अदृश्य
अदृश्य
"तुम घर रहकर करती ही क्या हो। तुम्हें क्या पता ऑफिस वक्त पर पहुंचने की चिंता। काम पूरा ना होने पर अपने बॉस से डांट खाने का दुख। फिर शाम होते वक्त घरवालों की फरमाइश पूरी करने की जद्दोजहद।" - रवि ने सुजाता से कहा।
रवि पेशे से एक सरकारी दफ्तर में अकाउंटेंट की नौकरी करता है।
बचपन से ही ऐसी परवरिश हुई कि राजाओं से ठाठ से रहा।
रवि का हर काम मां और बहनों पर निर्भर करता था।
खाना, कपड़े इस्त्री करना, अपना समान ठीक से रखना हर चीज।
फिर शादी के बाद भी यही आदत बरकरार रही और अब रवि और उसका पूरा घर, घरवाले सुजाता पर निर्भर हो गए।
सुजाता का दिन सुबह 5बजे से शुरू होता;और रात के 11बजे तक यूंही घड़ी की सुइयों की तरह चलता रहता।
फिर भी घर में कोई मिठाई आए,या कोई मेहमान आए तो सब मिलकर बैठ जाते थे और सुजाता को भूल जाते थे; ऐसे की जैसे देखकर भी किसी को अदृश्य समझ लिया हो।
पर जब काम याद आते थे तो सबको सिर्फ सुजाता ही दिखाई देती थी।
सुजाता सोचती काश ! एक दिन मैं सचमुच ही अदृश्य हो जाऊं।
एक दिन सुजाता ने रवि से कहा -" मेरी तबीयत ठीक नहीं है। क्या कुछ दिन मां के यहां चली जाऊं। थोड़ा आराम मिलेगा। यहां तो दिन भर कोई ना कोई काम लगा रहता है।"
रवि -" तुम्हें यहां काम ही क्या है। क्या तुमसे खेतों में मेहनत करवा रहे है या कुएं से पानी ढोने को बोल रहे है। और तुम्हें जाना ही है अपने घर तो जाओ। कौन सा तुम्हारे बिना ये घर ; घर नहीं रहेगा। "
सुजाता को रवि की बातों का बहुत दुख हुआ; पूरा दिन खुद को अनदेखा करके इस घर का कोना कोना सजाती हूं फिर भी इस घर में मेरा कोई नहीं।
सुजाता ने भी गुस्से से कहा -" ठीक है। जब कोई काम है ही नहीं तो फिर मेरे जाने में कोई दिक्कत नहीं। वैसे भी इस घर में सबके लिए मैं अदृश्य सी हूं सिर्फ काम के वक्त ही लोगों को दिखती हूं।"
रवि ने झुंझलाते हुए कहा -" ठीक है जाओ। तुम्हारे बिना भी चल जाएगा ये घर।"
सुजाता ने मन बना ही लिया कि अब तो एक हफ्ते की बजाय एक महीने तक नहीं आउंगी।
सुजाता अपने घर चली गई।
रवि ऑफिस से वापिस आया तो देखा ; घर में सब सामान इधर उधर बिखरा पड़ा था।
मां सोफे पर सिर पकड़े बैठी थी।
रवि ने रोज की तरह आवाज़ लगाई -" सुजाता। पानी देना! चाय भी चढ़ा दो; अदरक वाली। मां भी पिएगी।"
रवि की मां; सावित्री जी ने कहा -" बावला हो गया है क्या। सुबह खुद ही तो बहू को उसके घर छोड़कर आया है।"
रवि को काम के चक्कर में याद ही नहीं रहा कि सुबह गुस्से में जो बड़ी बड़ी डिंगे हांकी थी अब उसका नतीजा आना शुरू।
रवि -" अरे भूल गया था। छोटी । चाय बना लो जरा।"
छोटी -" भैया मेरे तो पेपर शुरू है कल से। मैं पढ़ रही हूं मां को बोल दो!"
सावित्री जी -" अरे। मेरे तो पहले ही सिर में दर्द हो रहा है। सुबह से इतना काम करके मेरी कमर ही दुखने लग गई।"
रवि को खुद ही चाय बनाने पड़ी।
जो कभी पानी भी खुद से लेकर नहीं पीता था आज वो ऑफिस के काम से थककर भी चाय बना रहा था।
मां और छोटी ने जैसे तैसे खाना बनाया और रवि को आवाज़ लगाई; खाने के लिए।
सुजाता तो कमरे में ही रवि को खाना दे आती थी।
आज खुद उसे नीचे टेबल तक जाने में लंबा रास्ता लग रहा था।
खाने को देखकर रवि बोला -" मां। ये कढ़ी बनी है बस । तुम्हें पता है ना बिना चपाती मैं नहीं खा सकता कढ़ी। कोई दूसरी सब्जी भी नहीं है।"
सावित्री जी -" बचपन से आजतक तेरे नखरे उठाए है। जो बना है खा लो। इतने स्वाद चाहिए तो बीवी को नहीं भेजना था ना मायके।"
छोटी -" भैया हम भी तो खा रहे हैं। आपको पता भी है पूरे दिन से लगे हुए हैं हम।"
रवि को अब खुद पर गुस्सा आ रहा था, कभी सुजाता की कमी उसे इतनी नहीं खली।
रवि ने खाना छोड़ा और अपने कमरे में आ गया।
आज कमरे में ना पायल का शोर था, ना चूड़ियों कि आवाज़।
एक तो खाली पेट वैसे ही रवि परेशान था , ऊपर से ये अकेलापन।
खुद ही तेल की शीशी उठाई और सिर पर मसाज करने लगा।
तब भी सुजाता वाला एहसास उससे भुलाया नहीं गया।
झुंझलाते हुए फोन किया -" यार। तुम कब आओगी। ये घर मुझे किसी खाली मकान से कम नहीं लग रहा।"
सुजाता -" अरे । 2 दिन में ही घर को मकान बना दिया। आप तो कहते थे मेरे बिना भी ये घर चल जाएगा। सिर्फ काम के लिए ही मेरी याद आई क्या।"
रवि -" नहीं। ऐसी बात नहीं। मुझे माफ़ कर दो। काम की बात तो छोड़ो तुम्हारे बिना ये कमरा मुझे काटने को दौड़ रहा है।
कोई नहीं है जो पूछे की ऑफिस में कैसा दिन गया।
क्या परेशानी है।
कोई नहीं जिसकी गोद में सिर रखकर सुकून पा सकूं।
सुजाता -"आपको ये अकेलापन आज लगा मुझे तो रोज ही लगता था।
खैर। मेरी तबीयत ठीक होगी तब आ जाऊंगी। आपको अकेलापन महसूस हो तो आ जाना मिलने।"
रवि -"मैं कल आऊंगा,तुम्हे खुद डॉक्टर के पास लेकर जाऊंगा।"
सुजाता -" खाना खाया आपने!"
