"अधूरे इश्क का टुकड़ा" मेरा दिल

"अधूरे इश्क का टुकड़ा" मेरा दिल

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कितने समय बाद घर आना हुआ पूरा दिन परिवार के साथ बिताया घर में त्यौहार की रौनक के साथ मेरे आने की ख़ुशियाँ भी थी।

भैया कितने दिन रुकने वाले हो, पिंकी ने लाड़ से पूछा, माँ की ममता भरी आवाज़ पीछे से आई, "रोहित आया है तो इस बार इत्मीनान से कुछ दिन सबके साथ बिताना शहर जाके तो सबको भूल ही गया है।" भैया के चेहरे पर मेरे आने की खुशी साफ़ दिख रही थी, भाभी कैसे पीछे रहती तुनक कर बोली "देवर जी अब समझो कुछ हमें भी तनिक आराम चाहिए, आए हो तो देवरानी का बंदोबस्त करते जाना", सबका प्यार और अपनापन देख कर खुद से वादा किया की अब से हर कुछ समय बाद आता रहूँगा, परिवार से बढ़कर कुछ नहीं। पर दिल ने टपार दिया झूठा कहीं का करके, मन ही मन जानता था शहर जाते ही मैं मशीन बन जाऊँगा बस वक्त बहता रहेगा और मैं घड़ी की सूई पर अपने पैरों को नचाते फिर से उसी गलियारे और उसी रास्ते पर दौड़ने लगूँगा बिना रुके ज़िंदगी की सोची समझी चाल पर गणित के जैसे हर सम्स को सुलझाता, या मानो एक मिशन को पूरा करने की होड़ में, पर क्या करूँ सपने भी तो पूरे करने है और कुछ काबिल बन जाऊँ तभी तो रमण काका से रज्जो का हाथ मांग सकूँगा।

कहाँ चाहता हूँ मैं एसी ज़िंदगी, मुझे भी तो जीनी है वो ज़िंदगी जिसमें मेलों का शोर हो, दोस्तों की ठिठोली और खलिहानों में ट्रैक्टर चलाते हर ग़म भुलाने की टेक्नीक हो.! लाला के ठेले की जलेबियाँ, चमन के हाथों का बना मीठा पान, और ढ़लती शाम का सन्नाटा हो, रज्जो के इंतज़ार में नदी किनारे बैठे बेचैनी हो और मेरे महबूब की बेपरवाही, बेसख़्ता सी मिठी हँसी की धनक हो। पर एक ही पल में ये ज़िंदगी एक उलझा हुआ सवाल बनकर रह गई, जब पिंकी ने बताया की भैया वो हमारे पडोसी कुसुम चाची की बेटी है ना रजनी, "अरे भैया भूल गए आपकी भी तो दोस्त है आपकी रज्जो" उसकी शादी है ये देखिये निमंत्रण पत्रिका हमें सपरिवार बुलाया है, मेरा दिल एक धड़क चुक गया आँखें नम हो उसके पहले पलक झपक ली मैंने, और मन ही मन बोला पगली अगर रज्जो मेरी होती तो शादी किसी और के साथ कैसे करती, सालों से दिल ही दिल में जिसको खामोशी से बेइन्तेहाँ प्यार किया, क्यूँ आख़िर मेरे बचपन की सखी जिसे मैंने पागलों की तरह चाहा, जिसको अपना समझा पड़ोस की वो प्यारी रज्जो आज किसी और की पगली बनने जा रही थी, उसकी शादी में कैसे जा पाऊँगा मैं।


पर एक आख़री बार उसको देखने की चाह कैसे रोक पाता.! भाभी ने आवाज़ लगाई रोहित भैया नास्ता तैयार है आ जाईये पर मेरे कदम पड़ोस के उसी नक्शीकाम वाले दरवाज़े की दहलीज़ पर जा रुके जहाँ मेरी ज़िंदगी बसती है, मैंने दरवाज़ा खटखटाया, वही अंदाज़ में रज्जो को पाया तीन साल पहले मेरे जाते वक्त जो गुस्सा और दर्द उसकी आँखों में उभर आया था आज भी मुझे देखते ही उतर आया, ना दुआ न सलाम वही भाव आज तक ठहरे थे, सीधा सवाल इन्टरव्यू देने में तीन साल किसको लगते है ? क्यूँ आए हो अब, देख लो ज़िंदा हूँ.! 

