KARAN KOVIND

Abstract

4  

KARAN KOVIND

Abstract

मु्क्ति को व्याकुल इंसान

मु्क्ति को व्याकुल इंसान

2 mins
319


जैसे होती है सुबह

वैसे होती है शाम

इस होने और हो जाने में

मैने मुआजिम को मुआक्किल बनाया

और मुआक्किद को मुआज्जिम

तंज कसा गया

मुल्जिम को बुलाया गया

तुमने इस व्यक्ति कि व्यापकता पर सवाल उठाया

उसके गुणों में दोष है


कविताओं को लिखते समय नींद लेता 

घास छिलते वक्त दूब से बातें करना 

जूते पालिश करते हुये बुदबुदाता है ओर

बारिश जब जब हुयी पानी में मेंढक की तरह उछलता

हवा जब जब चली बुसर्ट के बटन को तोड डाला

और सबसे बड़ी बात

जब भी तुम्हारी प्रेमिका आयी तुमने उसे चुंबन किया 

ये कैसा घोर अन्याय

नहीं जज साहब नहीं 

ये गुनाह मैंने मैंने गलती से किया मुझे 


इसके लिए उम्रकैद कि जगह फांसी दी जाय

मुआक्किल वेवकूल

फंसी तुझे पृथ्वी के दरवाजे दोबारा भेजेगा

मांगना है तो उम्रकैद मांग जहां 

कभी भी 

हवाओ में बटन तोड सकता है

नदियों से पत्राचार और झरनों से बातें

कविताओं में डूब कर अमेरिका से रसिया

धरती से चांद दिल दिमाग सभी जगह 

जा सकता 

मुल्जिम 

जज साहब मुझे उम्रकैद दी जाय

विरोधी वकिल ने पेड़ पत्ते सब एक कर दिये 

नहीं जज साहब इसे फांसी दी जाय


जज साहब ने फैसला सुनाया

आडर आडर‌ आडर

तुम्हे फंसी दी जाये

अब उसे जेल में पत्थर को चक्की में पिसना होगा

ट्रेन की पटरी पर दौड़ेगा

उसे जूते पालिश करने के पैसे नहीं दिये जायेंगे

और जब जब अपनी प्रेमिका से मिलेगा 

उसे गोली मारी जायेगी 

बारिश में नहाने पर उसे जमीन मे गाड दिया जायेग

चुप चाप बैठा अब

वह कैद है

वह ऊब चुका ऐसे संसार से जहां 

लोग चैन से जीने नही देते 

और चैन से मरने।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract