पूर्ण विराम
पूर्ण विराम
जिस तरह एक रक्कासा शाम होते ही अपनी ग्राहक और खरीदार का इंतजार करती है ,ठीक उसी तरह वह हर शाम अपनी दुर्गति की प्रतीक्षा करती ।
कुछ आदर्श वाक्यों ने उसके दिमाग और उसकी सोच को जड़ बना दिया था । जो पति को देवता बनाकर उसे अत्याचार का अधिकार देता है और स्त्री को कहता है कि, पति देवता होता है, वह कैसा भी हो पत्नी को सेवक की भाति उस की सेवा करनी चाहिए तथा किसी भी परिस्थिति में उसका त्याग नहीं करना चाहिए ।
वो रोज सज धज कर, मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है, किंतु जरा सी बात पर उसका बेतहाशा क्रोध और उस क्रोध की परणिती उसके सुकुमार गोरे तन पर, नीले-बैंगनी चिन्हो में परिवर्तित हो जाते । कांच के बर्तन टूटते और टूटकर कमरों के कोने में दुबक जाते ।
धातु के बर्तनों की झनझनाहट बड़ी देर तक उत्पात मचाती । कई हिचकियाँ गले तक भी नहीं पहुंच पाती और लोक मर्यादा के भय से वहीं दम तोड़ देती ।
पर वह भारतीय नारी है , चेहरे का तेज और सहने की सीमा बरकरार रही ।ना जाने क्यों अक्सर छौंक लगाते समय वो जल जाती , ना जाने क्यों अक्सर वो सीढियों से फिसल जाती है ।
इतनी बेपरवाह तो नहीं लगती , पर इसका कारण कभी स्पष्ट नहीं हो पाया ।
अक्सर कोई खास मेहमान, उसके अधिकारों का हनन करने , रात के अंधेरे में देवता संग चली आती और वह पूरी रात के कोने में अनजान और शांत पड़ी रहती । कहीं देवता के सुख में बाधा ना पड़ जाए ।
शराब की तेज गंध और उल्टी में सने कपड़ें भी उसके कर्तव्यों के निर्वाह के आड़े नहीं आते । किसी कुशल परिचारिका की भाति बड़ी ही तत्परता से सब कुछ साफ कर देती और अपने मंदिर रुपी घरको पवित्र कर देती ।
पर मन की टीस का क्या ? किंतु उसका भी उपाय था ।
बचपन से मां के द्वारा मिली सीख ...जो उसकी मां को, उनकी मां ने और उनकी मां को उनकी माँ ने पीढ़ियों से हस्तांतरित किया था ।
पुराणों और ग्रंथों की सीख कि, पति देव तुल्य होता है.. उस के मन के सभी मैल को धो देता है और वह फिर से, पवित्र मन से प्रेम पूर्वक अपने कर्तव्यों को निभाने , कर्म पथ पर चल देती ।
वो कुछ अधिक पाषाण हो गई थी । दानव रूपी देवता के अत्याचार से मुक्त होने की इच्छा बलात हृदय मे आती-जाती ।
सहनशीलता बढ़ी तो पीड़ा की अनुभूति कम हुई, और जब पीड़ा की अनुभूति कम हुई तो नये और क्रांतिकारी विचारों का जन्म हुआ ।
कुछ मचलते ख्वाबों की तितलियां उसकी आंखों की देहरी पर अक्सर आते-आते ओझल हो जाती । कभी-कभी तो वो बहुत दूर , उनके पीछे भागती भी फिर थक हार कर लौट आती है ।
अब वह इस यातना स्थल से दूर जाना चाहती है। वह चाहती है उसकी स्मृति खो जाए ...वह स्वयं संसार में खो जाए ।हथियार की धार, पाषाण के ऊपर ही तेज होती है और इसीलिए विचारों के हथियार, उसके पाषाण हृदय पर धार ले रहे थे ।कुंठित संस्कारों की बेड़िया डर से ढ़ीली पड़ने लगी, क्योंकि उनसे निकलने को हृदय ,विद्रोह की ताक में था ।
युद्ध तो चल रहा था और वह लड़ भी रही थी, पर पता नहीं क्यों जीतना नहीं चाहती थी । शायद इसलिए कि वह देवता नहीं थी या शायद इसलिए कि, कोई कृष्णा उसका सारथी नहीं था ।
पर आज वह स्वयं कृष्ण थी, स्वयं अर्जुन । स्वयं पक्ष थी, स्वयं विपक्ष थी ।
उसने स्वयं से कहा " मैं चाहूं तो , थोड़ी सी कोशिश से सब कुछ संभाल सकती हूं । बस मुझे एक बार फिर, खुद को थोड़ा और शर्मिंदा करना होगा । फिर से अकारण माफी मांगनी होगी .. ..
मैं यह सब कर भी लूं ,वर्षों से यही करती आई हूं । किंतु कब तक ? मेरी यह कोशिश आखिरी तो नहीं होगी ....कुछ समय बाद वो फिर दानव रूप में आएगा ...फिर कुछ जख्म मेरे शरीर और आत्मा को मिलेंगे ....फिर वही उपेक्षा और तिरस्कार मुझे आत्मग्लानि के कीचड़ मे डुबो देंगे
उसकी वितृष्णा पोषित होगी.... वह और पुष्ट और बलिष्ठ होगा... मैं और सहनशील अपराधी बनती जाऊंगी।"
विचारों के ज्वार भाटे, उसके पाषाण हृदय से टकराकर लौट रहे थे ,पर वह खाली हाथ ना आते, ना जाते।
हर बार वह, कुछ ना कुछ छोड़ कर ही जाते और कुछ ले जाते । हर बार वह विचार, उसकी पीड़ा का कुछ कण बहा ले जाते और आशा की कुछ नमी छोड़ जाते ।
अब वह अपने जीवन की तमाम गतिविधियों, दुविधा, चिंताओं और पीड़ा पर पूर्ण विराम लगाना चाहती थी । पर रास्ता नहीं सूझ रहा था क्योंकि सामने दोराहा था...... पहला कि वह अपनी सांसो की गति पर पूर्ण- विराम लगाकर पीड़ा के इस संसार से विदा ले ....दूसरा जीवन की तमाम किंतु - परंतु को , पूर्ण विराम देकर पीड़ा के उस संसार का ही अंत करके नये जीवन की शुरुवात करें ।
विचारों ने विजय पाई ..उसने नये जीवन को चुना और नवजीवन के चमकते सूरज ने उसके जीवन के अंधकार का अंत कर उसके और उसकी पीड़ा के बीच एक रेखा खींच पूर्ण- विराम लगा दिया ।