आखिरी रात मिलन की....
आखिरी रात मिलन की....
......उसके चेहरे की झुर्रियां दशकों की दास्तान बयां कर रही थी आंखों के गड्ढे और उन में धंसी आंखें, वक्त के सितम बताने के लिए बेताब थी , वह बार-बार फैलती और सिकुड़ती थी । पोपले मुंह में जाने कितनी ही अनकही कहानियां बाहर निकलने को छटपटा रही थी । लार में लिपटी मटमैली जीभ बार-बार सुखे पपड़ी दार होठों को क्षण भर के लिए तर कर जाती पर कुछ देर में ही फिर वही सूखा।
बेचैन नजरें सामने की दीवार पर लगी घड़ी पर टिकी थी । भूख की छटपटाहट और उससे उपजी पीड़ा उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी ।इतना तो कोई अपनी प्रेमिका के आने की ही बाट जोहता होगा पर मनसुखा ने तो कभी प्रतीक्षा करना जाना ही नहीं था ।
जब से कुसमा से ब्याह हुआ था वह हवा के जैसे उसी के आगे पीछे रहती मानो कोई अंतर्यामी थी । मनसुखा कुछ सोचे और बोले कुसमा तुरंत लिए खड़ी रहती ।
उसे याद आ रहा था कुसमा का वह सांवला सा दमकता मुखड़ा । मुस्कान ऐसी की कराहता हुआ इंसान भी मुस्कुरा दे। घर के कामों में निपुण और मनसुखा को देवता समान पूजती थी वह ।
कितना खुश थे दोनों । कुसमा अनाथ थी अपनी ताई के हाथों पली बढ़ी पर सुख का कतरा भी उसने ना देखा , इसलिए जब मनसुखा ने उसे ब्याह के लिए चुना तो वह खुद को सौभाग्यशाली मानने लगी और मनसुखा को देवता समझने लगी क्योंकि उसने ,उसे उस अभावग्रस्त और पीड़ामय जीवन से मुक्ति दी थी जो वह बचपन से जीती आ रही थी । इसलिए उसकी कोशिश रहती कि वह मनसुखा को किसी बात की कमी या तकलीफ ना होने दे, और मन सुखा उसके इस व्यवहार पर आसक्त था ।
बेटे के जन्म के बाद भी मनसुखा के प्रति स्नेह और देखभाल में कुसमा ने कोई कमी नहीं आने दी । बिजली की फुर्ती से सदैव वह तैयार मिलती । मजाल है जो मनसुखा पानी का लोटा भी छू ले ।
डॉक्टरों ने जब बताया था कि अब कुसमा फिर मां ना बन पाएगी तो वह बहुत रोई थी ।
तब मनसुखा ने उसे कहा था ""अरे क्यों मोतिन ने धरकावे ! लीख से लॉख हो जाएगे । तू देखना हमारे सूरज के दर्जन भर बालक हो जाएंगे, तू चिंता मत कर।
मैंने सुना है आशा दीदी से ज्यादा और जल्दी बालक होने से जनानी कमजोर हो जाएं ...चल अब छोड़ सब""उसके कहने के इस अंदाज पर कुसमा मुस्कुरा उठी ।
समय बीता बेटा सूरज पढ़ लिख कर अफसर बन गया और एक पढ़ी-लिखी सुंदर सी लड़की देख कर उसका ब्याह भी कर दिया ।कुछ समय बाद वह दिन भी आया जब कुसमा और मनसुखा दादा दादी बन गए दोनों की खुशी का ठिकाना ना था । मनसुखा ने पोते का नाम रवि रखा । हालांकि पढ़ी लिखी बहू को यह नाम पुराने जमाने का ओल्ड फैशन लगता था लेकिन दोनों रवि ही कहते थे ।दोनों की जान अपने पोते में बसती । एक दिन कुसमा ने बहु से हंसी हंसी में ही कहा " बहु एक बालक कौनो बालक ना हो .. एक छोरी तो चाहिए ही"
पर पढ़ी लिखी बहू ने उन्हें अनपढ़ और जाहिल कह कर मुंह फेर लिया ।
सास ससुर से बहू की कम ही बनती थी और बेटे को इतनी फुर्सत नहीं थी कि वह देखे कि घर में क्या हो रहा है ।
