आखिरी ख़त....
आखिरी ख़त....
१९६९ गुजरात का एक छोटा सा कस्बा....
मनोज बेटा! मुझे आज कुछ ज़रूरी काम है, अगर तुम मेरा एक काम कर सको तो, अग्रवाल साहब ने अपने बेटे मनोज से कहा।
जी बाबू जी! जुरूर, पहले आप काम तो बताइए, मनोज बोला।
वो मैंने तुम्हें बताया था ना कि गांव की जमीन का कुछ भाग जागीरदार ने हथिया लिया है तो उस सिलसिले में मैंने एक वकील से बात की थीं, उन्होंने आज मिलने के लिए बुलाया था, लेकिन मैं जा ना सकूंगा, दफ्तर में नए अफ्सर आ रहें हैं तो उनके स्वागत के लिए मुझे आज वहां रूकना होगा, बेहतर होगा जो तुम ये बात वकील साहब से जाकर बता आओ, अग्रवाल साहब बोले।
जी बाबूजी! मैं वहां चला जाऊंगा, आप मुझे बस उनका पता ठिकाना दे दीजिए, मनोज बोला।
हां! ये रहा पता, इस कागज़ पर लिखा है, वैसे भी वो जानें माने वकील है, तुम्हें उनका घर आसानी से मिल जाएगा, अग्रवाल साहब बोले।
जी बाबूजी! आप बेफिक्र होकर दफ्तर जाइए, आपका काम हो जाएगा, मनोज बोला।
ठीक है बेटा! और इतना कहकर अग्रवाल साहब दफ़्तर के लिए रवाना हो गए।
इधर मनोज भी निकल पड़ा वकील साहब के घर की ओर.....
पता ठिकाना खोजते खोजते मनोज उनके मुहल्ले तक जा पहुंचा, वो काग़ज़ लेकर उनका घर खोज ही रहा था कि सड़क पर पड़े केले के छिलके पर उसने ध्यान ना दिया और फिसल कर मुंह के बल जा गिरा।
उसके गिरते ही सड़क के किनारे पर खड़ी दो लड़कियां ठहाका मारकर हंस पड़ी, उनका हंसना देखकर मनोज को बहुत गुस्सा आया और उनके पास जाकर बोला____
क्यों जी! किसी मजबूर इंसान को सड़क पर गिरा देखकर बहुत दांत निकल रहें हैं आप लोगों के....
जनाब! दांत हमारे हैं, हम चाहें तो अपनी बत्तीसी निकाल कर रख दें इससे आपको क्या? और फिर आपको अल्लाह ताला ने इतनी बड़ी बड़ी आंखें तोहफे में बख्शी है तो उनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते आप? उनमें से बड़ी वाली बोली।
मोहतरमा! आपको नहीं लगता कि आप कुछ ज्यादा ही बोल रहीं हैं, मनोज बोला।
फिर वही बात, मेरा मुंह, मेरी बात, मेरा मुहल्ला , मैं कुछ भी कहूं, इससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए, फिर से बड़ी वाली लड़की बोली।
गुस्ताखी माफ़, मोहतरमा! ये मोहल्ला आपके अब्बा हुजूर का नहीं है, मनोज बोला।
तो ये मोहल्ला आपके भी अब्बा हुजूर का नहीं है, फिर से वही बड़ी लड़की बोली।
मोहतरमा! बाप तक मत जाइए, नहीं तो आपकी खैर नहीं, मनोज बोला।
पहले तो आप ही पहुंचे थे मेरे अब्बा हुजूर तक, वो बड़ी लड़की बोली।
लड़की होकर आपको बिलकुल भी तमीज़ नहीं है, मनोज बोला।
हां..... हां....आप तो जैसे शरीफों के खानदान के चश्मों चिराग़ हैं, शक्ल तो देखो हुजूर की, शराफत तो जैसे चेहरे से टपक रही है, निहायती बतमीज़ क़िस्म के इंसान हैं आप, वो बड़ी लड़की बोली।
तभी उनमें से छोटी लड़की बोली__
रहने दो ना आपा! झगड़ा बढ़ाने से क्या फ़ायदा?
हां तू सही कहती हैं नूर! ये इंसान बात करने के लायक ही नहीं है, बड़ी लड़की बोली।
हां, नूर! तुम कितनी समझदार हो, सीखो....कुछ सीखो अपनी छोटी बहन से, मनोज बोला।
सीखने की जरूरत आपको है मुझे नहीं, समझें जनाब! और इतना कहते ही बड़ी बहन ने नूर का हाथ थामा और जाने लगी।
तभी मनोज ने टोकते हुए कहा__
जरा अपना नाम तो बताते जाइए__
इग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया, यही नाम है और पैर पटकते हुए वहां से चली गई.....
मनोज भी अपने काम में लग गया, कुछ देर में वो वकील साहब के दरवाज़े के सामने था, उसने दरवाज़ा खटखटाया.....