मैं सकपका गया रज्जो की तीखी नज़रें चूमना चाहता था, बाँहों में भरकर उसे मनाना, समझाना चाहता था पर किस हक से करता, "बस दो दिन में आया" हाँ यही कहकर तो गया था मैं नहीं बता पाया था मैं उसे, नहीं पता था उसे शहर जा रहा हूँ मैं मेरी नौकरी लग गई थी बस कुछ बनकर आना था रज्जो के सामने, पर तीन साल तक ऐसा उलझा रहा की सोचने का मौका तक नहीं मिला की इतने समय में मेरी अमानत रज्जो किसी और की बन सकती है।

सबकुछ पहले जैसा था वही घर, वही कोना जहाँ मैं एक शर्मिला आशिक अपने अहसास सालों दिल में दबाए बस रज्जो को आँखों से पीता रहता था,

वो झूला आज भी उसी जगह पर मुझे वो छुअन याद दिलाते टँगा था कभी रज्जो को झुलाते समय उसकी ऊँगलियों से मेरी ऊँगलियों की गिरह बँध जाती थी, वो रज्जो की बचपन की तस्वीर कुछ नहीं बदला पर हाँ मेरी ज़िंदगी बदल गई थी, कुसुम चाची सामने से आते दिखे बोले अरे रोहित तुम कब आए ? खैर नहीं तेरी इस थानेदारनी को हिसाब तुम ही दो रोज़ तुझे याद करती रहती है।

मौसी तो चली गई इतना बोलकर पर मुझे ऐसा लगा मानों हम दो प्रेमी चुपके से किसी अज्ञात जगह पर सबसे छुपके मिलने आए हो, उसकी आँखों से गिरते अंगारों को झेलने की हिम्मत करके मैंने पूछा "हममम तो शादी कर रही हो तुम?" 

उसने मेरा सवाल उड़ाते सामने पूछा "जलेबियाँ खाओगे ?"

मैंने उसके सवाल को अनदेखा करते पूछा "खुश तो हो ना तुम" 

एक छोटी सी चींटी ने उसे काटा और बड़े खुन्नस से कुचली गई,

दो बूँद उसकी पलकों पर ठहर गई उसको पीते हुए बोली "काश तुमने कभी बताया होता, काश एक बार इज़हार कर लेते।"

मैंने कहा "बहुत बार चाहा पर हिम्मत नहीं हुई", वो गुर्रा कर बोली "खट्टे निबुड़े तुम बस चाहते रहना ना कुछ करना मत ना ही कुछ समझना, मेरी आँखों में कभी झाँकते, मेरे दिल को कभी समझते हमारे मिलने की एक-एक रस्म को गौर से देखते तो शायद अच्छे से जानते हमारे रिश्ते को।"

मैं तो आज भी कुछ नहीं समझ रहा था तो तो क्या रज्जो भी मुझसे ? ओह माय गोड क्यूँ मैंने कभी उसके दिल में झाँका नहीं, क्यूँ पूछा नहीं, क्यूँ कभी इज़हार नहीं किया एक साथ असंख्य सवालों ने घेर लिया, वो अपलक मुझे देख रही थी मैंने पूछा "क्या देख रही हो वो बोली ढूँढ रही हूँ एक इकरार काश आज ही दिख जाए तो आखिरी फेरा पूरा कर लूँ "

"मैंने पूछा मतलब ?" वो हाथ पकड़कर घसीटकर मुझे सीढ़ीयाँ चढ़ती छत के उपर ले गई।

पहले तो उसका हाथ हाथ में आते ही दिल में उथल-पुथल के साथ हज़ारों दिये जल गए पता नहीं पगली छत पर क्यूँ ले आई, मैं तो बस चुप चाप उसका अनुसरण करता रहा छत के एक कोने में खड़ी होकर बोली "तुम जानते हो मुझे मुझे जवान होने का पहला एहसास तुमने दिलाया, एक बार एक टक मुझे निहारते अचानक से मेरे हँसने पर मेरे गालों में पड़ते गड्डे के अंदर ऊँगली चुभोते तुमने ये कहा था ये कुआँ कितना गहरा है मन करता है डुबकी लगा लूँ बस वो तुम्हारी पहली छुअन ने दिल में एक करवट बदली और मुझे कुछ यूँ स्पंदित हुआ की मैं जवान हो गई। और वो देखो तुम्हारे रूम की खिड़की जहाँ पर बैठे तुम पढ़ते थे और सिर्फ़ तुम्हें देखने के लिए में कोई ना कोई बहाना करके छत पर आती थी,, पहली बार जब तुमने मेरी ये चोरी पकड़ी तब पहला फेरा लिया तुम संग, और याद है एक बार उतरायन पर टूटी पतंग को लूटने हम दौड़े और एक दूसरे से टकरा गए मैं गिर गई और तुमने हाथ पकड़कर मुझे उठाया पागल वही तो हमारा हस्त मिलाप था, इतने भी तो बुद्धुराम नहीं थे की मेरी आँखों के भाव ना पढ़ सको, और जब दसवीं के मेरे बोर्ड्स के एक्ज़ाम चल रहे थे और मेरी तबियत खराब हो गई थी पापा बाहर गए हुए थे तो माँ के कहने पर तुम मुझे स्कूल छोड़ने आए थे तुम्हारे गले में हाथ डालकर जब मैंने थैंक्स बोला था वो वरमाला की रस्म थी। फिर याद है बड़ी दीदी की शादी में उनके फेरों के बाद हम दोनों ने खेल-खेल में उसी अग्नि के इर्द-गिर्द पाँच फेरे ले लिए थे माँ ने टोका तो एक फेरा अधूरा रह गया था बस तब से तुम मेरे मनमाने से पति हो, एक आखिरी फेरे की चाह में तुम्हारे इंतज़ार में तीन साल काटे है आख़िर बिना कोई इज़हार, इकरार के कब तक टालती माँ पापा की बात एक बार अगर एक बार भी बोल दिया होता की मेरा इंतज़ार करना तो मरते दम तक कुँवारी रहती पर किसी और के नाम का सिंदूर ना सजाती.!"


