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KARAN KOVIND

Abstract

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KARAN KOVIND

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मु्क्ति को व्याकुल इंसान

मु्क्ति को व्याकुल इंसान

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जैसे होती है सुबह

वैसे होती है शाम

इस होने और हो जाने में

मैने मुआजिम को मुआक्किल बनाया

और मुआक्किद को मुआज्जिम

तंज कसा गया

मुल्जिम को बुलाया गया

तुमने इस व्यक्ति कि व्यापकता पर सवाल उठाया

उसके गुणों में दोष है


कविताओं को लिखते समय नींद लेता 

घास छिलते वक्त दूब से बातें करना 

जूते पालिश करते हुये बुदबुदाता है ओर

बारिश जब जब हुयी पानी में मेंढक की तरह उछलता

हवा जब जब चली बुसर्ट के बटन को तोड डाला

और सबसे बड़ी बात

जब भी तुम्हारी प्रेमिका आयी तुमने उसे चुंबन किया 

ये कैसा घोर अन्याय

नहीं जज साहब नहीं 

ये गुनाह मैंने मैंने गलती से किया मुझे 


इसके लिए उम्रकैद कि जगह फांसी दी जाय

मुआक्किल वेवकूल

फंसी तुझे पृथ्वी के दरवाजे दोबारा भेजेगा

मांगना है तो उम्रकैद मांग जहां 

कभी भी 

हवाओ में बटन तोड सकता है

नदियों से पत्राचार और झरनों से बातें

कविताओं में डूब कर अमेरिका से रसिया

धरती से चांद दिल दिमाग सभी जगह 

जा सकता 

मुल्जिम 

जज साहब मुझे उम्रकैद दी जाय

विरोधी वकिल ने पेड़ पत्ते सब एक कर दिये 

नहीं जज साहब इसे फांसी दी जाय


जज साहब ने फैसला सुनाया

आडर आडर‌ आडर

तुम्हे फंसी दी जाये

अब उसे जेल में पत्थर को चक्की में पिसना होगा

ट्रेन की पटरी पर दौड़ेगा

उसे जूते पालिश करने के पैसे नहीं दिये जायेंगे

और जब जब अपनी प्रेमिका से मिलेगा 

उसे गोली मारी जायेगी 

बारिश में नहाने पर उसे जमीन मे गाड दिया जायेग

चुप चाप बैठा अब

वह कैद है

वह ऊब चुका ऐसे संसार से जहां 

लोग चैन से जीने नही देते 

और चैन से मरने।



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