तभी एक लड़की ने दरवाज़ा खोला_
उसे देखते ही मनोज सदमा खा गया लेकिन फिर सम्भलते हुए बोला____
अच्छा तो विक्टोरिया जी! आप इंग्लैंड से कब पधारीं? हमें खबर कर दी होती तो आपके स्वागत में बहुत बड़ा जश्न रखते....
कितने बतमीज़ हैं आप , मुंह उठाकर घर तक चले आएं, शर्मो हया बेच खाई है क्या? उस लड़की ने कहा।
तभी भीतर से आवाज आई___
कौन है सफ़ीना? तुम किस से बहस कर रही हो?
जी, मैं हूं! अग्रवाल साहब ने भेजा है, मनोज ने चिल्ला कर कहा।
अच्छा.... अच्छा...बाहर क्यों खड़े हो भीतर आओ, भीतर से मुर्तजा अन्सारी जी ने आते हुए कहा।
जी , अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो आप ही वकील साहब हैं, मनोज ने उन शख्स से पूछा।
जी मैं ही वकील मुर्तजा अन्सारी हूं, कहिए कैसे आना हुआ, वकील साहब ने पूछा।
जी, बाबू जी को आज कुछ ख़ास काम निकल आया है, वो आज ना आ पाएंगे, यही ख़बर देनी थी और आप मुझे ये बताएं कि अब वो किस दिन आ सकते हैं, मनोज ने पूछा।
ऐसा करो, उनसे कहना कि रविवार को आ जाएं, मैं इंतजार करूंगा, अंसारी जी बोले।
जी बहुत बढ़िया, अब मैं चलता हूं मनोज बोला।
अरे, कहां चले? चाय पीकर तो जाते, अंसारी जी बोले।
जी, शुक्रिया! चाय फिर कभी और इतना कहकर मनोज उनके घर से चला आया।
तो ये थी सफ़ीना और मनोज की पहली मुलाकात....
और जब तक अग्रवाल साहब की जमीन का केस रफा दफा ना हो गया तो मनोज और अग्रवाल साहब का अंसारी साहब के घर आना जाना लगा रहा।
इसी बीच सफ़ीना और मनोज का प्यार भी परवान चढ़ने लगा, दोनों ने एक-दूसरे को दिल से अपना मान लिया, दोनों ने ही साथ जीने और मरने की कसमें खाई, उनकी मोहब्बत इतनी गहरी हो चली थी कि वो दोनों अब एक दूसरे के बिना रहने का सोच भी नही सकते थे।
और इनके इस रिश्ते से दोनों परिवारों को भी कोई एतराज़ ना था, अंसारी साहब की बेग़म साहिबा अपनी छोटी बेटी नूर को जन्म देते वक्त इस दुनिया से रूख़सत हो गईं थीं, दोनों बेटियों को अंसारी साहब ने ही पाल-पोस कर बड़ा किया था और इधर शुभेंदु अग्रवाल साहब की भी धर्म पत्नी लम्बी बीमारी के चलते भगवान को प्यारी हो गईं थीं, उन्होंने भी अपने इकलौते बेटे को खुद सम्भाला था।
अब अंसारी साहब चाहते थे कि मनोज और सफ़ीना की सगाई कर दी जाएं, फिर बाद में मुनासिब वक़्त देखकर दोनों की शादी भी कर देंगें, अग्रवाल साहब भी यही चाहते थे और दोनों की सगाई भी हो गई।
लेकिन वक़्त के आगे भला किसकी चल पाती है, होनी को तो कुछ भी मंजूर था, तभी गुजरात में दंगे भड़क गए और इस क़दर भड़के की हिन्दू मुस्लिम दोनों ही एक-दूसरे की जान के दुश्मन बन गए, चारों ओर अफरा तफरी का माहौल था, हर तरफ बस खौफ़ ही खौफ़, दहशत ही दहशत थी , लोग अपने घरों में भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे थे, आपसी दोस्ती और भाईचारे को दागदार किया जा रहा था, हर जगह मातम ही मातम, बहुत ही मनहूस घड़ी थी वो, कोई भी सुरक्षित नहीं था उस समय ना सलमा ना सीता, कुरान और गीता में लिखें संदेशों को लोग भूल चले थे, बस छुरे और तलवार पर ख़ून ही ख़ून नजर रहा था।
अबलाएं डर रहीं थीं, घूंघट में छुपी हर दुल्हन सोच रही थी कि उसकी चूड़ियां सुरक्षित रहें, हर बहन और मां का आंचल दुहाई दे रहा था, लोगों के खिड़की दरवाजे नहीं खुल रहे थे, रात को दो सन्नाटा था ही लेकिन दिन में भी वही हाल था, बस अगर शोर सुनाई देता तो वो दंगाईयों का था।