मैंने कहा "रज्जो तुम भी तो बता सकती थी मैं तो यही सोचकर चुप था की शहर जाकर अपने पैरों के उपर खड़ा होकर कुछ बनकर लौटूँगा और सीधे रमण काका से तुम्हारा हाथ माँगूँगा", "वाह रे मेरे भोलाराम तब तक रमण काका अपनी जवान बेटी को छाती पर बिठाकर रखते की कब रोहित लाट साहब बनकर आए और कब रज्जो का हाथ सौंप दें।

मैंने कहा पर अब, अब क्या ?"

वो बेतहाशा रोए जा रही थी, "क्या अब क्या, ले चलो मुझे यहाँ से भगा ले जाओ मैं किसी और की बनने से पहले मर जाऊँगी", मेरी आँखों के सामने मेरे जीते जी रज्जो की आँखों में आँसू कैसे देख सकता हूँ बाँहे पसारे उसे सीने से लगा लिया हमारे मिलन का जश्न मनाते बादलों ने बिन मौसम बरसना शुरू कर दिया कुछ देर हम दोनों एसे ही एक दूसरे की आगोश में भीगते रहे पर कुसुम चाची की आवाज़ ने हमें जगा दिया।

हम चुप चाप नीचे आ गए रज्जो आँसू छिपाती कमरे में चली गई और मैं नज़रें झुकाए घर आ गया, माँ ने कहा "बिना नाश्ता किए चला कहाँ गया था चल अब तो खाने का वक्त हो गया खाना खा ले और आराम कर।" 

दूर-दूर तक मानो सन्नाटा पसरा हुआ था मेरा दिल तड़पते चित्कार कर रहा था, पर एक शोर मेरे दिल की चित्कार को चिरता फ़ाड़ता मेरे कान के पर्दे छिलता मेरी रूह को छलनी कर रहा था, "रज्जो की शादी की शहनाई का शोर" खुद पर गुस्सा और रज्जो पर दया आ रही थी इस लाचारी को किसके आगे बयाँ करूँ, पूरी रात मनन, गड़मथल, असमंजस और एक निर्णय के लिए हौसला बढ़ाने में बीती.!

क्या करूँ होश संभालते ही जिसे अपनी जीवन संगिनी के रुप में देखा है क्या उसे किसी और के हाथों सौंप दूँ जब की मैं जानता हूँ की वो भी मुझे बेपनाह मोहब्बत करती है समाज के रस्मों रिवाज़ के खोखले आदर्शों पर अपने प्यार की बलि चढ़ा दूँ ? माँ बाप की इज्ज़त से बढ़कर कुछ नहीं मानता हूँ, चलो रज्जो को उसके हाल पर छोड़ भी दूँ पर क्या वो खुश रह पाएगी अपने पति को वो प्यार दे पाएगी जिसका वो हक़दार होगा, और अगर मैं भी किसी और के साथ शादी करूँगा तो क्या अपनी बीवी को रज्जो की तरह चाह सकूँगा ? क्या ये किसी मासूम के साथ नाइंसाफ़ी नहीं होगी, लगता है आज आसमान के आँचल से भी कोई सितारा टूटा था यहाँ मेरी आँखें और बाहर आसमान पूरी रात रो रहा था टूटकर पूरी रात बिन मौसम बरसता रहा। पर मुझे एक ठोस निर्णय पर पहुँचने से पहले दोराहे पर खड़े एक राह चुननी थी, अब बहुत देर हो गई थी रज्जो की शादी को अब हफ्ता भर रह गया है रमण काका से उसका हाथ माँगने का वक्त निकल गया था, अगर मुझे और रज्जो को खुश हाल जीवन जीना है तो और कोई चारा नहीं है बस अब चाहे कुछ भी हो जाए रज्जो को पाना है।

