Raj Shekhar Dixit

Others

4.0  

Raj Shekhar Dixit

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ब्लैक टिकट का गुजरा हुआ ज़माना

ब्लैक टिकट का गुजरा हुआ ज़माना

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आज कई दिनों बाद हमारे प्रिय गायक स्वर्गीय किशोर कुमार का एक पुराना गाना सुनने मिला जो 1977 की चर्चित फिल्म ‘चोर सिपाही’ का था। गाना सुनने के बाद उस युग की कई यादें ताजा हो गयी। ये गाना उस फिल्म के नायक के एंट्री सीन का हिस्सा था। उस गाने के एक दृश्य में दिखाया गया था कि फिल्मों के टिकट की कालाबाजारी किस तरह से उस युग का एक प्रचलित धंधा हुआ करती था। फिल्म का नायक शशि कपूर जो एक पुलिस अफसर रहता हैं, उन ब्लैक टिकट करने वाले अपराधियों को दबोचता हैं और गाना गाते गाते उनकी धुनाई करता हैं और जेल भेजता हैं। 

साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में चलचित्र यानी फिल्में ही मनोरंजन का मुख्य जरिया होती थी। उन दिनों स्कूल- कॉलेज के बच्चों, युवाओं-युवतियों और तो और सभी उम्र और वर्ग के फिल्म प्रेमियों में होड़ रहती थी कि कौन सबसे पहले नयी फिल्म देख पाता हैं । कुछ लोगों का लक्ष्य रहता था कि कुछ भी करना पड़े, फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखना ही हैं। लोगों में फिल्म के प्रति बड़ी दीवानगी हुआ करती थी, जिसकी खातिर लोग कोई भी कीमत चुकाने तैयार हो जाते थे। लिहाजा, अर्थशास्त्र के नियमानुसार ये जुनून एक व्यवसाय के लिए अवसर प्रदान करता था, जिसे सिनेमाघर की टिकटों की कालाबाज़ारी या ब्लैक टिकट नाम से जाना जाता था। 

इस फिल्मी दीवानापन का फायदा उठाते हुए दबंग किस्म के गुंडे-बदमाश लोग बहुत पहले से सिनेमाघर की टिकट खिड़की पर अपने लोगों को खड़ा करके ढेर सारी टिकटे खरीद लेते थे और जिनको खिड़की से टिकट नहीं मिल पाती थी, वे उन कालाबाजाįरयों से मुंहमांगे दाम पर टिकट लेते थे। टिकट के दाम सप्लाई डिमांड के आधार पर तय होते थे। कई बार 5 रुपये का टिकट 50 रुपये तक बिक जाता था। इस धंधे में लाभांश के पात्र कई लोग प्रत्यक्ष तौर पर होते थे और कुछ लोग अप्रत्यक्ष तौर पर होते थे, जिनमें स्थानीय पोलिसवाले, स्थानीय नगर निकाय के कर्मचारी और स्थानीय नेता प्रमुख होते थे। 

वैसे तो ये गोरखधंधा एक सामाजिक अपराध माना जाता हैं, पर इस धंधे से कई लोगों की गुजर बसर होती थी। लोगों को ज़रा भी आभास नहीं होगा की ये कितने बेरोजगारो का सहारा होता था।

यह एक संगठित व्यवसाय होता था जिसमें टिकट कालाबाजाįरयों के अलावा जेबकतरों, टुटपुंजे चोरों, बासे- तिरासे आलूबंडो- कचोरी बेचनेवालों जैसे लोगों को कमाई का अवसर मिलता था। इस व्यवसाय को उस इलाके के डॉन या चालू भाषा में कहे तो भाई लोग चलाते थे। जब कोई बहुचर्चित और बहु प्रतीक्षित फिल्म लगती थी तब स्वभावतः सिनेमाघर के बाहर भीड़ इकट्ठी होती थी। जो लोग लाइन में लगकर धक्का-मुक्की के साथ अपने टिकट खिड़की के पास तक पहुँचाने उधेड़बुन में परेशान रहते थे, वे अपनी जेब कटवा लेते थे क्योंकि उनका ध्यान इस बात पर रहता था कि जल्दी से टिकट मिल जाए। ये जेबकतरे भीड़ में परेशान लोगों के मनोविज्ञान को भली-भांति समझा करते थे और फिर अपने हाथ की सफाई दिखाते थे। 

जिनको भीड़-भाड़ के बावजूद टिकट मिल जाती थी, उनके चेहरे पर कुछ ऐसे भाव टपकते थे मानो उन्होंने किला फतह कर लिया हो। उनके चेहरे की मुस्कान में अलग किस्म की चमक होती थी। 

जो बेचारे टिकट जल्दी खरीदने के चक्कर में अपनी साइकिल निर्धारित पार्किंग में खड़ी न करके सिनेमाघर के बाहर ताला लगाकर टिकट की लाइन में लग जाते थे, उनकी प्रायः साइकिल चोरी हो जाती थी। अगर चोर ताला न तोड़ पाए तो साइकिल की सीट कवर ही चुरा लेते थे। 

भीड़ होगी तो खाने पीने का सामान भी खूब बिकेगा इसलिए वहाँ भी सप्लाई डिमांड का रूल चलता था और सड़े बासे- तिरासे आलूबंडे व कचोरी भी बिक जाती थी। 

ऐसे माहौल में फिल्म देखने का मज़ा ही अलग होता था। सभी दर्शकों में उत्साह होता था, इसलिए जब हीरो की परदे पर एंट्री होती थी तब लगता था मानो साक्षात भगवान प्रगट होकर धरती पर उतर आये हो। चारों और से सीटियों की आवाज गूँज जाती, जबरदस्त शोरगुल हो जाता और परदे की तरफ से सिक्कों के फेंके जाने की आवाजें आती।

कुछ छात्र और छात्रायें तो नियमित तौर पर पहला दिन पहले शो को देखने पहुँचते थे और उनकी इश्क़ की गाथाये भी इन्ही सिनेमाघरों से शुरू होती थी। बाद में कई किस्से सुनने मिल जाते थे।  

जब से मल्टीप्लेक्स आ गए हैं तब से वो माहौल करीब करीब ख़त्म हो गया। फिल्म टिकटों की कालाबाजारी लगभग लुप्त हो गयी हैं। छोटे शहरों में , ख़ास करके दक्षिण भारत में जहां पर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर हैं , वहाँ पर अब भी यदा-कदा ब्लैक टिकट बिकते हैं।  

मैंने अपने जीवन में कई फिल्में ब्लैक टिकट लेकर देखी हैं। अंतिम फिल्म थी- बॉबी देओल और प्रीति ज़िंटा अभिनीत “सोल्जर” जो 1998 में प्रदर्शित हुयी थी। उन दिनों मैं कालीकट, केरल में पोस्टेड था। बालकनी की 25 रुपये वाली टिकट केलिए 80 रूपये दिए थे। चूँकि फिल्म जबरदस्त मसालेदार और मनोरंजन से भरपूर थी तो मुझे 80 रुपया देना बिलकुल नहींअखरा।

वो ब्लैक टिकट का गुजरा ज़माना तो वापिस नहीं आएगा, पर दिनों की यादों में एक सुकून मिलता हैं। फिल्में देखने का वो मज़ा अब मल्टीप्लेक्स में नहीं आता। 


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