आहत भावनायें

आहत भावनायें

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मानव एक प्रबुद्ध प्राणी है...यानि कि कहा जाता है कि मानव में सोचने की क्षमता है, इसलिए वो किसी भी बात को सही या गलत के तराजू में तौल कर फैसला कर सकता है परन्तु शायद आज के परिपेक्ष में देखा जाये तो ये बात गलत होनी चाहिए ! आज का ज़माना देखा जाये तो स्वार्थपरकता का ज़माना है, जहाँ इंसान सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिए ही जी रहा है ! खैर इस विसंगतियों के ज़माने में भी एक छोटा सा गाँव है दयालपुर, जहाँ विसंगतियों के बाद भी शान्ति से सभी जीवन व्यतीत कर रहे हैं ! जी हाँ, दयालपुर, जहाँ आज भी लोग खेती को ही अपनी आजीविका का मुख्य साधन समझते हैं ! लोग सुबह उठने के बाद से ही अपने खेती-बाड़ी के काम में मसरूफ हो जाते थे परन्तु आज सारे ग्रामीण एक इमारत के पास जमे हुए दिख रहे थे !

“क्या हुआ बंसीधर ! इलेक्सन का परिणाम नहीं आया क्या !!” एक ग्रामीण ने दूसरे ग्रामीण जिसका ना बंसीधर से पूछा ! “नहीं देवकीनंदन भैय्या ! अभी भी गिनती चल रही है देखते हैं इस बार पंचायत में ठाकुर साहब आते हैं या अपने मास्टर जी वापिस !” जी हाँ ! आप लोगों ने इस छोटे से वार्तालाप से अंदाजा लगा ही लिया होगा कि आज दयालपुर के पंचायती चुनाव के परिणाम का दिन है और मतपत्रों की गिनती अभी तक जारी थी ! तभी थोड़ी ही देर बाद अंदर बूथ से पीठासीन अधिकारी बहार निकले और परिणाम बताने लगे, “आज हुए चुनाव में मास्टर जी ने ठाकुर साहब को ३०० मतों से हराकर फिर से सरपंची को अपने अधीनस्थ किया है ! मैं मास्टर दिनकर प्रसाद को बढ़ायी देना कहूँगा इस जीत के लिए !” इस परिणाम के बाद सम्पूर्ण गाँव में जहाँ त्यौहार का माहौल था वहीँ ठाकुर साहब के मुखचन्द्र पर कुढ़ के बादल साफ़ दिखाई दे रहे थे !

“३ साल हो गए इस मास्टर को जीतते हुए, ऐसा क्या किया है इसने ३ साल में जो गाँववाले लगातार इसे जिताने में लगे हुए हैं !” ठाकुर साहब ने कुढते हुए अपने मुनीम बसेस्वर लाल से कहा तो मुनीम जी ने अपनी नज़र कनखियों से उठाते हुए ठाकुर साहब से कहा, “ठाकुर साहब ! तो आप उसे जितने ही क्यूँ देते हैं !” ठाकुर साहब मुनीम जी का अभिप्राय नहीं समझ पाए और ज़रा पशोपेश से लबरेज़ आवाज़ में बोले, “आप कहना क्या चाहते हैं मुनीम जी, ज़रा साफ़-साफ़ कहिये न !” “ठाकुर साहब ! वो जीत इसलिए रहा है क्यूंकि वो गांववालों से काफी जुड़ा हुआ है, अगर इस जुड़ाव को तोड़ दिया जाये तो !” ठाकुर साहब के चेहरे पर अब ज़रा मुस्कान दिखाई दी थी, “मुनीम जी ज़रा तफसील से समझाइये !” मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब बोले और मुनीम जी ने अपनी योजना ठाकुर साहब को समझाना शुरू की !

“काम हो गया क्या रामेश्वर !” शाल ओढ़े एक व्यक्ति ने पुछा तो रामेश्वर ने जवाब दिया, “हाँ साहब ! इतना सफाई से किया है काम कि असली भी पहचान नहीं पायेगा कि ये आवाज़ उसकी है या नहीं ! वो ज़रा ईनाम तो दे दीजिए साहब...!” उसके ये कहने पर उस गुमनाम व्यक्ति ने अपना एक हाथ शाल के अंदर डाला और धमाके की आवाज़ उस वीराने में गूंज उठी ! “सुनो ! इस लाश को ठिकाने लगा दो...ये लाश किसीके हाथ नहीं लगनी चाहिए !”

