आधापेट
आधापेट
मैं सड़क के इस किनारे पर खड़ा दुकानों के होर्डिंग पढ़ रहा था।
यह तिलकधारी की दुकान कौन सी है ?
असफल प्रयास के बाद , पुनः एक कोशिश करता हूं।
किसी भी दुकान पर तिलकधारी का बोर्ड नहीं मिल रहा था।
उस पार फलों के ठेले, सब्जियों के ठेले के साथ साथ एक कोने में छोले चावल का ठेला भी था। फटे मेले कुचैले कपड़ों में खड़ा वो आदमी हर खाने वाले, आने जाने वाले से खाने की मांग करता, झिड़की खाता फिर कोशिश करता।
दुकान ढूंढने के प्रयास में कुछ खीज कर मैं इस व्यक्ति को देखने लगा। बार बार कोशिश करता, ठेले वाले की झिड़की खाता (भागो यहां से) थोड़ा हट कर फिर खड़ा हो जाता।
कुछ कोशिशों के बाद एक सज्जन उसके लिए ठेले वाले को पैसे देते हैं, और चले जाते हैं। ठेले वाले एक प्लेट में छोला चावल डाल कर देता है, और वो तेज़ी से खाने लगता है। कुछ ही मिनटों में सफाचट।
तभी एक सज्जन मुझे दुकान का पता बता देते हैं। दुकान उसी तरफ थी, सड़क के उस पार। मैं उस आदमी की बगल से गुजरता हूं मुझ से भी वही मांग करता है बाबूजी छोले चावल खिला दो।
पता नही क्या सोच कर बोल दिया मैने देखा है अभी एक प्लेट छोले चावल खाए है तुमने ?
उससे पेट नहीं भरा बाबूजी, कई दिनों से भूखा हूं।
झूठे कहीं के, यह बोल कर मैं आगे बढ़ गया।
आज भी वो आदमी याद आता है जब भी मैं रोटी खाने के बाद उसकी प्लेट में मौजूद चावल से ज्यादा चावल में छोले मिला रहा होता हूं।