मनसुखा और कुसमा भी इतना ध्यान नहीं देते थे सोचते पढ़ी लिखी बहू है उसके अपने ख्याल होंगे ।इसी तरह समय बीतता गया और पोता 10 साल का हो गया सब कुछ बस ठीक-ठाक ही चल रहा था पर जाने कौन सी चोट कुसमा के दिल में दबी थी कि, उस दिन कुसमा के सीने में जो दर्द उठा तो वह फिर ना उठी ।मनसुखा उसकी मृत देह को हाथों में लिए उसे देखता ही रहा था । बावरा हो गया था ।
बहु कहती " पिताजी तो पगला गए हैं इतने दिन हो गए माजी को गए अब तक बेसुध बैठे हैं ।"
वह कुछ अपशब्द भी बोल जाती पर मनसुखा ना कुछ सुनता और ना ही कुछ बोलता । उसे अपने खाने पहनने के भी फिकर ना थी ।अब तो कुसमा भी नहीं थी की अधिकार पूर्वक उसे यह सब करने को कहती । अब हालात बहुत बिगड़ गए थे कुसमा को मरे 1 साल हो गए और तब से मनसुखा -- मनसुखा ना होकर एक बेकार, बैठकर रोटियां तोड़ने वाला, खूसट बुड्ढा हो गया ।
आज पोते का जन्मदिन था मनसुखा सुबह से बाट देख रहा था कि पोता उस से आशीर्वाद लेने आएगा और शायद आज कुछ अच्छा खाने को मिलेगा । कुसमा होती तो अब तक पकवानों के ढेर लगा देती , लेकिन शाम होने को आई ना पोता आया ,ना बहू ,ना बेटा ।
सुबह की रखी चाय में मक्खियों ने डुबकी लगा दी थी । वह अपनी किस्मत को कोस रही होगी और मनसुखा को भी क्योंकि अगर वह चाय पी लेता तो, ना वह उस में गिरती और ना उनकी मौत होती ।घर में होने वाली हर गलत बात या नुकसान के लिए मनसुखा जिम्मेदार था कोई जिरह नहीं ,कोई सुनवाई नहीं सीधे फैसला ।वह भूल गया था कि आज इस चाय की बर्बादी और मक्खियों की मौत की सजा उसे मिलने वाली है या शायद मिल चुकी थी ।
आज उसे दोपहर का भोजन नहीं मिला । बहू आई थी चाय देखकर कैसा भड़क गई थी.." इन्हें तो दाने की कदर ही नहीं, यह नहीं सोचते कि कैसे दिन रात मेहनत करते हैं, दो-दो दिन घर नहीं आते तब जाकर 2 जून की रोटी मिलती है पर इन्हें क्या ..बैठे-बैठे मिल रहा है, बर्बाद करो । कैसे अपने बच्चों का बच्चे का पेट काटकर इन्हें पाल रही हूं मरते भी नहीं "
रवि की मौसी.....अरे जीजी ज्यादा सेवा हो रही है तो क्यों मरेंगे? दो-चार दिन बंद कर दो सब, फिर देखो कैसे लाइन पर आते हैं, मैंने तो देखा है कितने जो इस उम्र में भी काम करते हैं चार पैसे कमाते हैं मगर इन्हें तो बस तुम्हारी छाती पर ही मूग दलना है । चलो जीजी यहां मूड खराब मत करो अभी तैयार भी होना है जो नया वाला सेट पहनना आज। यह अफसर लोग भी सीधा रेस्टोरेंट पहुंच जाएंगे ऑफिस से ही ।
दोनों विचित्र भाव भंगिमा बनाती हुई चली गई ... मनसुखा शांत, अपमान और घृणा का विष पीकर रह गया । यही तो कर रहे था वह पिछले 1 साल से ।एक साल में शरीर ने जो रंग बदला कि मौसम भी ना बदलता होगा । सुगठित शरीर, गेहूंआ रंग, जर्जर ढांचे में बदल गया ।
वह अक्सर कुसमा के आगे अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए उसे गोद में उठा लेता ...तब कुसमा लजाकर कहती "बस-बस रहने दो ! बच्चे बड़े हो गए हैं ,और अपनी उम्र तो देखो .. कोई हड्डी सरक गई तो बैठे रह जाओगे ....मनसुखा गर्व से कहता ""ऐसे कैसे सरक जाएगी?
और तू है ना ...तुझे का देखन के लिए लाया हूं ? बैठ गया तो बैठ गया तू करेगी सब "
कुसमा कहती "हां मैं तो करूंगी ,अपनी अंतिम सांस तक करूंगी और उसने किया भी ।
मरने से पहले तक उसने मनसुखा को अपने हाथ की चाय पिलाई ।
पर अब.....
