Raj Shekhar Dixit

Crime

4.0  

Raj Shekhar Dixit

Crime

अदृश्य असाधारण शक्ति

अदृश्य असाधारण शक्ति

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दिल और दिमाग के ऊपर आजकल हर दूसरा व्यक्ति इस तरह चर्चा करता हैं, मानो वो उस विषय में पारंगत हो। लोग हमेशा भ्रमित रहते हैं कि वे दिल की सुन रहे हैं कि दिमाग की? मुझे भी एक लंबा समय इस बात को समझने में लग गया कि मैंने जिंदगी के महत्वपूर्ण निर्णय दिल से लिए हैं या दिमाग से? परन्तु कोई ठोस उत्तर नहीं मिलता। पर मेरे जीवन की एक घटना याद हैं जब मेरे शरीर में कोई अदृश्य शक्ति आ गई थी और उस समय मैंने सिर्फ दिल की सुनी थी। जब भी वो दृश्य सामने आता हैं तो मन को एक सुकून मिलता हैं, कि मैं भले ही असली जिंदगी में फिल्मी हीरो की तरह किसी अनजान व्यक्ति पर हुए हमले के अपराधी को सलाखों तक न पहुँचा पाया हूँ, पर उस अधमरे शरीर को उठाकर अस्पताल तक पहुंचाया और उसकी जिंदगी को बचाया था। इस दौरान उन अपराधियों ने मेरा चेहरा पहचान लिया था और ये मुमकिन था कि मैंने अगर सूझ-बूझ से काम नहीं लिया होता तो शायद मैं आपके साथ ये संस्मरण प्रस्तुत नहीं कर पाता।


तब मैं मुश्किल से 20 वर्ष का था और अमरावती के एक सरकारी कॉलेज में बी.एस सी. की पढ़ाई कर रहा था। जैसा कि इस उम्र में नौजवानों के साथ होता हैं, मैं भी अपने चेहरे से बे-इन्तेहा मोहब्बत करता था और अपने आप को किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं समझता था। चूँकि स्कूल और कॉलेज में नाटकों में हिस्सा लेता रहता था तो मन ही मन में सोचता था कि 21 साल का हो जाने के बाद बम्बई में अपना भविष्य बनाऊंगा। अपने पसंदीदा हीरो के तरह के कपड़े पहनना, उन्हीं की तरह आँखे मटकाकर बातें करना, उनकी तरह हेयर-स्टाइल; ये सब मेरी दिनचर्या का हिस्सा थे। जब कभी मेरे घर के दूसरे भाई बहन या चाचा- चाची मजाक में कहते कि गुड्डू भैय्या, यानी मैं, तो अमिताभ बच्चन की तरह ऊँचा पूरा हूँ और नाचता भी उसी तरह हूँ, तो लगता था कि मेरा हीरो बनने का सपना एक दिन अवश्य पूरा होगा।


गर्मी की छुट्टियों में हम भाई बहन अपनी मम्मी के साथ मामाजी के घर नागपूर गये थे। मामाजी वहाँ रेलवे वर्कशॉप में सुपरवाइजर थे। उनके पास एक पुराना स्कूटर था जो किसी को भी चलाने नहीं देते थे। चूंकि मुझे स्कूटर चलाते बनता था लिहाजा मुझे थोड़ी दूर तक जाने के लिए स्कूटर मिल जाता था। उस रात मामी ने पूछा कि ब्रेडरोल कौन कौन खायेगा? सबने हामी भर दी। मामीजी ने मुझे तुरंत आदेश दिया कि मैं लालवानी की दुकान से ब्रेड का बड़ा पैकेट लेकर आऊँ। लालवानी की दुकान करीब एक किलोमीटर दूर थी तो मामाजी ने स्कूटर देते हुए कहा, संभालकर चलाना और ब्रेड लेकर तुरंत आ घर वापस आ जाना।


