Ghazal No. 18
Ghazal No. 18
न मिला इधर सुकूँ ना आया उधर क़रार हमने किया
इस्तकबाल ज़माने का और तेरी बाँहों में सिमट के भी देख लिया
मिली ना कभी दाद की ना कभी तौसीफ़ ज़माने ने
हमने मुसलसल लिबास-ए-सदाकत पहन के भी देख लिया
छाई थी जो तीरगी घर में एक चराग़ बुझने के बाद
हटा ना वो अँधेरा कई आफ़ताबों को हमने घर में ला के देख लिया
हर एक टुकड़ा काँच का दिखाता रहा हक़ीक़त मेरी
आईने को हमने तोड़ के भी देख लिया
सफर अपना ज़िन्दगी का तन्हा ही रहा
हमने साथ ज़माने के भी चल के देख लिया
तेरे घर का पता मैं कभी भूला ही नहीं
ज़माने ने हमें हर नशा करा के देख लिया
जुस्तजू दोबारा मुलाक़ात की किसी से हुई ही नहीं
हमने शहर में हर शख़्स को गले लगा के देख लिया
सुना था उनको हया आती मिलने में गैरों के सामने वो
फिर भी ना आये हमने खुद से खुद को जुदा करके भी देख लिया
निकली जिस्म से जान पर लबों पर आह ना आई उसने
ज़ुल्म-ओ-सितम की हर एक हद से गुज़र के देख लिया
तसलसुल जलते चले गए ग़मों के चराग़ हमने उनके
दरमियाँ खुशियों का वक़्फ़ा ला के भी देख लिया
उस मज़लूम का दर्द तस्वीर में आश्कार हुआ ही नहीं
मुसव्विर ने अपने ब्रश को हर रंग में डूबो के देख लिया
वो परवाना-ए-यार कभी मेरे पास आया ही नहीं हमने
ज़िस्म को शम्मा जिगर को बाती बना के भी देख लिया
ये तेरी बेख़ुदी थी की मेरा तसव्वुर कि हमने
इश्क़ की नंगी तारों को जिस्म पर लपेट के देख लिया
कभी सुलझा ही नहीं मुअम्मा ज़िन्दगी का छान के ख़ाक
हर दैर-ओ-हरम का पढ़ के हर किताब को भी देख लिया
बहा ही नहीं संग-ए-दिल हुकुमरानों में करम का दरिया
मज़लूमों ने हाथ फैलाकर आँखों में समंदर भी ला के देख लिया
कहीं मिला ही नहीं तेरा मुझसे निस्बत का ज़िक्र
तेरे हर एक खत को हमने हज़ार बार पढ़ के देख लिया
शऊर कहाँ था उसे मेरे लफ़्ज़ों की आहट को सुनने का
उसे हमने नज़्म में ढाल के अपने हर एक शेर में पुकार के देख लिया।
