अंतिम यात्रा
अंतिम यात्रा
लखनऊ शहर की रंगत और शानो शौकत को ये क्या हो गया है। लॉक डाउन की वजह से मानो सारा शहर एक शमशान बन गया है। एक अजीब सा माहौल इस कोरोना वायरस संक्रमण से हो गया है। सारे शहर में कर्फ्यू लगा था। ऐसे ही लॉक डाउन के माहौल में आज सुबह 7 बजे मेरे पास मैडम चोपड़ा का फ़ोन आया। अचानक कुछ ऐसी बात हो गयी कि मेरा उनके घर पहुँचना निहायत जरुरी था। लखनऊ शहर में मैं ही एक ऐसा शख्स था जो ऐसे वक्त में उनकी मदद कर सकता था। फ़ोन आने के बाद मैं तुरंत ही घर से निकल पड़ा। घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी थी, इसलिए पुलिसवाले मुझे हर दो सौ मीटर पर मेरी स्कूटी रोककर, डंडे फटकारते हुए बाहर घूमने की वजह पूछ रहे थे और मुझे अपना एक्स-आर्मी वाला परिचय पत्र दिखाकर अपने घर से बाहर निकलने की वजह बताना पड़ रही थी।
करीब 8 बजे गोमती नगर में उनके अपार्टमेंट पहुँचा। गार्ड को भी मिन्नतें करके जब वहाँ पहुँचने की वजह बतायी तब उसने पहले सोसाइटी प्रेसिडेंट को फ़ोन करके पूछा, फिर अन्दर आने दिया। उनके घर में गहरा सन्नाटा था। सामजिक दूरी के चलते उनके घर में कोई नहीं था। मेरे पहुँचने के साथ ही साथ उस सोसाइटी अपार्टमेंट के प्रेसिडेंट दो अन्य लोगो के साथ पहुँच गए। चोपड़ाजी बिस्तर पर अचेत पड़े थे। मैडम चोपड़ा लगातार रोये जा रही थी और अन्दर से घबरा रही थी। मुझे देखकर वे थोड़ी आश्वस्त हो गई। सोसाइटी प्रेसिडेंट करीब 10 मिनट रुके और सोशल डिस्टेन्सिंग का हवाला देते हुए मैडम चोपड़ा से कहा कि वे लोग अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो पायेंगे परंतु मदद के लिए दो सिक्यूरिटी गार्ड को घर भेज देंगे।
छः महीने पहले ही चोपड़ाजी की बाईपास सर्जरी हुयी थी। डॉक्टरों का मानना था कि बाईपास के बाद वे एकदम स्वस्थ हो जायेंगे और इसीलिए ऑपरेशन होने के दो महीने बाद से उन्होंने रोजाना घूमना फिरना शुरू कर दिया था। पर आज सुबह ही पांच बजे उनके सीने में दर्द हुआ और थोड़ी देर बाद उनकी साँसे थम गयी। घबराहट में मैडम चोपड़ा ने एक पहचान के डॉक्टर शर्मा को फ़ोन किया तो उसने कहा कि लॉक डाउन के कारण वह तुरंत घर नहीं पहुँच पाएंगे। इसके बाद मैडम चोपड़ा ने अस्पताल फ़ोन किया और एम्बुलेंस बुलवाना चाही। दूसरी तरफ से आवाज आई कि क्या उन्हें कोरोना का शक था या कोई लक्षण थे? इस पर चोपड़ा मैडम ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं था। इतना सुनते ही दूसरी तरह से फ़ोन काट दिया गया। कोरोना संक्रमण की वजह से सारी एम्बुलेंस सिर्फ कोरोना वालों को प्राथमिकता दे रही थी। जैसे तैसे डॉक्टर शर्मा करीब पौने सात बजे वहाँ पहुंचे और चेक करने के बाद चोपड़ाजी को मृत घोषित करके वापस चले गए।
आज मुझे पहली बार अहसास हुआ कि मौत के आगे लोग कितने लाचार हो जाते हैं। एक खुर्राट आर्मी अफसर भी मौत के आगे इतना बेबस हो गया कि उसे शायद चार कंधे भी नसीब न हो पाएंगे। मैंने अपने ऊपर हुए पुराने जुल्मो को भूलकर उनकी अंतिम यात्रा के लिए चार कंधो का इन्तजाम करने की तैय्यारी शुरू कर दी। और अपने बचपन के दो लोगो को फ़ोन करके सारी बात बताई, जो लॉक डाउन जैसी कठिन परिस्तिथी में अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर सकते हैं।