मास्टर दिनकर प्रसाद शहर से आज ही गाँव लौट रहे थे कि रास्ते में पोस्टमास्टर साहब मिल गए, उन्होंने झुककर अभिवादन किया परन्तु पोस्टमास्टर साहब उस अभिवादन को देखा-अनदेखा करके आगे बढ़ गए ! गाँव पहुँचते ही मास्टर जी ने देखा कि सारा का सारा गाँव उनको इस तरह से देख रहा था कि मानो वो कोई अपराधी हो जिसे अदालत ने सबूतों के अभाव में छोड़ दिया हो परन्तु हर कोई जानता हो कि वो अपराधी है ! मास्टर जी को समझ नहीं आ रहा था कि सारे गाँववाले उन्हें ऐसी तीक्ष्ण नज़र से क्यूँ देख रहे थे ? मास्टर जी जैसे ही अपने दफ्तर पहुंचे तो देखते हैं कि समस्त गाँव वहाँ इकट्ठा था और गांववालों के साथ में ठाकुर साहब भी थे !

“मास्टर जी ! आप इस गाँव के एक सम्माननीय व्यक्ति हैं और मैं भी आपका विपक्षी होते हुए भी आपके ज्ञान का सम्मान करता हूँ...मगर आप जैसे ज्ञानी व्यक्ति से ऐसी ओछे विचारों की उम्मीद नहीं थी !” ठाकुर साहब ने कहा तो मास्टर जी असमंजस के भाव लिए हुए चेहरे से बोल उठे, “कौन से विचारों की बात कर रहे हैं आप ठाकुर साहब ?” मास्टर जी के इतना कहते ही ठाकुर साहब ने एक छोटा सा टेप रिकार्डर निकाला और बटन चालू किया तो उसमे से मास्टर जी की आवाज़ थी जो एक जाति-विशेष के बारे में तीखी टिप्पणियाँ कर रही थी ! “ये मेरी आवाज़ नहीं है...ये किसीका षड़यंत्र है...मैं तो यहाँ था भी नहीं !” मास्टर जी ने घबराकर कहा! ठाकर साहब ने कहा, “इस बात पर पंचायत बुलाई जायेगी और आपको वहाँ स्पष्टीकरण देना होगा !”

रात के समय पंचायत बुलाई गयी और नियत समय पर मास्टर जी और ठाकुर साहब भी पहुँच गए ! मास्टर जी ने कहना चालू किया, “भाइयों ! आप सब लोग मुझे अच्छी तरह जानते हैं...मैं एक शिक्षक हूँ, जब ज्ञान देता हूँ तो ये नहीं पूछता हूँ कि ज्ञान-पिपासु की जात और बिरादरी क्या है बस अपना ज्ञान उसे दे देता हूँ और आप ऐसा सोच सकते हैं क्या कि मैं ऐसा बोलूँगा ?” इतने में ही भीड़ से एक व्यक्ति उठा और कहने लगा, “मास्टर जी ! आवाज़ तो आपकी ही थी और आपको ऐसा कहने कि सज़ा तो मिलनी ही चाहिए...देखते क्या हो भाइयों, मारो इस मास्टर को ताकि आगे से कोई किसकी जात-बिरादरी पर ऐसे तंज नहीं कस सके...!!” उस आदमी के इतना कहते ही भीड़ में से ४-५ लोग लाठी लेकर निकल पड़े मानो उन्हें किसी ने ऐसा करने के लिए बैठा रखा हो और जाकर मास्टर जी पर पिल पड़े ! भीड़ मूक-दर्शक बनकर अपने गांव के विकासकर्ता को पीटते हुए और मास्टर जी के होंश धीरे-धीरे गुम होते हुए देखती रही !

अगले दिन अखबार में खबर छपी थी कि गांववालों ने अपने सरपंच को जाति-सूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर पीट-पीटकर मार डाला ! भारतीय संविधान का न्याय भी देखिये जिसके अनुसार भीड़ अगर किसी को मार भी डाले टी उस पर मुकद्दमा नहीं चल सकता है क्यूंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता है ! गाँव में पंचायत के मध्यावधि चुनाव हुए और ठाकुर साहब निर्विरोध निर्वाचित हुए क्यूंकि उनकी एक शतरंज की चाल ने मास्टर की आवाज़ को उन्ही की आवाज़ का इस्तेमाल करवा हमेशा के लिए बंद करवा दिया था और मास्टर की आवाज़ भी इसलिए बंद हुई क्यूंकि जात-बिरादरी को लेकर तथाकथित जन-भावनाएं आहत हुईं थीं...!


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