यात्रा बीते साल की
यात्रा बीते साल की
रात है खड़ी देखो खामोश अकेली सी यहाँ।
आओ खोल दें कुछ देर यादों की खिड़कियाँ।।
दहशतनुमा मंजर रहा इस साल हर तरफ।
अंधेरा गहराया रहा जिंदगानी पर चारों तरफ।।
ना बच्चे अटखेली करते नजर आये।
ना गाड़ियों के हार्न ने ही शोर मचाये।।
सब तरफ थी गहरी खामोशी सी छाई।
जाने क्या कहना चाहती थी यह तन्हाई।।
मैं भी तो बैठी रहती चुपचाप नितांत अकेली।
इसीलिए बना लिया तन्हाई को अपनी सहेली।।
कुछ कहना चाहता था यह सन्नाटा पसरा हुआ।
हर तरफ था फैला बस रुआँसा धुआँ ही धुआँ।।
खाली सड़कों पर मूक पशु-पक्षी ही नजर आते थे।
कह नहीं सकते शायद रोटी की तलाश में आते थे।।
सन्नाटे को चीरने में साथ निभाती थी इनकी आवाज।
यही दिलाती थी किसी के तो साथ होने का एहसास।।
शायद किसी दिन किसी पल यह कोहरा छटेगा।
शायद कल एक नयी सुबह का आगाज होगा।।
पंछियों के चहचहाने पर हम फिर दाने डालने जाएँगे।
कानों में फिर से मुस्कुराहट के मोती खनकते पाएँगे।।
शामों में खनकती जाएँगी हमारी चाय की प्यालियाँ।
सुबह फिर बिखराएगी सूरज की अप्रतिम लालिमा।।
इसी उधेड़-बुन में साल की विदाई की रस्म निभाती हूँ।
सपनों की दुनिया में खोया हुआ खुद को मैं पाती हूँ।।