यूँ ही जीती और मर जाती जनता
यूँ ही जीती और मर जाती जनता


देखो कैसे अँधेरों में पलती जनता
गूंगी, बहरी और ये लंगड़ी जनता
नेताओं की सपनों की ख़ातिर
खुद के सपनों को तोड़ती जनता
काजू, किशमिश, मलाई वो खाते
एक निवाले को भी तरसती जनता
पहले नेताओं के जयकारे लगाती
फिर सीने पर गोली खाती जनता
चंद पैसे, दारू, साड़ी की ख़ातिर
अपने वोटों को ही बेच देती जनता
ज़ुल्म की जो लोग तरफदारी करते
उन लोगों को संसद पहुँचाती जनता
बेरोज़गारी ने हर घर तोड़ रखा है
फिर भी धर्म का झंडा उठाती जनता
बीच सड़क पर एक खून हुआ है
बोलती कुछ नहीं है ये गूंगी जनता
सरकारी काली पन्नों की तरह रोज़
यूँ हीं जीती और मर जाती जनता ।