कभी मेरे बॉस रहे, कर्नल चोपड़ा को मौत के बाद अहसास हो रहा होगा कि जब अंतिम बिदाई में अपना सगा न हो तो कैसा लगता हैं। मैंने उनके साथ कारगिल की जंग में हिस्सा लिया था। मैं उनकी टुकड़ी में लांस नायक था और उस समय वे मेजर के पद पर थे । मेरे पिताजी का देहांत 1971 की भारत पकिस्तान युद्ध में हो गया था जब मैं मुश्किल से 2 वर्ष का था। बाद में मेरा लालन पोषण मेरे ताऊजी ने किया। वे भी आर्मी में सूबेदार थे। ताऊजी का कोई बेटा न था इसलिए, वे ही मुझे अपना बेटा मानते थे। कारगिल युद्द शुरू होने से पहले मेरे ताउजी की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो चली थी। मैंने छुट्टी की अर्जी दे डाली, पर चोपड़ाजी ने रद्द कर दी। खैर मुझे बुरा नहीं लगा, क्योंकि हम सेना के लोगों के लिए देशभक्ति परिवार से ऊपर मानी जाती हैं। कुछ हफ्ते बाद ताईजी का सन्देश आया की ताउजी अंतिम सांस ले रहे हैं और कभी भी सिधार सकते हैं, मैंने फिर छुट्टी की अर्जी दी, इस बात पर मुझे मेजर चोपड़ा ने ऑफिस में बुलाकर फटकारा और कहा-" अभी युद्ध हो सकता हैं, इसलिए कोई छुट्टी नहीं मिलेगी। हमे पहले पाकिस्तानियों के गले कट काटकर उनकी माला बनाना है, फिर छुट्टी के बारे में सोचेंगे।" जब मैंने बताया की ताउजी का अंतिम समय चल रहा हैं और जाना जरुरी हैं, तो उन्होंने गुर्राते हुए बड़े घटिया अंदाज में कहा- " अभी वे मरे तो नहीं हैं, फिर क्यों जाना चाहते हो।" मेरे गिड़गिड़ाने का उन पर कोई असर नहीं हुआ।
तभी युद्ध शुरू हो गया। इसी बीच ताउजी का देहांत हो गया, पर मुझे उस समय सूचित नहीं किया गया। युद्ध समाप्ति पर मुझे बताया गया, तब तक एक उन्हें गुजरे एक हफ्ता हो चुका था। जब मैंने चोपड़ाजी से मुझे समय पर न बताने की वजह पूछी तो सिर्फ इतना कहा कि ऊपर से आदेश था। वैसे भी आर्मी में अनुशासन के नाम पर ज्यादा बहसबाजी अफसरों के साथ नहीं हो पाती हैं। मेरे ताउजी का अंतिम संस्कार हमारे परिवार के अन्य लोगों ने अच्छी तरह से किया, पर मैंने मन ही मन में इस चोपड़ा को बददुआ दी कि वो जब मरे तब उसकी अर्थी के लिए चार कंधे भी नसीब न हो।
पाकिस्तानियों से उन्हें बेहद नफरत थी, क्योंकि उनके पूर्वज बंटवारे के समय पाकिस्तान से यहाँ अपना सारा कारोबार छोड़कर आये थे। और इसीलिए मुस्लिम वर्ग के लिए उनके मन में हमेशा द्वेष भाव रहता था। इसके बावजूद चोपड़ाजी की एकमात्र बेटी ने घर से भागकर अपने कॉलेज के एक मुस्लिम लड़के से शादी कर ली थी जो यमन का निवासी था। वो उसके साथ यमन में रहने चली गई थी। चोपड़ाजी ने अपनी बेटी से सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए थे। बाद में मालूम पड़ा था कि उस लड़की के साथ यमन में उसके ससुरालियो द्वारा अत्याचार होता था। उसकी कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी थी, पर कुछ लोग मानते थे कि उसने कार के आगे कूदकर आत्महत्या की थी।
चोपड़ाजी पिछले वर्ष ही लखनऊ ऑफिस से रिटायर हुए और यही एक अपार्टमेंट मे रहने लगे। चूँकि मैं लखनऊ का निवासी हूँ, इसलिए मैंने शिष्टाचार के नाते उनकी अपार्टमेंट खरीदवाने में उनकी मदद की।
अचानक मोबाइल की घंटी बजी। कासिम का फ़ोन था। सोसाइटी के गेट से बोल रहा था। उसने बताया कि अर्थी का सामन ले आया हैं और साथ में अपनी मारुती वैन लेकर आ गया हैं। कासिम के साथ हलीम, अब्दुल और जावेद थे। मैंने इन चारोँ के साथ मिलकर और दो सिक्यूरिटी गार्ड की मदद से चोपड़ाजी के मृत शरीर को 12वीं मंजिल से सीढियों के सहारे नीचे उतारा और मारुती वैन में अर्थी सजाकर रख दी। कासिम और अब्दुल वैन को लेकर अंतिम निवास की और चल पड़े। मै चोपड़ाजी की कार में हलीम और जावेद के साथ उनके पीछे चल पड़ा।
बस इस तरह उनकी अंतिम यात्रा निकली। उनकी यात्रा में चार कंधे मुसलमानों ने दिए, जिनके प्रति उनके मन में जहर भरा था और मुखाग्नि एक साथी ने दी जो अपने पिता तुल्य ताऊजी की अंतिम यात्रा पर न पहुँच सका था। किसी हिन्दू व्यक्ति का मुस्लिम लडको द्वारा अंतिम संस्कार संपन्न हुआ, ये समाचार भी किसी भी इलेक्ट्रॉनिक या पेपर मीडिया में नहीं दिखाया गया।