मैंने एक छोटा रास्ता लिया जो झाड़ियों के बीच से गुजरता हैं, और रात में अक्सर सुनसान रहता हैं। मुश्किल से थोड़ी दूर ही चला था कि किसे के चीखने की आवाज आई। मैंने देखा एक मोटर साइकिल पर तीन लोग सवार थे और बीच में बैठे एक आदमी के हाथ में तलवार थी जिससे उसने एक पैदल चल रहे आदमी की गर्दन पर तेज प्रहार किया था। वो आदमी गिर पड़ा और बचाने की गुहार कर रहा था। मैं ये दृश्य देखकर डर गया और फर्राटे से आगे निकल गया। मैं बहुत भयभीत हो गया था। मैं करीब 50 मीटर आगे बढ़ा और पीछे मुड़कर देखा। वो मोटरसाइकिल कहीं ओझल हो गयी थी। घायल आदमी मुझे दूर से देखते हुए मदद मांग रहा था। डर के कारण दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। वैसे भी दिमाग से सोचो तो ऐसी जगह हीरोगिरी दिखाना बेवकूफी होती हैं, क्योंकि मदद करने पर खुद की जान से हाथ धोना पड़ सकता हैं। पर दिल ने कहीं से आवाज दी, क्या तुम इसकी मदद नहीं करोगे? मैं मुड़ा और उस घायल आदमी के पास पहुंचकर अपनी स्कूटर को स्टैंड लगाकर खड़ा किया। उसे किसी तरह से पीछे की सीट पर बैठाया और ज्योंही स्कूटर स्टैंड से उतारी तो पाया, वो मोटर साइकिल मेरे पीछे से आ रही थी। मैंने सर्राटे से स्कूटर दौड़ाया पर थोड़ी ही देर बाद मोटरसाइकिल मेरे एकदम पास थी। न जाने दिल की आवाज ने मेरे शरीर में एक असाधारण सी शक्ति दी और मैं जोर से चिल्ला उठा- अहहटट। आवाज में दम था और वो मोटरसाइकिल वाले गुंडे इस दमदार आवाज से विचलित होकर भाग गए। मैं घबराते हुए उस घायल व्यक्ति को रेलवे हस्पताल ले गया और उसे एडमिट करवा दिया। जाते जाते उसके घर का पता पूछ लिया। वो कोई रेलवे का ही कर्मचारी था। मैं उसके घर गया और उसकी पत्नी और बड़े लड़के को लेकर हस्पताल के बाहर ही छोड़ा दिया।


इस पूरी प्रक्रिया में करीब एक घंटा लग गया। तब तक दुकान बंद हो गयी थी। मैं घर पहुँचा तो मामाजी मेरे ऊपर चिल्ला पड़े- " गुड्डू तुम कितने लापरवाह हो। ब्रेड लेने भेजा था और तुम अब घंटे भर बाद वापस आ रहे हो।" मैंने डरते हुए कहा कि मामाजी ब्रेड नहीं मिली और सारी घटना को विस्तार से बता दिया। मेरे कपड़ो में कुछ जगह खून के निशाँ दिख रहे थे। अब तो मामाजी का गुस्सा सांतवे आसमान पर पहुँच गया और चिल्ला के बोले- " गुड्डू ये हीरोगिरी करना बंद कर दो। तुम्हें क्या जरूरत थी किसी को हस्पताल तक छोड़ने की। उस इलाके में अपराधी घूमते हैं और तुम्हें भी मार सकते थे।" मैं गर्दन झुकाए हुए ये सब चुपचाप सुन रहा था। खैर ब्रेडरोल तो नहीं बना पर रात सबको खिचड़ी मिल गयी। मैं उस रात सो नहीं पाया और सारा समय उस आदमी के बारे में सोच रहा था। मेरी आँखों में वही दृश्य घूम रहा था, जब मैं उसकी पत्नी और बेटे को घर पर लेने गया था। पत्नी को जब बताया कि उनके पति पर वार किया था तो वो बेहताशा रोने लगी थी। उसका बेटा बार बार कह रहा था मैं ताउजी और उनके बच्चों को नहीं छोडूंगा। उनकी बातों से लग रहा था कि ये कोई लेनदेन का आपसी मामला था। सबेरे 4 बजे थोड़ी देर सो पाया। सुबह उठाते ही ये प्रश्न दिमाग में घूमा की क्या वो जीवित बचा होगा?


उस दिन के बाद मामाजी ने मुझे स्कूटर देना एकदम बंद कर दिया। मेरे दिमाग में उस व्यक्ति का कराहता हुआ चेहरा बार बार परेशान करता था। उस घटना के तीन दिन बाद मुझे अमरावती वापस जाना था। वापस जाने के एक दिन पहले मैं पैदल ही हस्पताल गया और उस घायल व्यक्ति के बारे में पूछा। मुझे मालूम पड़ा कि उसकी गरदान पर जोरदार वार होने के कारण उसका बचना मुश्किल था। मैंने जब उसे एडमिट कराया था उसके थोड़े ही देर बाद उसे तुरंत नागपूर मेडिकल कॉलेज रेफेर कर दिया था जहाँ पर उसका इमरजेंसी में ऑपरेशन करना पड़ा था। वो जीवित गया बच था और तब आई सी यू वार्ड में था। एक बार चाहा कि उसके घर वालों से मिलूँ। फिर दिमाग ने उत्तर दिया-" वे तुम्हारे कौन हैं और उनसे मिलकर क्या करोगे?"


आज इस घटना को 40 साल हो गये हैं। पर आज भी लगता हैं कि मैंने अपने दिल की आवाज सुनकर किसी की जान बचाई और मुझे उस पल मेरे साधारण से शरीर में एक असाधारण सी शक्ति मिल गयी थी।


इसीलिए कहते हैं, कभी कभी दिल की भी सुन लिया करो।



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