ग़ज़ल. 19
ग़ज़ल. 19
ज़िन्दगी में कभी किसी को मीज़ान नहीं मिला
किसी को ज़मीँ तो किसी को आसमाँ नहीं मिला
बड़ा शौक़ था जवानी में दुनिया बदलने का
मुद्दत हुई दिल में वो अरमाँ नहीं मिला
तमाम शब जिसने दिखाए ख़्वाब मकीन होने के
सहर होने पर घर में वो मेहमाँ नहीं मिला
वो बराबर दिलता रहा यकीं अपने करीब होने का
पर घर में मेरे उसके होने का कोई नाम-ओ-निशाँ नहीं मिला
किसको मिला है खुदा यहाँ मुद्दतों तलाश कर
ढूँढ़ने पर मगर किसको अपने अँदर शैताँ नहीं मिला
इत्तिबा' किया है किसने किताब-ए-दीन को लफ्ज़-ब-लफ्ज़
हमें तो ज़हाँ में ऐसा कोई इंसान नहीं मिला
जो कभी रह ना पाता था एक पल भी मेरे बिना
बरसों की जुदाई के बाद भी वो मुझे परेशाँ नहीं मिला
बूढ़े फ़क़ीर ने दे दी अपने हिस्से की रोटी भी उस भूखे बच्चे को
और लोग कहते हैं यहाँ किसी को भगवान नहीं मिला
इल्तज़ा तो की अक्ल ने कफ़स-ए-याद से रिहाई की
पर पासबाँ-ए-दिल से मुझे उसका कभी फ़रमाँ नहीं मिला
आता भी तो कैसे हुनर हमें उभर पाने का
हमें तो कोई भी सैलाब-ए-ग़म यकसाँ नहीं मिला
सुना है मशक लेकर निकले हैं वो शहर की गलियों में
क्या रिन्द क्या साक़ी आज मय-कदे में हमें बादा-फ़रोशाँ नहीं मिला
हादिसा-ए-इश्क़ में जो हुआ था दिल घायल कभी
आजतक उनसे दिल को उसका तावान नहीं मिला
उनकी अधूरी कहानी का था तलबग़ार सारा जमाना
हमारी मुक़म्मल दास्ताँ को फ़क़त एक सना-ख़्वाँ नहीं मिला
खौफ़-ए-ख़ुदा तो है बस दैर-ओ-हरम तक
बाहर तो हमें कोई अपने गुनाहों पे पशेमान नहीं मिला
मोहब्बत को अपनी नादानी कहकर उसने राब्ता तोड़ लिया
और हमको आजतक मर्ज-ए-इश्क़ का दरमाँ नहीं मिला।
