लघुकथा - नया दरवाजा
लघुकथा - नया दरवाजा
तिरंगे में लिपटे शहीद पति के शव के पास वह पथराई आँखों से खड़ी थी।
'' अभी हाथों की मेहँदी भी न छूटी और ये दिन देखने पड़े।''
''पहाड़ सी जिन्दगी अकेले कैसे काटेगी ।''
''इसका दूसरा ब्याह कर देना चाहिए।''
''देखो तो, एक बूँद आँसू भी नहीं है आँखों में।''
''किस्मत की बुलंद होती तो यूँ न विधवा हो जाती।''
''अब सासरे में खटते हुए जीवन काटेगी बेचारी।''
''मायके चले जाना चाहिए।''
''नहीं, चार दिनों की आवभगत के बाद बोझ लगेगी।''
यह सब बातें उसे कहीं दूर से आती महसूस हो रही थीं क्योंकि उस वक्त उसका मस्तिष्क चुपचाप कुछ निर्णय ले रहा था। अग्नि संस्कार के बाद वह धीरे धीरे चलकर सेना के उच्च पदाधिकारी के पास अपने चूड़ी विहीन हाथों को जोड़कर खड़ी हो गई।
''सर, मुझे फौज में भरती होना है।''
उस सख्त जांबाज ऑफिसर की नम आँखें उसके सम्मान में झुक गईं।
एक क्षण को नवविवाहिता विधवा ने महसूस किया कि उसका बहादुर पति कानों में कह रहा था -
''समाज द्वारा तय किए गए सारे दरवाजे को बंद करके नया दरवाजा खोला है तुमने। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।''