>भूख से अतड़िया सिकुड़ रही थी , जीभ भी होठों को तर करके सूख गई थी पर प्राण ना निकल रहे थे ।आंखें अभी भी इस उम्मीद पर टिकी थी कि शायद कोई आए और कुछ खाने को मिल जाए, पर गुजरते समय के साथ निराशा बढ़ती जा रही थी ।कुसमा कोई देवी थी जबही वह पहले चली गई । एक गिलास पानी ना पिया किसी के हाथ का । उसे पता था कि क्या होगा ।पर मुझे भी ले जाती साथ । कुसमा देख तेरा मनसुखा आज अनाथ बन कर रह गया है । मनसुखा को भ्रम सा होने लगा था के जैसे कुसमा वही कही थी, सब सुन ,देख रही थी और कह रही थी " छोड़ो यह मोह माया ,चलो मेरे साथ चलो , उस पार चलो मेरे साथ ।
अचानक पानी के छींटे से उनकी बेहोशी टूटी । पोता रवि नजदीक ही था पर कुछ धुंधला सा था।
दादू !!दादू !! कई बार पुकारने पर एक हल्की सी आवाज कानों के द्वार में प्रवेश करने पर सफल हो पाई थी। मृत शरीर में फिर से प्राण आ गए ,आंखें चमक उठी ,जीभ भी फिर से सक्रिय हो गई और होठो को तर करने लगी।
"दादू आप कैसे गिरे? बिस्तर से नीचे क्यों आए?"
अब तक थोड़ी चेतना लौट आई थी। शरीर में ऊर्जा महसूस हुई । होती क्यों ना कुसमा जो पास थी ।पोते ने सहारा लगाकर उठाया और बिस्तर पर बैठाया । मनसुखा ने उसका हाथ बड़ी मजबूती से पकड़ रखा था जैसे उसे आभास था कि हाथ छूटते ही संसार भी छूट जाएगा ।उसने अपने बाएं तरफ देखा कुसमा मुस्कुरा रही थी और इशारे से कह रही थी, अब छोड़ो ना चलो मेरे साथ ।
"दादू क्या हुआ ? वहां क्या देख रहे हो ?"
पोते के इस प्रश्न पर उनका ध्यान भंग हुआ ....नहीं मे सिर हिलाते हुए उनकी आंखों से आंसू बह चले।
"अच्छा दादू देखो मैं आपके लिए क्या लाया हूं?"
पेस्ट्री का एक टुकड़ा दिखाते हुए उसने बोला तो मनसुखा का बेजान शरीर फिर से धड़क उठा ।
" दादू आज मेरा जन्मदिन है ना ,तो हम सब बाहर गए थे खाने पर । दिन में मुझे तो टाइम ही नहीं मिला और पापा भी ऑफिस से नहीं आए थे और शाम को सब बाहर चले गए, खाना खाने के लिए इसलिए मुझे देर हो गई। मां ने कहा आप सो गए होंगे ,पर मुझे पता था आप जग रहे होगें , दादी के साथ बतिया रहे होंगे ,है ना दादू? "
यह कहकर वह मुस्कुराया तो मनसुखा के भी सूखे पपड़ी दार होठों पर आनायास सी मुस्कान फैल गई ।सच ही तो कह रहा था, इस अकेलेपन में कुसुमा ही तो थी जो उसके साथ ना होकर भी ,साथ होती ।मनसुखा ने तकिए की खोली में हाथ डालकर कुछ निकालने की कोशिश की पर आज तकिया भी किसी पहाड़ की जैसे लग रहा था ।
रवि ने कहा ..लाओ दादू मैं देखता हूं पर मनसुखाने इशारे से मना कर दिया । उसने फिर अपने बाएं ओर देखा..... इस बार तकिया उठ गया मनसुखा ने उसमें एक छोटी सी थैली निकाली । रवि भी उत्सुकता बस ध्यान से देख रहा था ।
"वाओओ़ @@@ दादू ! सीक्रेट खजाना?"
मनसुखा ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया ...उस थैली में एक मंगलसूत्र और एक सुनहरी घड़ी निकली ।उस घड़ी और मंगलसूत्र को मनसुखा रोज सोने से पहले जी भर कर देखता और अपने अच्छे दिनों में खो जाता पर आज वह इन सब से आजाद होना चाहता था । उसने अपने बाएं और देखा कुसमा अभी भी मुस्कुरा रही थी ।
""ओह दादू ! ब्यूटीफुल !कितनी खूबसूरत हैं ?मेरे लिए है ना ? मेरा बर्थडे गिफ्ट ?"