लग ही नहीं रहा था कि ये वही देश है, जिसकी आजादी के लिए लोगों ने इतनी कुर्बानियां दी है, उन सबने अपना खून ये सोचकर तो नहीं बहाया होगा कि आगे चलकर देश का ये अंजाम होगा, इतनी बार देश पर मुसीबत आने पर भी सबने एक साथ मिलकर उसका समाधान किया, पर जो हालात अब थे उन्हें देखकर लगता था कि दंगाइयों ने दरिंदगी की हदें पार कर दी हैं, अल्लाह और ईश्वर के बनाएं हुए इंसानों का खुद इंसान ही मज़हब के नाम पर मज़ाक उड़ा रहा था, ऐसे वतन की तो तो किसी ने भी कल्पना नहीं की थी।
इसी बीच अंसारी साहब ने फैसला किया कि वो इस जगह को छोड़कर दिल्ली चले जाएंगे अपनी आपा के पास और उन्होंने इस बात की किसी को भी इत्तला नहीं दी, सफ़ीना ने ख़त लिखकर ये बात मनोज तक पहुंचानी चाही लेकिन उसकी कोशिश नाकाम हो गई।
उसने वो ख़त नूर को देते हुए कहा कि अगर मुझे कुछ हो जाएं तो तुम वादा करो कि ये ख़त मनोज तक जरूर पहुंचाओगी, नूर ने रोते हुए सफ़ीना से वादा किया।
इसी बीच उसी रात को ही दंगाइयों ने अंसारी साहब के घर पर हमला कर दिया, दो लोंग तलवार लेकर उनके घर घुसे, वो जैसे ही अंसारी साहब को तलवार घोंपने वाले थे तो उनके सामने सफ़ीना आ गई, उधर से नूर ने मिर्ची का पाउडर दोनों दंगाइयों की आंखों में डाला, सफ़ीना ने दोनों की आंखों के सामने ही दम तोड़ दिया, अब ज्यादा सोचने का वक्त नहीं था अंसारी साहब के पास, उन को नूर की इज्ज़त और जान की हिफाज़त करनी थी और जो पोटली उन्होंने पहले से बांध कर रखी थीं, वो लेकर बाप बेटी रातों रात भाग निकले।
उधर मनोज के पिता को भी नहीं बख्शा गया, उसे भी अपना घर छोड़कर भागना पड़ा, जब दंगे खत्म हुए तो लोगों ने अपनों की तलाश शुरू की लेकिन मनोज को अपनी सफ़ीना कहीं ना मिली, उसने हर जगह खोजा लेकिन कामयाबी हासिल ना हुई, अब वो बिल्कुल हताश हो चुका था।
इसी तरह महीनों बीत गए थक-हार उसके मामा ने उसका ब्याह करा दिया, धीरे-धीरे मनोज अपनी पुरानी यादों से उबरने लगा लेकिन सफ़ीना को तो वो अभी तक ना भूल पाया था, लेकिन धीरे-धीरे वो अपनी गृहस्थी और बाल बच्चों में रम गया।
अब मनोज पचास के पार हो चुका था और उसे किसी काम के सिलसिले में दिल्ली जाना पड़ गया, उसने अपना काम निपटाया और कनाट प्लेस घूमने आ गया, उसे याद आया कि उसकी पत्नी से उससे एक अच्छी सी साड़ी की फरमाइश की थी, इसलिए वो साड़ी लेने एक दुकान पर पहुंच गया।
उसने साड़ी पसंद की और दुकान की मालकिन के पास पेमेंट देने पहुंचा , तभी दुकान की मालकिन ने मनोज को ध्यान से देखा और बोली__
मनोज....मनोज भाईजान....! आप यहां, इतने सालों बाद .....
वो कोई और नहीं नूर थी, नूर को देखकर मनोज को बहुत खुशी हुई और फिर जिससे हम प्यार करतें हैं उससे जुड़ी हर चीज़ हमें प्यारी लगने लगती है।
मनोज ने फौरन सफ़ीना के बारें में पूछा__
नूर ने सारी आपबीती कह सुनाई और बोली फिर हम दिल्ली आ गए और अब्बा हुजूर ने ये दुकान खोल ली, उनके जाने के बाद ये दुकान मैं सम्हालती हूं।
तो क्या अब सफ़ीना को मैं कभी भी ना देख पाऊंगा? मनोज बोला।
मुझे बहुत अफ़सोस है भाईजान! लेकिन मैं उनका लिखा आखिरी ख़त आपको दिए देती हूं, मैंने उनसे वादा किया था कि ये ख़त मैं आप तक जरूर पहुंचाऊंगी, जिसे ये सोचकर मैं हमेशा अपने पास रखती हूं कि ना जाने कब आपसे मुलाकात हो जाए।
फिर नूर ने एक पुराना सा काग़ज़ अपने बटुए से निकाल कर मनोज को दिया, सफ़ीना के लिखें उस आख़िरी ख़त को पढ़कर मनोज की आंखें भर आईं, उसने नूर का शुक्रिया अदा किया और चला गया।
समाप्त___