अब तो न काटो ये जिस्म
अब तो न काटो ये जिस्म
सरसराती हवा जैसे कानों में एक सच चीख रही थी। नील और नलिन दोनों भाई घर के आहाते में कुर्सियों पर चुपचाप बैठे एक-दूसरे को निहार रहे थे। आँखों ही आँखों में आखिरकार फैसला हो ही गया। दोनों एक साथ उठे और सीधे पिताजी के कमरे में जा पहुँचे। बात की शुरूआत की जिम्मेदारी बड़े नील ने ली-
‘‘पापा, हम दोनों को आपसे कुछ बात करनी थी।‘‘
विजयंत जी के चेहरे पर सदैव सी स्वाभाविक मुस्कुराहट थी-
‘‘दोनों को बात करनी थी!‘‘ वाक्य को पूरा करने के लहजे में व्यंग्य था। पर बात पूरी नहीं हुई थी।
‘‘जानकर अच्छा लगा कि आज भी तुम दोनों किसी बात पर तो साथ हो। कहो, क्या कहना है?‘‘
नील के माथे पर शिकन थी। परन्तु वक्तव्य सदैव की तरह गंभीर और स्पष्ट था-
‘‘पिता जी, ऐसे चल नहीं पायेगा। आप समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। हालात दिन पर दिन बिगड़ते ही जा रहे हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा, तंग आकर हममें से जरूर कोई न कोई, कुछ न कुछ तो कर ही बैठेगा।‘‘
विजयंत के माथे पर गहरी लकीरें खिंच गयी थीं। लम्बी साँस भरते हुए उन्होंने समझाने की कोशिश की-
‘‘कौन क्या कर बैठेगा? आखिर चाहते क्या हो तुम लोग? मैं बता रहा हूँ न! मैंने देखा है। जैसा है, साथ रहेंगे तो सब ठीक हो जायेगा। पर एक बार टूट गये तो... ...‘‘
‘‘टूट गये, टूट गये, टूट गये तो क्या! ये क्या जिद्द पकड़ रखी है भला आपने!‘‘ बात काटते हुए बीच में कह उठने का नलिन का लहजा उसके दिमाग की खलबली को साफ जाहिर कर रहा था।
‘‘हाँ, पापा , ये तो बस बच्चों की जिद्द जैसी बात हो गयी है। इसका क्या मतलब है कि आप अपना सबकुछ अपने लड़कों को देना तो चाहते हैं, पर आप ये नहीं चाहते कि हम अपना हिस्सा बाँटकर अपने हिसाब से सुखी रहें।‘‘ कहते हुए नील ने अपने लहजे में नलिन का समर्थन में किया।
बूँदों से डबडबा पड़ी विजयंत की आँखें आसमान की ओर ऊँचा उठ गयीं। अंगुलियों की पोरों से आँसुओं के दानों को झटकते हुए उन्होंने अधरों को हौले से हिलाया-
‘‘बँटवारा! यही चाहते हो न तुम लोग? पर बेटा, तुम बताओ, क्या बाँट दूँ? मैं बता रहा हूँ न, मैंने देखा है, जो तुम लोग देख नहीं पा रहे। अभी भले लड़-झगड़कर सही, पर तुम साथ हो। कुछ नहीं, तो अपनी बात कहने के लिए ही तुम दोनों साथ मिलकर मेरे पास आये हो। इस साथ होने में बड़ी ताकत होती है बेटा।‘‘ बोलते-बोलते विजयंत ने गर्दन घुमायी और नजरें सामने खड़े दोनों लड़कों पर टिका दीं-
‘‘मुझे पता है, तुमने कभी ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन आज जरा सोचकर देखना। मुहल्ले भर में ऊँच-नीच को लेकर कितना कुछ होता है। छोटी-मोटी बात से शुरू होते-होते लोगों के बीच जरा-जरा सी बात पर हाथापाई तक हो जाती है। पर आज तक कभी किसी ने हमारे घर की तरफ आँख उठाकर तक नहीं देखा। वजह सिर्फ एक ही है ,लोग तुम दोनों के साथ होने की बात सोचकर डर जाते हैं। अगर किसी एक को किसी ने गलती से भी कुछ बोल दिया, तो दोनों जो मिलकर बोलेंगे, किसी की फिर कतई खैर नहीं। इसीलिए तुम्हारे सामने तो छोड़ो, सब के सब सारे हम बुड्ढा-बुड्ढी के सामने में मुँह खोलने तक से डरते हैं।‘‘
पिता जी की सुनते-सुनते दोनों लड़कों के सिर झुक चुके थे। पर विजयंत की बात अभी पूरी नहीं हुई थी। उसके चेहरे से साफ पता चल रहा था, बोलते-बोलते उसका गला सूखने लगा था। पर उसे तो बोलना ही था-
‘‘हो सकता है, मैं गलत हूँ। हो सकता है, जैसा तुम दोनों कह रहे हो, वैसे अलग होकर तुम लोग ज्यादा खुश रहो। पर अगर एक बार अलग होकर तुम लोग संतुष्ट हो गये, फिर कभी गलती से भी एक-दूसरे की मदद के लिए नहीं सोचोगे। जरूरत पड़ने पर भी नहीं सोचोगे।‘‘
बोलते-बोलते विजयंत की आवाज एकदम रूँआसी हो गयी। भर्र्राये गले से अब होंठ हिलाकर बात कहना बड़ा ही मुश्किल था ,वो खामोश हो गए। बेटे उसे सँभालने को आगे आये , पर उसने हाथों के सहारे जैसी हर मदद का इनकार कर दिया। आज वो किसी भी हालत में मजबूरी की हार मानने को तैयार न था। दो पल की खामोशी में उसने आँसूओं को घूँट बनाकर गला तर किया और वो बूढ़े होंठ फिर से हिले-
‘‘नीलेश तुम दोनों का ही बड़ा भाई था न! लड़ते हुए चला गया। शहीद हो गया... देश के नाम पर। हमारे हिंदुस्तान के नाम पर। और किसके खिलाफ भला? उस पाकिस्तान के खिलाफ!‘‘
जुबान से निकलते हर शब्द पर अब आँसू भारी पड़ते जा रहे थे। वो बच्चों की तरह बिलखकर रो पड़े, पर रुके नहीं-
‘‘अलग नहीं हुए होते, तो लड़ने के लिए कोई लकीर नहीं होती। पर आज देश की सरहदों को बाँटने वाली लाइन ऑफ कंटृ्ोल है। क्योंकि हिंदुस्तान का बँटवारा हो गया पाकिस्तान से। बोलो, यही चाहिए? तुम्हें भी यही बँटवारा चाहिए न? पर मैं अपने जीते-जी यह कतई नहीं होने दूँगा। मैं कतई बँटवारा नहीं फलने दूँगा यहाँ। कतई नहीं बदलने दूँगा अपने घर के इस माहौल को।‘‘
विजयंत की बात पूरी होते-होते आहाते से आती हवा के जोर से कमरे का दरवाजा ‘भड़ाक’ कर आवाज से खुल गया। आवाज की साँय-साँय कमरे की खामोशी को अब बड़े ईत्मीनान से चीर रही थी और घर के माहौल के लिए ये मिश्रित खामोशी विजयंत के हिसाब से बिल्कुल सही थी।