गहरी नजरों से उसे देखता हुआ बोला,”मैं अवश्य आऊँगा....”

‘निहारिका...निहारिका नाम है मेरा।”

“और मैं मोहित...”कहता हुआ निकल गया।

इस बात को बीते कई वर्ष बीत गये। निहारिका के पिता का वहाँ से तबादला हो गया। उसके पास सिर्फ उसके नाम के सिवा कुछ नहीं था। न फोन नम्बर और न ही कोई पता। यदि वह भी लौट आया होगा तो दरवाजे तक अवश्य आया होगा।

“दीदी, दीदी...पकौड़ियाँ!”कहकर छोटी बहन वहीं पर बैठ गई। आँखों से दो बूँद टपकी जरूर पर “बारिश की फुहार है,” कहकर निहारिका ने चेहरा पोंछ लिया। वह उन अहसासों को कलमबद्ध करना चाहती थी पर इतना भी आसान नहीं था।

बरसात की वह वह रात उसके दिल में बेशकीमती हीरे की तरह सुरक्षित थी सदा सदा के लिए।


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