आज सुबह का सूरज बादलों से अठखेलियां कर रहा था जैसे मेरा मन द्वंद्व कर रहा था एक विचार धारा के साथ बिलकुल वैसे.! पिंकी के मोबाइल से रज्जो का नंबर चुराकर रज्जो को मंदिर के पीछे बुलाया छुपती छुपाती एक कमसिन कली सी मुझे देखते ही फफक कर रोने लगी "रोहित कुछ भी करके मुझे यहाँ से ले चलो ज़िंदगी जीऊँगी तो तुम्हारे संग वरना मौत को गले लगा लूँगी पर किसी और से शादी नहीं करूँगी", मैंने रज्जो से बार-बार पूछा "तुम अपनी बात पूरे होशो हवास में कर रही हो ना ?" वो बोली "बाप की पगड़ी उछालने पर तुली हूँ उससे आगे क्या कहूँ", रज्जो को समझा कर घर भेजा "ठीक है मैं कुछ सोचता हूँ ये कहकर घर आ गया", कुछ भी कहो पर मेरा मन मुझे इजाज़त नहीं दे रहा था क्या बीतेगी रमण काका और कुसुम चाची पर जब उनको पता चलेगा की मैं उनकी बेटी को भगा कर ले गया हूँ। ये कैसी दुविधा में ड़ाल दिया था ज़िंदगी ने काश कुछ समय पहले पता चलता रज्जो की शादी का, क्यूँ मैं जल्दी घर नहीं आया अब इन बातों का कोई मतलब नहीं बहुत सोचने के बाद रह रहकर मेरे और रज्जो के माँ-बाप के चेहरे कुछ सवाल लिए गिड़गिड़ाते मेरे सामने आ जाते थे ना चाहते हुए भी अपने हौसले के पर काटने पड़े ना मैं बुजदिल नहीं बस अपनों की खुशी के लिए अपना ही गला घोंट रहा हूँ।

मैंने रज्जो के मोबाइल का नंबर मिलाया और इतना कहकर निकल गया की "हो सके तो मुझे भूल जाना हम अपने माँ बाप की इज्ज़त की कब्र पर अपनी खुशियों का महल कैसे खड़ा कर सकते है, ईश्वर ने चाहा तो अगले जन्म में ज़रूर मिलेंगे मेरे प्यार पर कोई शक मत करना या मुझे बुजदिल मत समझना हमेशा खुश रहना" कहने को कह तो दिया पर इस बोझ को सहना कतई सहज ना था दिल बैठा जा रहा था, पूरे बदन का खून मानो कतरों में बिखर कर आँखों से टपक रहा था घर में सबको ये बता कर निकल गया की "ऑफ़िस में कुछ अर्जेन्ट काम निकल आया है तो जाना पड़ेगा" और जो पहला साधन मिला उसमें बैठकर निकल गया मेरी रज्जो की दुनिया से मुँह मोड़ कर दूर बहुत दूर अपने टूटे सपनों के मलबे को उसकी दहलीज़ पर छोड़कर। 

पर अभी बीच रास्ते में ही था की पिंकी का फोन आया "भैया आप जल्दी से जल्दी घर चले आओ रज्जो ने हमारे घर के पिछवाड़े जो कुआँ था उसमें छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली है।

पर मुझे अब जीना कहाँ मंज़ूर था बस से नीचे उतरा और किसी फूल स्पीड में आ रहे वाहन का इंतज़ार करने लगा, दस मिनट तक कोई वाहन नहीं गुज़रा खड़े खड़े मन में एक खयाल उभरा क्या मेरे लिए इतनी आसान सज़ा काफ़ी है पल भर में प्राण उड़ जाएँगे, सज़ा का मज़ा तब होगा जब रज्जो की याद में तड़पते पल पल मर-मर कर जिऊँगा एक मासूम के कत्ल का गुनाह किया है इतनी आसान मौत मेरे इस गुनाह के लिए बहुत कम होगी, रमण काका और कुसुम चाची की सेवा करके रज्जो का अणु-अणु जितना कर्ज़ चुकाए बिना मैं कैसे मर सकता हूँ। 

और एक अधूरे इश्क के रक्त रंजित टुकड़े से मेरे दिल को संभाले गाँव की तरफ़ जाने वाली बस में बैठ गया, अपनी रज्जो को काँधा देकर माफ़ी मांगने।।


"वक्त के रहते जो इज़हार ना कर पाए उनके लिए"

(भावना ठाकर)

बेंगलोर


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