अदम्य

अदम्य

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करुणा पीड़ा का संगम स्थल मंदिर से सटा छोटा आवास जैसे संध्या अपनी धुंधली चादर से ढक चुकी थी।रात अब कालिमा का उत्सव बनाने को प्रतिबद्ध थी और नगर अपना दीपोत्सव।


खिड़की पर बैठी कांता के मन में था प्रचंड तूफान। निर्विकार भाव से मंदिर दर्शन को जाती भीड़ के स्वयं भी दर्शन कर रही थी।

तीव्र गामी भीड़ उसे चीटियों के समूह सरीखी लग रही थी। परिश्रमी अनंत पथ गामिनी चींटी सरीखा ही तो था उसका जीवन पथ।

जीवन पर्यंत अपने पुजारी पति की सहचरी और अब अपने मंदबुद्धि पुत्र का संपूर्ण संसार।


जीवन पथ पर साथ छोड़ चले पति के स्मरण कर उसका हृदय आज बहुत व्यथित था।नगर के प्रमुख मंदिर के मुख्य पुजारी घनश्याम जब आरती के बाद मंदिर परिसर में वीणा पर राग अलापते तो दया व श्रद्धा के भाव सहज ही प्रकट हो जाते थे।


उनके स्वर के उतार-चढ़ाव व वीणा की झंकार बहुत आनंद प्रद स्थिति उत्पन्न कर देती थी ।दर्शन को आए भक्तों की भीड़ दर्शक बन झूमने लगती।

पर प्रभु शायद उनसे थोड़े रुष्ट थे इसी के चलते बहुत अंतराल के बाद जन्मे उनके पुत्र को रचने में प्रकृति ने थोड़ी मितव्ययिता बरती थी।


मंदबुद्धि पुत्र रघु दुनिया की बातों से परे बस अपने पिता की संगीत की दुनिया में लीन रहता।पिता जब गाते तब उसकी किलकारियां देख पिता मुस्काते और कांता निराशाजनक बैठी देखती। उसे रघु का जीवन पथ दुर्गम लगता कि कोई भी उसे कभी भी हानि पहुंचा सकता था।


नगर के प्रत्येक क्रिया सुख दुख में घनश्याम का उत्साहित हाथ बराबर कार्य किया करता था।हर जगह वह अपने लिए गौरव का स्थान बिना प्रयास के बहुत आसानी से प्राप्त कर लेते थे।

किसी भी जगह उनकी उपस्थिति ही उन्हें नायक का पद प्रदान कर देती थी।


प्रतिष्ठा शत्रुता की जनक होती है तो भला घनश्याम का जीवन इस गुण से कैसे रिक्त रहता।मंदिर का उपपुजारी जय गोपाल प्रारंभ से ही मन में उनके लिए द्वेष लिए रहता।घनश्याम की अति प्रसिद्धि उसकी ईर्ष्या को और बढ़ावा देती, तब अचानक घनश्याम की मृत्यु से उपजे मुख्य पुजारी के रिक्त पद पर क्यों ना आस लगाता।

मुख्य पुजारी का पद संभालते ही उसे रघु वा कांता बुरे लगने लगे।

अब वह उनका आवाज भी हथियाना चाहता था।

उधर आरती के पश्चात भजन का आनंद लेना भक्तों का नियम बन गया था और जय गोपाल इस विधा में निरक्षर था।

कांता को अब रघु का भविष्य असुरक्षित लगता।


वे यह विचार कर ही रही थी कि उसने देखा रघु दीपोत्सव में सजे मंदिर के भव्य दियों की छटा को देखकर उन्मुक्त नृत्य कर रहा था।

कांता का हृदय वात्सल्य मई करुणा से भर आया।रघु को अंदर बुला वह स्नेह से उसे भोजन कराने लगी।

अपनी समस्या का निराकरण उसने प्रभु पर ही छोड़ दिया था।

प्रातः स्नान कर जब वह रघु को ढूंढती घर से बाहर आई तो देखा रघु मंदिर में जयघोष कर ढोल की थाप अनुप्राणित कर रहा था.

भक्तों की भीड़ झूम रही थी और समस्त संचित आशीर्वाद दे रही थी।

दूर खड़े पराजित मुख जयगोपाल में अब विरोध की शक्ति समाप्त थी।

कांता को जैसे प्रभु ने जीवन पथ प्रदर्शन कर दिया था और रघु का यह स्वरूप अदम्य था।


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