मनसुखा ने हां में सिर हिलाते हुए धीरे से कहा " हां बेटा ! तेरे लिए ही है । यह तेरी दादी का मंगलसूत्र और यह मेरी घड़ी । जब तक वह जीती रहे उसने मंगलसूत्र ना छोड़ा और ना मैंने घड़ी पर उसकी जाते ही समय थम सा गया इसलिए घड़ी भी धर दी। पर अब इसकी जरूरत नहीं ..."
"क्यों दादू ?"
"बस बेटा अब इसे तुम संभालो ।तुम्हारी दादी और मेरी तरफ से तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा । रवि उसे पाकर खुश था । वह उसे बड़े आश्चर्य भाव से देख रहा था । उसे उलट-पुलट कर बार-बार देखता और तरह तरह के सवाल पूछता।
" बेटा रात ज्यादा हो गई अब तुम जाओ, खूब खुश रहो, तरक्की करो और हां अपने माता-पिता का ख्याल रखना ,उन्हें परेशान मत करना "
पूरे शरीर की ताकत और अपनी इच्छाशक्ति बटोर कर मनसुखा बस इतना ही कह पाया । उसने रवि के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा आंखों के कोरे सजल हो गये ।आंसू की बूंद आंखों के गड्ढों में आकर रुक गई ।कुसमा अब उसे स्पष्ट दिखने लगी थी ।रवि मुस्कुराते हुए मनसुखा के गले से लिपट गया "यू आर सो सो स्वीट दादू ... आई लव यू ."कहकर वह चला गया ।
कुसमा जो अब तक बगल बैठी मुस्कुरा रही थी , उसने मनसुखा का हाथ थाम लिया था । शरीर की सारी वेदना समाप्त हो रही थी । मन कुसमा से मिलने की आतुरता से भर गया । चेहरे की झुर्रियां पूर्ववत थी पर एक विशेष सुकून और शांति थी । आंखों के गड्ढों में शांत चित्त की कुछ बूंदे पड़ी थी जो शायद इस संसार की देन थी इसीलिए यही रह गई ।पीड़ा और कष्ट का संसार, मनसुखा से छूट रहा था और कुसमा की पकड़ मजबूत हो रही थी । उसकी मुस्कुराती आंखों को वह अपलक निहार रहा था ।ह्रदय में कहीं विक्षोभ उठ रहा था । चिर पीड़ा और दर्द से मुक्ति मिल रही थी और सुख संचार मन को स्थिर कर रहा था ।अचानक विक्षोभ एक झटके से शांत हो गया , मन की गति शांत हो गई । संसार के धागे तोड़ मनसुखा , कुसमा के साथअनन्त यात्रा पर निकल पड़ा ।जो देह संसार ने थी , वह इसी संसार मे छोड़, मनसुखा जीवन के उस पार कुसमा से जा मिला और संसार बेखबर सोया रहा ।
सुबह सूरज चढ़ आया । जब बहु चाय देने पहुंची तो मनसुखा शांत भाव से लेटे थे । वह चाय धरकर उल्टे पांव लौटने को हुई पर यकायक उसे कुछ एहसास हुआ ।वह पलटी ,उसकी नजर पहले मनसुखा के मुख पर पड़ी फिर वह सीने तक आ कर रुक गई । यह क्या ?
शरीर हिल नहीं रहा था, सांसो की उठापटक नहीं दिख रही थी । वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी ,डरते डरते उसने धड़कन सुनने की कोशिश की, पर यह क्या वहां तो सब शांत हो चुका था।
वह भागी दहाड़े मार कर रोते हुए ...."सूरज! ! पापा नहीं रहे । उससे तेज तो उसका बेटा सूरज भी ना रोया ।
"पिताजी कितने अच्छे थे , कभी कुछ ना कहा , चाय भी ना पी आखिरी वक्त में और जाने क्या-क्या ???
बेटे सूरज को आज एहसास हुआ कि उसके पिता कुछ क्षण पहले जीवित थे पर उसने उन्हें जीते जी मार दिया था पर यह एहसास कितना गहरा था यह कहना मुश्किल है ।
हां पोते रवि को जरूर दुख हुआ था....।रात बीत चुकी थी .......दूर खड़ी कुसमा और मनसुखा यह सब देख कर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे...।।