रवि की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे, आज अपने ही घर में उसे पराए होने का एहसास हो रहा था।
रवि ने खुद को संभालते हुए कहा -" कल लंच साथ करेंगे!"
अगले दिन ऑफिस के लिए तैयार होते वक्त अपने जुराबे,कपड़े तैयार करते हुए हर पल में उसने सुजाता को याद किया।
सुबह का नाश्ता नहीं बना था , तो बिना नाश्ता किए ही चला गया ।
सुजाता को डॉक्टर के पास दिखाया, सुजाता के शरीर में खून की कमी थी।
इस वजह से बहुत थकावट रहने लगी थी।
फिर घर का काम और मन भी खुश नहीं था।
रवि और सुजाता ने लंच बाहर ही किया ।
रवि ने कहा -" मुझे माफ़ कर दो। तुम्हारा ध्यान नहीं रखा मैंने। तुम्हारे बिना वीरान है मेरी ज़िन्दगी। अब तुम्हे कोई परेशानी नहीं होने दूंगा।"
सुजाता -" काम करने में कोई परेशानी नहीं। पर जब कोई अपना हालचाल पूछने वाला भी ना हो तो ठीक आदमी भी बीमार जैसा हो जाता है।"
रवि ने सुजाता का हाथ पकड़ते हुए कहा -" मैं वो तकलीफ़ महसूस कर चुका हूं सुजाता। अब तुम जल्दी से ठीक हो जाओ। उस मकान को फिर से घर बना दो।"
सुजाता को घर छोड़कर रवि अपने घर आ गया।
घर जाकर देखा 2 दिन से घर में सफाई तक नहीं हुई थी, किचन भी फैला हुआ था।
रवि ने मां को कहा -" मां कोई काम वाली ढूंढ लो जो काम में हाथ बंटा सके।"
सावित्री जी -" आजतक इस घर में काम वाली नहीं आईं अब भी नहीं आयेगी। तू अपनी पत्नी को ले आ; कबसे मायके में पड़ी है।"
रवि -" मायके में वो पड़ी नहीं है, रह रही है। पड़ी हुई तो वो यहां थी। जो बस काम के वक्त ही नजर आती थी। अब कामवाली रखूंगा, सुजाता को भी आराम की जरूरत है!"
सावित्री जी ने बेटे को बहू का पक्ष लेते देख चुप रहने में ही भलाई समझी।
अगले दिन से घर में काम करने वाली भी आ गई।
सुजाता की सेहत में सुधार होने पर रवि सुजाता को भी ले आया।
सुजाता ने सावित्री जी को प्रणाम किया !
सावित्री जी -"जीती रहो। अपना ध्यान रखा करो बेटा। अब तुम्हें ही इस घर की ज़िम्मेदारी उठानी है।"
सुजाता -" मां जी आप मुझे भी दीदी जैसा प्यार दे। ज़िम्मेदारी उठाने में कोई कमी नहीं रखूंगी मैं।"
सावित्री जी -"हां बेटा। घर तो बहू से ही होता है, बेटियां तो चली जाती है ब्याहकर।"
रवि , सुजाता का समान कमरे तक रखने गया।
सुजाता ने कमरे में आकर देखा कैसे एक एक चीज वैसी ही रखी है जैसे सुजाता छोड़कर गई थी।
रवि ने सुजाता को गले से लगाया और कहा -" मैं कबसे इस पल के इंतजार में था। देखो मेरा मकान आज फिर घर बन गया। "
सुजाता -" पहले मैं सोचती थी काश। एक दिन के लिए मैं अदृश्य हो जाऊ तो मैं देखूं कि मेरी क्या अहमियत है। पर आज मुझे ऐसा नहीं लग रहा ।"
रवि -"तुम्हारे एक दिन के जाने में ही मुझे तुम्हारी अहमियत समझ आ गई थी। अब तुम्हें कभी अदृश्य नहीं होने दूंगा मैं।"
दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखा और मुस्कुरा दिए।
दोस्तों, जब कोई हमारे पास होता है तो हम उसकी अहमियत नहीं समझते।
उसको दूर होने पर ही अहमियत समझ आती है।।
इसलिए जब भी लगे कि कुछ नया होना चाहिए तो एक दिन के लिए अदृश्य होकर जरूर देखें !