निमंत्रण
निमंत्रण
अकेलेपन से भीड़ और भीड़ से अकेलेपन तक का सफर।
कैसे तय हुआ, हैरान हूं मैं।
बचपन का तो पता ही ना चला।
माता-पिता से भरपूर प्यार मिला।
आई जवानी तो विदेश गया।
बरसों वही रहा और स्वदेश का सब
कुछ भूल गया।
नए दोस्त मिले नई उमंग मिली वहीं नया परिवार बसा।
अपने बच्चों और नए परिवार में में खोया ऐसे, कि खुद के स्वदेशी परिवार का भूल गया पता।
जैसे बचपन गया जवानी भी चली गई।
एक दिन पत्नी भी चली गई।
बच्चों के नए परिवार बसे। वह भी उनमें ऐसे उलझे,कि मेरे अकेलेपन को पहचान ही ना सके।
किया तो मैंने भी ऐसा था, तब तो मन में कोई गिला ना था। बस एक जुनून था बच्चों को कुछ बनाऊंगा उनको सब सुख सुविधा दिलवाऊंगा।
तब फुर्सत को तरसता था लोगों से बचता था
आज फुर्सत में बैठा मैं अपने दोनों परिवारों को ढूंढता हूं।
एक तो दुनिया में ही नहीं है और दूसरे को मेरे पास आने की फुर्सत नहीं है।
आज भीड़ से फिर अकेला हो गया हूं मैं।
बचपन और जवानी दोनों को खो चुका हूं मैं।
मेरे जैसे लोग और भी तो बहुत होंगें।
कोई बता सकता है कहां और कैसे रहते होंगे?
हैरान हूं मैं परेशान हूं मैं,
शीशे में खुद को देख कर खुद से ही अनजान हूं मैं।
अपनी पुरानी तस्वीरों से जब खुद को मिलाता हूं शीशे में खुद को देख कर मैं खुद को ही कहीं नहीं पाता हूं।
आज बिल्कुल अकेला हूं मैं, क्या कोई मुझको सलाह देगा?
सच में व्यस्तता का रोना नहीं रोऊंगा आज मैं उसके सामने।
क्या आज भी कोई चाय पर मुझे अपने घर आने का निमंत्रण देगा?